मुझे पुरस्कार मिल जाए तो…

By: Nov 26th, 2021 12:05 am

प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद यदि मुझे पुरस्कार मिल जाए तो मेरे लिए अत्यंत हर्ष की बात होगी। परंतु यह हर्ष नितांत मेरा होगा। काश ! इसमें मेरे समानधर्मा साहित्यकार और सगे-संबंधी भी शामिल होते। वैसे साहित्य सेवा करते हुए मुझे तीस वर्ष का लंबा समय बीत गया है, अतः कोई भी संस्था-अकादमी चाहे तो मुझे अपने पुरस्कार-सम्मान से नवाज़ सकती है। परंतु बात वही है कि मुझे पुरस्कार मिल जाए तो यह अनहोनी साहित्य जगत को पचाना मुश्किल हो जाएगा। बिना पुरस्कार प्राप्त किए ही जब मेरे समकालीन समानधर्मा साहित्यकार मुझसे दुःखी रहते हैं, तो यदि कोई लक्खी पुरस्कार मिल गया तो वह राशि उनके कष्टों के साथ-साथ मेरे व्यक्तिगत कष्टों में कई गुणा वृद्धि करने के लिए जिम्मेदार नहीं होगी? एक बार मुझे एक स्थानीय संस्था ने मात्र माला पहनाकर तालियां बजवाई थी, उसमें भी मेरी खासी आलोचना हुई थी। लोगों ने इसे प्रायोजित कार्यक्रम बताया था। साहित्यकारों के घरों में कई दिनों तक मातमी धुनें बजती रही थीं। दरअसल मैं ठहरा अपनी धुन का साहित्यकार। थोड़ा रिज़र्व नेचर का होने से समानधर्मा मुझे अहंकारी और घमंडी मानने लगे हैं। उन्होंने मुझे व्यावसायिक लेखक होने का तोहफा दिया है। जबकि मैं देश की उन्हीं पत्र-पत्रिकाओं में लिखता रहा हूं, जिनमें वे लोग लिखते हैं।

 फर्क इतना-सा है कि वे लिखने में थोड़ा शिथिल हैं, जबकि मैं गतिमान हूं। मेरा यही गतिमान होना ही मुझे अलग-थलग छोड़ देने का मुख्य कारण है। कोई मुझसे मिलना नहीं चाहता, बोलना नहीं चाहता और यहां तक कि वे मुझे अपने गुटों में घुसने नहीं देते। इतनी डरावनी परिस्थितियों में यदि मुझे पुरस्कार मिल जाए तो असंख्य आपत्तियां और विपत्तियां उठ खड़ी हो सकती हैं। मुझे ही क्या, पुरस्कार देने वाली संस्था-अकादमी को भी नहीं बख्शा जाएगा। संस्था कार्यक्रम करेगी तो मेरे परिवारजनों के अलावा समारोहों में आएगा कौन? मुझे पता है वह समय मेरे लिए न सही, उस संस्था के लिए कितना अपमानपूर्ण होगा। साहित्य का पुरस्कार हो और उसमें साहित्यकार ही सम्मिलित न हों तो उस पुरस्कार की महत्ता क्या रह जाती है? कल्पना के घोड़े जब मेरे पुरस्कार लेने के मामले में दौड़ता हूं तो अशुभ ज्यादा दिखाई देता है। मैं तो काली सूची में हूं ही, वह सम्मानीय संस्था भी इसी श्रेणी में घोषित की जा सकती है। इसीलिए ज्यादातर मुझे यही लगता रहता है कि मुझे साहित्य का पुरस्कार नहीं मिल सकता। इसीलिए मैंने पुरस्कार मिलने पर ‘तो’ लगाया है। वैसे लिखने-पढ़ने और काम के आधार पर तो मुझे पुरस्कार न्यायोचित हो सकता है, लेकिन साहित्य जगत में मेरी स्थिति सर्वथा भिन्न होने से पुरस्कार मिलना बहुत दुःखद घटना के रूप में भी लिया जा सकता है। जब मेरे लिखने-पढ़ने से ही माहौल दूषित है तो पुरस्कार से मुझे नवाजा जाना मेरे अलावा किसे रास आएगा? एक बार मुझे पुरस्कृत करने की अफवाह मात्र उड़ी थी, उसी से उस संस्था के पास मेरे खिलाफ असंख्य आपत्तियां पहुंच गई थी। वास्तविकता का तो मुझे पता नहीं है, लेकिन इससे हुआ यह कि उस संस्था ने उस वर्ष से पुरस्कार देने की योजना ही आज तक स्थगित कर रखी है। अब संस्था दूसरे कार्यक्रम समारंभ करने की योजना बना रही है, पुरस्कृत करने का घिनौना कार्यक्रम स्थायी रूप से बंद करने की सोच रही है।

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक


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