हिमाचली पहाड़ी भाषा को चाहिए मान्यता

By: Nov 25th, 2021 12:05 am

2003 में बोडो, डोगरी, मैथिली और संथाली भाषा आठवीं अनुसूची में शामिल कर ली गई थीं। अब तक 36 और बोलियां हैं जिन्हें मान्यता मिलनी बाकी है। इसमें हिमाचली पहाड़ी भी अपनी बारी का इंतज़ार कर रही है। हिमाचल में उत्तम स्तर का साहित्य लिखा जा रहा है। पहाड़ी भाषा को मान्यता मिल जाने से पहाड़ी उन भाषाओं की सूची में आ जाएगी जिन्हें मान्यता प्राप्त है। उम्मीद है कि सरकार इस विषय पर गौर करेगी और जल्दी से जल्दी पहाड़ी भाषा को मान्यता प्राप्त होगी। इससे हिमाचल के क्षेत्रीय साहित्यकारों को अपनी मातृभाषा में लिखी रचनाओं को राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत करने का मौका मिलेगा। पहाड़ी भाषा को यह सम्मान निश्चित रूप से मिलना ही चाहिए…

विश्व में सात हज़ार के करीब भाषाएं हैं  जिनमें अंग्रेजी, चीनी, हिंदी, स्पैनिश और फ्रेंच सबसे ज्यादा बोली जाती हैं। पूरे विश्व में अनगिनत बोलियां और उपबोलियां हैं। हमारे देश की बात करें तो इसमें 19500 बोलियां हैं, जिनमें 121  ऐसी बोलियां हैं जिन्हें दस हज़ार या इससे अधिक लोग बोलते हैं। हिमाचल में दस बोलियां अधिकतर बोली जाती हैं, जिनमें सिरमौरी, जो सिरमौर जिला की बोली है। सोलन जिले की बोली बघाटी है, लेकिन जैसे ही हम सोलन जिले के मैदानी इलाकों में जाते हैं, जैसे नालागढ़, पंजेहरा, जोघों आदि, वहां पर पंजाबी भाषा का स्थानीय बोली पर बहुत प्रभाव है। ज्यादातर लोग पंजाबी ही बोलने लगते हैं। अगर हिंदी बोलते हैं तो उसके उच्चारण में पंजाबी साफ झलकती है। आजादी से पहले शिमला बहुत छोटी-छोटी रियासतों से मिलकर बना था। इन रियासतों में सबसे बड़ी रियासत  क्योंथल  थी।  बाद में यह सारी  रियासतें महासू जिले का हिस्सा बन गईं। फिर महासू में बोली जाने वाली बोली महासुई कहलाई। हिमाचल में यह बात प्रसिद्ध है कि हर 12 कोस पर बोली बदल जाती है। आप हिमाचल के एक जिले से दूसरे जिले में जाएंगे तो आपको अलग  बोली और उसका अलग उच्चारण सुनने को मिलेगा। हालांकि  हिमाचली पहाड़ी भाषा समझने में इतनी मुश्किल नहीं है। हां, थोड़ा प्रयास ज़रूर करना पड़ता है। क्योंकि यह सारी बोलियां देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं, तो इन्हें  पढ़ कर आसानी से समझा जा सकता है।

