सरकारें बनाने-गिराने में कर्मचारियों की भूमिका

कई बार कर्मचारियों व अधिकारियों के स्थानांतरण राजनीतिक कारणों से किए जाते हैं तथा प्रताडि़त मुलाजिमों को या तो राजनीतिज्ञों की शरण में जाना पड़ता है या फिर न्यायालयों में चक्कर लगाने पड़ते हैं। सरकार स्थानांतरण की नीतियों को कागजों पर तो बना लेती है, मगर इनका कार्यान्वयन नहीं किया जाता। कर्मचारियों से भेदभाव बंद होना चाहिए…

सरकारी कार्यों के संचालन के लिए एक व्यवस्थित श्रेणी जिसे कर्मचारी या मुलाजिम कहा जाता है, बनाई गई है। इन लोगों को एक विशेष प्रशिक्षण तथा नियमों का ज्ञान देकर जनता के प्रति उत्तरदायी बनाया जाता है। कर्मचारियों का समाज में एक विशेष स्थान होता है क्योंकि यह समझा जाता है कि यह सभी लोग बुद्धिजीवी होते हैं तथा अपने काम का एक विशेष अनुभव लिए होते हैं। आम जनता इन लोगों के दिए हुए सुझावों का अनुसरण करती है तथा इस तरह ये सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष या विपक्ष में जनमत बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान अदा करते हैं।

कर्मचारियों को राजनीतिज्ञों की हर नब्ज़ का पता होता है। वे जानते हैं कि राजनीतिज्ञों को नीतियों व नियमों का कोई ज्यादा ज्ञान नहीं होता क्योंकि उनको पता है कि प्रजातांत्रिक प्रणाली में ऐसे लोगों का शिक्षा का स्तर कोई इतना ज्यादा नहीं होता। ऐसे व्यक्ति को जिसे कृषि, बागवानी, स्वास्थ्य, साइंस, कानून व शिक्षा का मंत्री बना दिया जाए तो वे नौकरशाहों की दी हुई सलाह को ही मानेंगे। नौकरशाह ही कानून बनाते हैं तथा कई बार बनाए गए कानून आम जनता को मान्य नहीं होते तथा इन नियमों का इतना विरोध हो जाता है कि सत्तारूढ़ दल को पराजय का मुंह भी देखना पड़ जाता है। उदाहरणतः कृषि कानून, जिसकी अवधारणा तो कृषकों के पक्ष में ही है मगर फिर भी कई कारणों से यह कानून कई राज्यों के लोगों को मान्य नहीं है तथा उनका विरोध सत्ता पक्ष के विपरीत ही जाता महसूस हो रहा है। आज प्रत्येक घर में विशेषतः हिमाचल जैसे विकसित राज्य में हर तीसरा व्यक्ति किसी न किसी सेवा क्षेत्र में तैनात है। भले ही सत्ता को चलाने में उनका सकारात्मक योगदान ज्यादा है मगर फिर भी कहीं न कहीं उनके नकारात्मक कृत्यों से जनता दुखी हो ही जाती है। कुछ कर्मचारी अपने कार्यों का निष्पादन उचित ढंग से नहीं करते तथा छोटे-छोटे कार्यों के लिए घूस लेने की मांग करते हैं। ऐसे में लोगों में सरकार के विरुद्ध चिंगारी सुलगने लग जाती है जो आगे चल कर आग का रूप धारण कर लेती है। स्थिति उस समय और भी संवेदनशील हो जाती है जब भ्रष्ट अधिकारियों व कर्मचारियों को अहम पदों पर तैनाती दे दी जाती है तथा जो सरकारी धन का दुरुपयोग करते हुए अपनी व राजनीतिज्ञों की जेबें भरने लगते हैं। कुछ कर्मचारी व अधिकारी जातीय आधार पर भी लोगों का पक्षपात से काम करना आरंभ कर देते हैं। यह भी देखा जाता है कि राजनीतिज्ञ भी अपनी ही जाति के लोगों को ज्यादा पसंद करते हैं। ऐसा करने से दूसरी जाति के लोगों में वैमनस्य उत्पन्न होना शुरू हो जाता है। इसी तरह कुछ ऐसे मुलाजिम भी होते हैं जिन्हें राजनीतिज्ञों का अत्यधिक संरक्षण प्राप्त होता है तथा ऐसे मुलाजिम अपने कार्य निष्पादन में कुछ ज्यादा ही अहंकारी हो जाते हैं। मगर ऐसा होना अन्य सेवारत मुलाजिमों को गंवारा नहीं होता तथा वो सत्तारूढ़ पार्टी के विपक्ष में अपना जनमत तैयार करना शुरू कर देते हैं। जन कल्याण के लिए सरकार द्वारा बहुत सी स्कीमें चलाई जाती हैं तथा विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक सहायता को सबसिडी के रूप में दिया जाता है। हालांकि ऐसे कदम निश्चित तौर पर महंगाई को बढ़ाते हैं, मगर यह भी देखा जाता है कि कर्मचारियों के पक्षपात वाले रवैये के कारण गरीब लोग इन सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं तथा पात्र लोगों में सरकार के खिलाफ रोष उत्पन्न होना शुरू हो जाता है।

