स्त्री विमर्श के बहाने

By: Dec 12th, 2021 12:09 am

कविता एक सांस्कृतिक व सामाजिक प्रक्रिया है। इस अर्थ में कि कवि जाने-अनजाने, अपने हृदय में संचित, स्थिति, स्थान और समय की क्रिया-प्रतिक्रिया स्वरूप प्राप्त भाव-संवेदनाओं के साथ-साथ जीवन मूल्य भी प्रकट कर रहा होता है। और इस अर्थ में भी कि प्रतिभा व परंपरा के बोध से परिष्कृत भावों को अपनी सोच के धरातल से ऊपर उठाते हुए सर्वसामान्य की ज़मीन पर स्थापित कर रहा होता है। पाठक को अधिक मानवीय बनाते हुए और एक बेहतर समाज की अवधारणा देते हुए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए रचनात्मकता का विश्लेषण और मूल्यांकन जरूरी है। यथार्थ के समग्र रूपों का आकलन आधारभूत प्राथमिकता है। यदि यह आधार खिसक गया तो कवि कर्म पर प्रश्न उठेंगे।…हिमाचल प्रदेश में कविता व ग़ज़ल की सार्थक तथा प्रभावी परंपरा रही है। उसी को प्रत्यक्ष-परोक्ष, हर दृष्टि और हर कोण से खंगालने की चेष्टा यह संवाद है।… कुछ विचार बिंदुओं पर सम्मानित कवियों व समालोचकों की ज़िरह, कुम्हार का चाक/छीलते काटते/जो घड़ दे एक आकार। ‘हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में’ शीर्षक के अंतर्गत महत्त्वपूर्ण विचार आप पढ़ेंगे। जिन साहित्यकारों ने आग्रह का मान रखा, उनके प्रति आभार। रचनाकारों के रचना-संग्रहों की अनुपलब्धता हमारी सीमा हो सकती है। कुछ नाम यदि छूटे हों तो अन्यथा न लें। यह एक प्रयास है, जो पूर्ण व अंतिम कदापि नहीं है। – अतिथि संपादक

सरोज परमार, मो.-9816208309

अतिथि संपादक: चंद्ररेखा ढडवाल, मो.: 9418111108

हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में -14

विमर्श के बिंदु

  1. कविता के बीच हिमाचली संवेदना
  2. क्या सोशल मीडिया ने कवि को अनुभवहीन साबित किया
  3. भूमंडलीकरण से कहीं दूर पर्वत की ढलान पर कविता
  4. हिमाचली कविता में स्त्री
  5. कविता का उपभोग ज्यादा, साधना कम
  6. हिमाचल की कविता और कवि का राज्याश्रित होना
  7. कवि धैर्य का सोशल मीडिया द्वारा खंडित होना
  8. कवि के हिस्से का तूफान, कितना बाकी है
  9. हिमाचली कवयित्रियों का काल तथा स्त्री विमर्श
  10. प्रदेश में समकालीन सृजन की विधा में कविता
  11. कवि हृदय का हकीकत से संघर्ष
  12. अनुभव तथा ख्याति के बीच कविता का संसर्ग
  13. हिमाचली पाठ्यक्रम के कवि और कविता
  14. हिमाचली कविता का सांगोपांग वर्णन
  15. प्रदेश के साहित्यिक उत्थान में कविता संबोधन
  16. हिमाचली साहित्य में भाषाई प्रयोग (काव्य भाषा के प्रयोग)
  17. गीत कविताओं में बहती पर्वतीय आजादी

स्त्री विमर्श एक मानवतावादी आंदोलन है। कोई भी संवेदनशील व्यक्ति मानवतावादी आंदोलन का विरोध कर ही नहीं सकता। जान लेना आवश्यक है कि स्त्री-विमर्श है क्या? स्त्री विमर्श का मूल लक्ष्य है पितृसत्तात्मक व्यवस्था का पुनःनिरीक्षण। स्त्री विमर्श पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा हाशिए में फेंकी गई स्त्री के सपनों को शब्द देता है। यह बताना चाहता है कि परिवार, विवाह, परंपराएं, समाज, न्याय, मीडिया जैसी संस्थाएं स्त्री को पराधीन बनाए रखने का अनवरत क्रम चलाए हुए हंै। अपनी आधारभूत संरचना में स्त्री भी उतनी ही मानवीय, संवेदनशील, विवेकशील और स्वप्नशील है, जितना पुरुष।

स्त्री-पुरुष की भिन्न मानसिक संरचना के कारण ही दोनों का संसार भिन्न है, सरोकार ही नहीं, दृष्टि और अभिव्यक्ति के औजार भी अलहदा हैं। स्त्री के लिए जमीन पर पैर टिकाने के लिए जगह नहीं और चमगादड़ बन कर उल्टा लटकना उसे स्वीकार नहीं। फिर अपनी अस्मिता के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई क्यों न लड़े वह। सारी वर्जनाओं और प्रतिबंधों से दूर स्त्री अपनी अंतर्मन की लिखत को आंख खोल कर देख रही है, पढ़ रही है। स्वीकार भी कर रही है। वह बताना चाह रही है कि उसे आज तक गलत पढ़ा गया, समझा गया। स्त्री विमर्श का तात्पर्य है परिवार को बचाने के लिए धर्म, समाज और राजनीति के तिकड़म को समझने की चतुराई। अपनी देह और मन, वर्तमान और भविष्य की आक्रामक सजगता। आधी जमीन, आधा आसमान लेने की लड़ाई।

