संरक्षणवाद अपनाइए, रोजगार बनाइए

सही बात यह है कि यदि हम संरक्षणवाद के साथ अपने घरेलू उद्यमियों के बीच प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहन दें तो आपसी प्रतिस्पर्धा में ये स्वयं कुशल उत्पादन करने लगेंगे। हमने बीते समय में गलती यह की कि संरक्षणवाद के साथ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा नहीं दिया जिसके कारण हमारे उद्यमी अकुशल उत्पादन करने लगे। इसलिए यदि हम संरक्षणवाद को अपनाने के साथ घरेलू प्रतिस्पर्धा को बढ़ाएं तो हमारे उद्यमी कुशल भी हो जाएंगे और हम निर्यातों का सामना भी कर सकेंगे। आश्चर्य की बात है कि इस तथ्य को हमारे सरकारी अधिकारी क्यों नहीं समझते। मेरा मानना है कि तमाम अधिकारियों और नेताओं की संतानें बहुराष्ट्रीय कंपनियों में कार्य करती हैं। सेवानिवृत्ति के बाद ये स्वयं विश्व बैंक की सलाहकारी करने को उत्सुक रहते हैं। इसलिए इनकी मानसिकता ही बन जाती है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को साधें और वे अनजाने में ही देश हित की गलत परिभाषा कर बैठते हैं…

बीते वर्ष में अपने निर्यातों में 10 अरब डालर की वृद्धि हुई है तो आयातों में 21 अरब डालर की वृद्धि हुई है। सच यह है कि निर्यात बढ़ाने के प्रयास में हमारे आयात बढ़ रहे हैं और हम दबते जा रहे हैं। सरकार ने पिछले वर्ष इस समस्या का संज्ञान लेते हुए चीन की ऐप जैसे जूम और कैम स्कैनर पर और रक्षा से संबंधित लगभग 100 वस्तुओं पर प्रतिबंध लगाया था। कोट, पैंट, ज्यूलरी, प्लास्टिक, केमिकल, चमड़ा इत्यादि माल पर आयात कर बढ़ाए थे, लेकिन ये कदम पर्याप्त सिद्ध नहीं हुए हैं। हमारे आयात दिनोंदिन बढ़ते ही जा रहे हैं। कारण यह है कि हमने खुले व्यापार को अपना रखा है। अर्थव्यवस्था को चलाने के दो माडल हैं। एक यह कि हम खुले व्यापार को अपनाएं और अपने माल का निर्यात करने का प्रयास करें। विदेशी माल के आयात करने की छूट दें ताकि हमारे निर्यात क्षेत्र में रोजगार उत्पन्न हो सके और हमारे उपभोक्ता को सस्ता विदेशी माल उपलब्ध हो। इस माडल की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि हम कितना निर्यात कर पाते हैं। सस्ते आयातों का पेमेंट करने के लिए निर्यात से डॉलर अर्जित करना जरूरी होता है।

पिछले वर्ष का अनुभव प्रमाणित करता है कि खुले व्यापार के माडल से हमें सफलता नहीं मिल रही है। निर्यातों में वृद्धि कम और आयातों में वृद्धि अधिक हो रही है। इसलिए हमें दूसरे संरक्षणवाद के माडल को अपनाना चाहिए। इस माडल में हम केवल अति जरूरी माल के आयात को छूट देते हैं। शेष माल पर भारी आयात कर लगा देते हैं जिससे कि अधिकाधिक माल का उत्पादन अपने देश में हो। संरक्षणवाद का लाभ यह है कि हम अधिकतर माल में आत्मनिर्भर हो जाते हैं। हमारी आर्थिक संप्रभुता की रक्षा होती है। नुकसान यह है कि हमें विदेशों में बना सस्ता माल नहीं मिलता है। दूसरा नुकसान है कि हमारे उद्यमी अकुशल उत्पादन में लिप्त हो जाते हैं। विदेशी माल पर आयात कर अधिक होने से आयातित माल महंगा पड़ता है और हमारे उद्यमी मुनाफाखोरी करते हैं या अकुशल उत्पादन करते हैं क्योंकि उन्हें सस्ते विदेशी माल से प्रतिस्पर्धा करने की जरूरत नहीं रह जाती है। इस तथ्य के बावजूद मेरा मानना है कि हमें संरक्षणवाद को अपनाना चाहिए। मान लें कि संरक्षणवाद को अपनाने से अपने देश में अकुशल उत्पादन होता है तो भी इस अकुशल उत्पादन में हमारे श्रमिकों को रोजगार मिलता ही है। उनकी क्रय शक्ति में वृद्धि होती है। अत: प्रश्न यह है कि हम अपने श्रमिकों को रोजगार के साथ महंगा घरेलू माल परोसेंगे या बेरोजगारी के साथ सस्ता विदेशी माल? यदि हम खुले व्यापार को अपनाते हैं और सस्ता विदेशी माल अपने देश में आता है तो हमारे उद्योग बंद हो जाते हैं। हमारे श्रमिक बेरोजगार हो जाते हैं। विदेश का बना सस्ता माल हमारी दुकानों में उपलब्ध तो होता है, लेकिन श्रमिक की जेब में नगद नहीं होता है कि वह उस माल को खरीद सके। सस्ता विदेशी माल स्वप्न जैसा रह जाता है। सस्ता माल उपलब्ध कराकर उन्हें बेरोजगारी के साथ भुखमरी की कगार पर लाने की तुलना में रोजगार के साथ महंगा माल उपलब्ध कराना उत्तम है। तब माल कम भी मिलेगा तो भी वे कुछ खपत तो कर ही सकेंगे। भूखे नहीं मरेंगे। खुले व्यापार का सिद्धांत है कि हर देश उस माल का उत्पादन करेगा जिसे वह कुशलतापूर्वक बना सकता है। जैसे भारत गलीचे का कुशल उत्पादन करे और चीन बिजली के बल्ब का कुशल उत्पादन करे।