आज हर काम के लिए लोगों को घूस का सहारा लेना पड़ता है। राजनीतिज्ञ भ्रष्टाचार के विरोध में तो खूब भाषणबाजी करते हैं और कुछ नेता वास्तव में ईमानदार और कर्त्तव्यनिष्ठ भी होते हैं, मगर अधिकतर नेतागण, कर्मचारियों/अधिकारियों के माध्यम से अपनी मुट्ठी गर्म करते रहते हैं तथा मुलाजिम भी ऐसी स्थिति का अनुचित फायदा लेने में पीछे नहीं रहते। कर्मचारियों व अधिकारियांे की अपने काम के प्रति उदासीनता या फिर अत्यधिक सख्ती भी लोगों को सरकार के विरुद्ध लामबंद होने के लिए मजबूर करती रहती है। सरकार ने विभिन्न विभागों विशेषतः पुलिस, आबकारी, खनन, सड़क परिवहन व राजस्व जैसे विभागों को कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए शक्तियां प्रदान की होती हैं, मगर इन विभागों द्वारा कभी-कभी अतिक्रमण करना भी आरंभ हो जाता है। उदाहरणतः मोटर वाहन के नियमों को बनाए रखने के लिए व बिगड़ैल चालकों पर शिकंजा कसने के लिए पुलिस को सख्ती से काम करना पड़ता है। सरकार ने मोटर वाहन नियमों की अवहेलना के लिए बहुत बड़े जुर्माने का प्रावधान कर रखा है ताकि दुर्घटनाओं पर नियंत्रण रखा जा सके, परंतु जब गरीब व्यक्ति या कोई ऐसी महिला या व्यक्ति जो स्थानीय काम से अपने वाहन को सड़क पर ले आता है और उसका चालान हो जाता है, तब उसके महीने की कमाई जुर्माने के रूप में ही निकल जाती है तथा अपनी गाड़ी को छुड़वाने के लिए कोर्ट-कचहरियों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। होना तो यह चाहिए कि चालानों का निपटारा करने के लिए पुलिस अधिकारियों को ही ऐसे अधिकार प्रदान करने चाहिए जो एक निश्चित सीमा के बीच में मौके पर ही जुर्माना कर सकें। इसी तरह जब छोटी-छोटी अवहेलनाओं के लिए अन्य विभागों द्वारा नागरिकों के चालान काटने शुरू हो जाते हैं तो जनता सरकार के विरुद्ध होने लग पड़ती है।

चालानों के साथ-साथ सुधारात्मक कार्यों पर भी जोर देना चाहिए तथा विभागों की इस धारणा को कि वर्तमान में किए गए चालानों की संख्या गत वर्ष से कम नहीं रहनी चाहिए, को भी नकारना चाहिए। कई बार कर्मचारियों व अधिकारियों के स्थानांतरण राजनीतिक कारणों से किए जाते हैं तथा प्रताडि़त मुलाजिमों को या तो राजनीतिज्ञों की शरण में जाना पड़ता है या फिर न्यायालयों में चक्कर लगाने पड़ते हैं। सरकार स्थानांतरण की नीतियों को कागजों पर तो बना लेती है, मगर इनका कार्यान्वयन नहीं किया जाता। ऐसा करना मुलाजिमों को दो अलग-अलग धड़ों में बांट देता है तथा प्रताडि़त वर्ग चुनावों के दिनों में सरकार के विरुद्ध मतदान करता है जो कि सत्तारूढ़ दल को सत्ताहीन करने में सहायक सिद्ध होता है। बहरहाल सत्तारूढ़ दलों को कर्मचारियों व अधिकारियों के साथ भेदभाव की नीति को त्यागना होगा तथा भ्रष्ट मुलाजिमों पर नकेल कसनी होगी।

राजेंद्र मोहन शर्मा

रिटायर्ड डीआईजी


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