शहादत का महीना दिसंबर

नवाब चीखा, ये बच्चे मुसलमान होना स्वीकार नहीं करते। इन्हें जीवित ही दीवार में चिनवा दिया जाए ताकि तड़प-तड़प कर इनके प्राण निकलें। दीवार बनती गई और दोनों भाई सिर ताने खड़े रहे। आसपास की भीड़ आश्चर्यचकित थी। उन्हें प्रणाम कर रही थी। फिर वे दिखाई देना बंद हो गए। दीवार उनके सिरों से ऊपर चली गई थी। ठंडा बुर्ज में दादी गुज़री जी को पता चला। उन्होंने आकाश की ओर देखा। मानों बुर्ज की छत भी पारदर्शी हो गई हो और उनके प्राण पखेरू उड़ गए। ऐसा आत्म बलिदान शायद शताब्दियों से किसी ने न देखा था, न सुना था।  गुरु जी के पिता नवम गुरु तेग बहादुर जी पहले ही देश धर्म की रक्षा के लिए आत्म बलिदान दे चुके थे। बालक गोबिंद ने तब स्वयं ही अपने पिता से कहा था कि आपसे बड़ा महापुरुष इस देश में कौन है? अपने पिता के शीश का ही वे अंतिम संस्कार कर पाए थे। धड़ का संस्कार तो लखी बंजारा ने अपने घर को आग लगा कर कर दिया था। इस बलिदान से जो आग जली थी उसी में से गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ उत्पन्न किया था। अब गोबिंद सिंह जी के चारों पुत्रों ने धर्म और देश की खातिर आत्म बलिदान दिया। इसी कारण दिसंबर खास महीना है…

भारतीय इतिहास में  विक्रमी सम्वत् 1762 का पौष मास (दिसम्बर 1704) अविस्मरणीय  माना जाता है। इसी महीने दशगुरु परम्परा के दशम गुरु श्री गोबिंद सिंह जी के चारों सुपुत्रों अजीत सिंह, जुझार सिंह, ज़ोरावर सिंह और फतेह सिंह ने देश और धर्म की रक्षा के लिए अपना बलिदान दिया था। आनंदपुर में मुगल सेना ने गुरु गोबिंद सिंह जी और उनके साथियों को घेरा हुआ था। घेरा काफी लंबा हो गया था। मुगल शासकों ने मध्यस्थों के माध्यम से गुरु जी तक संदेश पहुंचाया कि यदि गुरु जी अपने साथियों सहित आनंदपुर छोड़ देंगे तो मुगल सेना उनका पीछा नहीं करेगी। मुग़लों ने यह आश्वासन कुरान की क़सम खाकर दिया। गुरु जी ने इस पर विश्वास कर लिया और दिसंबर की सर्द रात्रि में अपने जांबाज साथियों सहित आनंदपुर से रोपड़ की ओर चल पड़े। लेकिन वे अभी बहुत दूर नहीं गए थे कि मुग़लों ने कुरान की क़सम को दरकिनार करते हुए गुरु जी पर हमला कर दिया। सर्द रात्रि के उस भयानक मौसम में हुए अचानक हमले से अफरातफरी मच गई। सिरसा नदी को पार करते हुए गुरु जी के दो बेटे, नौ साल का ज़ोरावर सिंह और छह साल का फतेह सिंह अपनी दादी गुज़री जी के साथ परिवार से बिछुड़ गए और अंदर के ही विश्वासघात के कारण सरहिंद के सूबेदार द्वारा बंदी बना लिए गए।

 उसने उन्होंने सर्दियों के भयंकर मौसम में एक ऐसे बुर्ज में कैद कर दिया जिसका नाम ही ठंडा बुर्ज था। और उधर गोबिंद सिंह जी अपने साथियों सहित लड़ते-भिड़ते आगे बढ़ रहे थे कि चमकौर के स्थान पर मुगल सेना ने घेर लिया। दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ। यह बराबर का युद्ध नहीं था। मुगल सेना का संख्या बल कहीं ज्यादा था। लेकिन खालसा पंथ की नव ऊर्जा के कारण गुरु जी के साथियों में भी अतिरिक्त ऊर्जा थी। गुरु जी देश और धर्म के लिए लड़ रहे थे। उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं था जबकि मुगल साम्राज्य बलपूर्वक प्राप्त की गई अपनी सत्ता को बचाए रखने की लड़ाई लड़ रहा था। खालसा फौज ने मुग़लों को उलझाए रखा ताकि गुरु जी बच कर निकल जाएं। ऐसा ही हुआ। लेकिन बाद में सारी खालसा फौज मुग़लों से लड़ती हुई मारी गई। इस लड़ाई में गुरु जी के दो सुपुत्र अजीत सिंह और जुझार सिंह शहीद हो गए। उधर सरहिंद के नवाब वज़ीर खान गुरु जी के कैद किए गए दो छोटे सुपुत्रों ज़ोरावर सिंह और फतेह सिंह को इस्लाम मजहब अपना लेने के लिए विवश कर रहा था और यातना दे रहा था। तीन दिन यह नाटक चलता रहा। लेकिन दोनों बहादुरों ने मुगल सत्ता के आगे झुकने से इंकार कर दिया। वे मुसलमान बनने के लिए तैयार नहीं हुए। ठंडा बुर्ज में ठंडे फर्श पर पड़े हुए दोनों वीर अपनी वृद्धा दादी को बताते रहे कि हम तुर्कों के सामने हार नहीं मानेंगे। दादी गुज़री दोनों को सीने से लगा लेती। लेकिन वह मुगल सत्ता की अमानुषिकता को पहचानती थी। तीसरे दिन नवाब ने कहा, तुम्हारे दोनों बड़े भाई चमकौर में मुग़लों के हाथों मारे गए हैं। मैं तुम्हारी आयु को देखकर तुम्हें मौक़ा दे रहा हूं कि मुसलमान बन जाएं, नहीं तो तुम्हारे भाइयों जैसा ही हाल तुम्हारा होगा।