क्षेत्रफल और जनसंख्या के आधार पर कांगड़ी सबसे ज्यादा बोली जाती है। कांगड़ी बोली और हिमाचल की सभी बोलियों में साहित्य, कविता, कहानी, नाटक, यात्रा संस्मरण और शोध ग्रंथ लिखे गए हैं। मंडयाली या मंडियाली मंडी जिले में, बिलासपुरी बिलासपुर और कहलूर क्षेत्र  में, चम्ब्याली या चंबयाली बोली जो चंबा और भरमौर में बोली जाती है। जौनसारी या भद्रवाही जो हिमाचल की सीमाओं से लगने वाले राज्य उत्तराखंड के कुछ हिस्सों में बोली जाती है। लाहुल-स्पीति और किन्नौर में भोटी  बोली  प्रचलन में है। कुल्लू के विश्व प्रसिद्ध  गांव मलाणा में कणाशी बोली जाती है। यह देवताओं की भाषा है। यह हिमाचल की बाकी बोलियों से अलग है। राहुल सांकृत्यायन ने मलाणा के लोगों को किरात कहा है, उनकी बोली को किराती कहा है। हिमाचली भाषा के लिए कुल्लू के प्रसिद्ध साहित्यकार, प्रतिष्ठित भाषाविद, व्याकरण  शास्त्री  एवं  लेखक स्वर्गीय मौलूराम  ठाकुर ने अपना  जीवन यहां की भाषा, संस्कृति, परंपराओं, लोककथाओं व लोक जीवन के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने हिमभारती तथा सोमसी पत्रिकाओं का संपादन किया। उन्होंने हिमाचल कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी के लिए भी उपनिदेशक के रूप में भी कार्य किया। बंशीराम शर्मा जी के साथ पहाड़ी-हिंदी शब्दकोष का संपादन भी किया, जो पहाड़ी बोली को आगे बढ़ाने में मदद कर रहा है। हिमाचल में  लाल  चंद  प्रार्थी, जो चांद कुल्लवी  के नाम से जाने  जाते थे, ने पहाड़ी संस्कृति और भाषा के उत्थान के लिए कार्य किया। बहुत से लेखक, कवि, साहित्यकार और चिंतक निरंतर हिमाचली बोलियों में लिख रहे हैं । सबके नाम यहां लिखना संभव नहीं है। सबसे बढि़या प्रयास जो कोरोना काल में पहाड़ी भाषा के लिए किया गया, वह हिमाचल कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी की टीम ने किया। साथ ही साहित्य  कला  संवाद, प्रदेश के प्रतिष्ठित साहित्यकारों, लेखकों, कवियों एवं चिंतकों ने किया।

 युवा जो सृजनात्मक  लेखन  से जुड़े  हैं, उनका भी योगदान है। यही नहीं, देश के कुछ नामी-गिरामी लोगों को आमंत्रित कर साहित्य और पहाड़ी भाषा के प्रोत्साहन के प्रति यह काम किया है, जिसकी जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। प्रदेश के कोने-कोने से लोक साहित्य में रुचि रखने वाले और लिखने वाले साहित्यकार इसमें शामिल हो रहे हैं। अब तक 628 कार्यक्रम प्रसारित हो चुके हैं। पहाड़ी भाषा  में बहुत सारे ग्रंथों का अनुवाद भी हो चुका है। भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में देश की अधिकतर भाषाओं की क्रमबद्ध सूची दी गई है। अनुच्छेद 344 (1) और 351 के अनुसार इस अनुसूची में 22 भाषाओं को शामिल किया गया है। ये भाषाएं हैं असमिया, बांग्ला, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उडि़या, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगू और उर्दू। इनमें से 14 भाषाओं को संविधान में पहले  ही  सम्मिलित कर लिया  गया था, लेकिन अनुसूची में अन्य भाषाओं के प्रवेश की मांग हमेशा से ही होती रही है। वर्ष 1967 में सिंधी भाषा को आठवीं अनुसूची में जोड़ा गया। इसके पश्चात कोंकणी, मणिपुरी और नेपाली को सन् 1992 में जोड़ लिया गया। 2003 में बोडो, डोगरी, मैथिली और संथाली भाषा आठवीं अनुसूची में शामिल कर ली गई थीं। अब तक 36 और बोलियां हैं जिन्हें मान्यता मिलनी बाकी है। इसमें हिमाचली पहाड़ी भी अपनी बारी का इंतज़ार कर रही है। हिमाचल में उत्तम स्तर का साहित्य लिखा जा रहा है। पहाड़ी भाषा को मान्यता मिल जाने से पहाड़ी उन  भाषाओं की सूची में आ जाएगी जिन्हें मान्यता प्राप्त है। उम्मीद है कि सरकार इस विषय पर गौर करेगी और जल्दी से जल्दी पहाड़ी भाषा को मान्यता प्राप्त होगी। इससे हिमाचल के क्षेत्रीय साहित्यकारों को अपनी मातृभाषा में लिखी रचनाओं को राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत करने का मौका मिलेगा। पहाड़ी भाषा को यह सम्मान निश्चित रूप से मिलना ही चाहिए।

रमेश पठानिया

स्वतंत्र लेखक


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