भारत सस्ते गलीचों का निर्यात करे और चीन सस्ते बल्ब का निर्यात करे। तब भारत में गलीचे के उत्पादन में रोजगार बनेंगे और उस आय से भारतीय नागरिक चीन के सस्ते बल्ब को खरीद सकेंगे। इसी प्रकार चीन के नागरिकों को बल्ब के उत्पादन में रोजगार मिलेंगे और उस आय से वे भारत में बने सस्ते गलीचे को खरीद सकेंगे। यह सिद्धांत सही है, लेकिन यह गैर आवश्यक माल मात्र पर लागू होता है। जैसे मान लीजिए हम स्टील का आयात चीन से करने लगें, तब हम अपने देश में बंदूक, पनडुब्बियां, हवाई जहाज इत्यादि माल का उत्पादन भी नहीं कर सकेंगे क्योंकि इनके उत्पादन के लिए हमें स्टील चाहिए जिसे प्राप्त करने के लिए हम चीन पर आश्रित हो जाएंगे।

इसलिए अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिए जरूरी है कि हम आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन अपने देश में ही करें, यह चाहे महंगा ही क्यों न पड़े। आर्थिक संप्रभुता की रक्षा का हमें मूल्य तो चुकाना ही पड़ेगा। जैसे हम कार खरीदते हैं तो उस पर इंश्योरेंस का अधिभार अदा करते हैं। इसी प्रकार हमें आयातित माल पर संप्रभुता का अधिभार वसूल करना पड़ेगा। जैसे यदि देश में उत्पादित स्टील का दाम 50 रुपए प्रति किलो है और विदेश में उत्पादित स्टील का दाम 40 रुपए प्रति किलो है, तो हम विदेशी स्टील पर 10 रुपए का संप्रभुता अधिभार लगा सकते हैं, चूंकि हमारे लिए अपने ही देश में स्टील का उत्पादन करना आवश्यक है। तब अपने देश में बने स्टील और आयातित स्टील दोनों का दाम 50 रुपए प्रति किलो हो जाएगा और अपने देश में स्टील का उत्पादन हो सकेगा। बंदूक, पनडुब्बियां, हवाई जहाज इत्यादि का उत्पादन करने के लिए हम चीन पर आश्रित नहीं होंगे। इसलिए आर्थिक संप्रभुता की रक्षा के लिए हमें जरूरी माल में खुले व्यापार को नहीं अपनाना चाहिए। संरक्षणवाद के विरोध में तर्क 1950 से 1990 की हमारी दुर्गति का दिया जाता है। यह सही है कि उस समय हमने संरक्षणवाद को अपनाया और और अपना देश वांछित प्रगति नहीं कर सका। लेकिन इसका कारण केवल संरक्षणवाद को ही नहीं ठहराया जा सकता है। सही बात यह है कि यदि हम संरक्षणवाद के साथ अपने घरेलू उद्यमियों के बीच प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहन दें तो आपसी प्रतिस्पर्धा में ये स्वयं कुशल उत्पादन करने लगेंगे। हमने बीते समय में गलती यह की कि संरक्षणवाद के साथ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा नहीं दिया जिसके कारण हमारे उद्यमी अकुशल उत्पादन करने लगे। इसलिए यदि हम संरक्षणवाद को अपनाने के साथ घरेलू प्रतिस्पर्धा को बढ़ाएं तो हमारे उद्यमी कुशल भी हो जाएंगे और हम निर्यातों का सामना भी कर सकेंगे। आश्चर्य की बात है कि इस तथ्य को हमारे सरकारी अधिकारी क्यों नहीं समझते। मेरा मानना है कि तमाम अधिकारियों और नेताओं की संतानें बहुराष्ट्रीय कंपनियों में कार्य करती हैं। सेवानिवृत्ति के बाद ये स्वयं विश्व बैंक की सलाहकारी करने को उत्सुक रहते हैं। इसलिए इनकी मानसिकता ही बन जाती है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को साधें और वे अनजाने में ही देश हित की ऐसी गलत परिभाषा कर बैठते हैं जिसके अंतर्गत हम आयातों पर निर्भर होते जा रहे हैं और हमारे नागरिक बेरोजगार होते जा रहे हैं।

ईमेल: bharatjj@gmail.com

भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक


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