लेकिन दोनों रणबांकुरे एक क्षण के लिए भी नहीं घबराए। उन्होंने इस्लाम को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। नवाब चीखा, ये बच्चे मुसलमान होना स्वीकार नहीं करते। इन्हें जीवित ही दीवार में चिनवा दिया जाए ताकि तड़प-तड़प कर इनके प्राण निकलें। दीवार बनती गई और दोनों भाई सिर ताने खड़े रहे। आसपास की भीड़ आश्चर्यचकित थी। उन्हें प्रणाम कर रही थी। फिर वे दिखाई देना बंद हो गए। दीवार उनके सिरों से ऊपर चली गई थी। ठंडा बुर्ज में दादी गुज़री जी को पता चला। उन्होंने आकाश की ओर देखा। मानों बुर्ज की छत भी पारदर्शी हो गई हो और उनके प्राण पखेरू उड़ गए। ऐसा आत्म बलिदान शायद शताब्दियों से किसी ने न देखा था, न सुना था।  गुरु जी के पिता नवम गुरु तेग बहादुर जी पहले ही देश धर्म की रक्षा के लिए आत्म बलिदान दे चुके थे। बालक गोबिंद ने तब स्वयं ही अपने पिता से कहा था कि आपसे बड़ा महापुरुष इस देश में कौन है? अपने पिता के शीश का ही वे अंतिम संस्कार कर पाए थे। धड़ का संस्कार तो लखी बंजारा ने अपने घर को आग लगा कर कर दिया था। इस बलिदान से जो आग जली थी उसी में से गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ उत्पन्न किया था। अब गोबिंद सिंह जी के चारों पुत्रों ने धर्म और देश की ख़ातिर आत्म बलिदान दिया। गुरु जी अपने पुत्रों का संस्कार तो दूर की बात, उनके शरीर भी नहीं देख पाए। टोडर मल सोने की मोहरें बिछा-बिछा कर उनके दो छोटे सुपुत्रों के संस्कार के लिए ज़मीन तलाश रहे हैं। और गुरु जी संगत को देख कर कह रहे हैं ः

‘इन पुत्रन के सीस पर वार दिए सुत चार।

चार मुए तो क्या हुआ जब जीवित कई हज़ार।।’

इसीलिए दिसंबर का महीना भारत में बलिदान का महीना मान कर याद किया जाता है। यह भारतीय इतिहास का वह मास है जो देश और धर्म पर सर्वस्व त्याग की भावना भरता है। दिसंबर मास के इसी बलिदान ने कालांतर में भारत का इतिहास बदल दिया और खालसा पंथ ने सप्त सिंधु क्षेत्र से मुगल अफगान साम्राज्य के बचे-खुचे अवशेषों को नष्ट कर दिया। लेकिन न जाने क्यों आज भी दिल्ली में इन्हीं मुगल साम्राज्यवादियों के नाम पर सड़कें रख कर किसे श्रद्धांजलि दी जा रही है। इस तरह खालसा पंथ का इतिहास में बड़ा नाम है। यह शौर्य और देश प्रेम का प्रतीक है। पंजाब हो या कोई अन्य प्रदेश, हिंदू और सिख आपसी भाईचारे के साथ जीवन व्यतीत कर रहे हैं। हिंदुओं और सिखों का इतिहास साझा है, उनकी विरासत एक है। यह विरासत ही हिंदुओं और सिखों को आपस में जोड़ती है। यही कारण है कि पंजाब में आतंकवाद के कारण जो वैमनस्य पैदा हुआ, जो रक्त की नदियां बहाई गईं, वह अब एक इतिहास बन चुका है। पाकिस्तान ने जो आतंकवाद वहां फैलाया, वह भी हिंदू और सिखों की एकता को नहीं तोड़ पाया। हिंदू-सिखों ने मिलकर आतंकवाद का सामना किया और कई बलिदान भी दिए। आज हिंदू और सिख साथ-साथ रहकर प्रेमपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हैं और राष्ट्र की एकता की दृष्टि से नई मिसाल पैदा कर रहे हैं। ईश्वर करे पंजाब यूं ही फलता-फूलता रहे।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


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