यही है स्त्री विमर्श के तहत स्त्री लेखन। विरोधी इसे स्त्री की मजबूरी कहेंगे जबकि स्त्रियों के लिए यह जरूरी है। पहचान पाने के लिए पुरुष रचनाकार लालायित रहता है तो निश्चित रूप से स्त्री रचनाकार भी पहचान के संकट से गुजर कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती है। पहचान पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता ही है। यश कीर्ति सम्मान पर उसका भी अधिकार है। यदि रचना कालजयी होगी तो स्त्री को कौन रोक सकेगा। स्त्री रबड़ की गुडि़या नहीं जिसे जैसे चाहे मोड़ लो, तोड़ लो, मैली होने पर कूड़ेदान में फेंक दो। वह संपूर्ण मानवी है, आधी दुनिया का हिस्सा है, उसकी इच्छाओं, जरूरतों का सम्मान होना चाहिए। स्त्रियां एक असमान और असंतुलित संघर्ष झेल रही हैं। जब तक पलड़ा बराबर नहीं होगा, सब नीति-नियम बेकार हैं।

साहित्य पर पुरुष मानसिकता सदैव हावी रही है। स्त्री रचनाकारों के लिए एक्सपोज़र कम है। आखिर ऐसी कोई संस्था सामने क्यों नहीं आती जिस पर स्त्रियों का आधिपत्य हो। उस पर तुर्रा यह कि पुरुष रचनाकार यह कहते हैं कि स्त्रियों  को फुटेज ज्यादा मिलता है।  इसके पीछे रूढि़वादी सोच है, मंच दे देंगे तो स्त्री का क्षेत्र फैलेगा। स्त्री का अधिक विकास होगा।

स्त्रियों का लेखन एक संघर्ष है। दिनभर खटते रहने के बाद कुछ समय लेखन के लिए चुरा लेती है, जो व्यवस्था को पसंद नहीं। उसे परवाह नहीं कि उसकी रचना सराही जाएगी अथवा उपेक्षा मिलेगी। संघर्ष करते हुए उसे तराजू का पलड़ा बराबर करना है। स्त्री अपनी राह खोज-खोज कर बना रही है, उसे सरोकारों से जुड़कर भी अपने साथ हुए अत्याचारों, व्यभिचारांे की बात कहनी है। महानगरों में घर और बाहर कठिन परिस्थितियों में जूझती स्त्रियों के साथ कैसे-कैसे छल-प्रपंच हो रहे हैं। कामकाजी स्त्रियां लोकल ट्रेन में लटकती, बित्ता भर सीट के लिए  कचकच करती, थकी हारी, घर पहुंच पब्लिक टैप से पानी भर पतीलियों, कुकरोें, थालियों, गिलासों से लड़ते भिड़ते देर रात सोने का उपक्रम करती हैं। पति की मार खाकर सोने वाली औरत बेआवाज उठ कर अंगीठी जलाकर खटर-पटर में व्यस्त हो काम पर निकल लेती है। दिन-रात ताने सहते हुए गालियों की बौछारों में  अपना मार्ग तलाश रही है।

स्त्री का संपूर्ण जीवन पुरुषवादी धारणा द्वारा निर्धारित है। मिथ्या अवधारणाओं को तोड़ आज की स्त्री न केवल बोलती है, अपितु लिखती है। वक्त ने उसे धकियाया अवश्य है, पर वह गिरते-पड़ते बुलंदियांे तक पहुंचने के लिए प्रयासरत है। मिथ्या अवधारणाओं को तोड़ आज की स्त्री अपने अधिकारों के लिए न्याय की गुहार बोल्ड होकर लगाती हैै। स्त्री को समझ आ गया है कि लक्ष्मण रेखाएं खींची ही जाती हैं लांघे जाने के लिए। न लांघे सीताएं लक्ष्मण रेखाएं तो रावणों का वध कैसे हो? सीता कठपुतली होती तो रावण कैसे मारा जाता। कुछ लोग विमर्शों के नाम से चिढ़ते हैं व समझते हैं कि साहित्य की गंगा विमर्शों से दूषित हो रही है। मेरे विचार में इससे बड़ी भ्रांति हो ही नहीं सकती।

विमर्श सांझा चूल्हा है और इसका लक्ष्य है संवाद। संवाद तब तक होते हैं जब तक परिवर्तन एवं परिष्कार की कोई उम्मीद हो। विमर्श मार-काट नहीं मचाते। विमर्शों के द्वारा मुद्दे तार्किक ढंग से उठाए जाते हैं। एक लोकोक्ति कहीं पढ़ी थी, स्त्री संघर्ष पर सटीक बैठती है। ‘कमजोर कभी नहीं लड़ते, ताकतवर एक घंटा लड़ते हैं, बहुत ताकतवर कुछ घंटे, कुछ दिन, जो संघर्ष करते हैं वे ताउम्र लड़ते हैं।’ नारी विमर्श में दूसरा महत्त्वपूर्ण बिंदु है नारी मुक्ति या देहमुक्ति। वन-उपवनों में सुघड़ जिस्म लिए इठलाती अर्धनग्न बालाएं अथवा किसी रैंप पर लहराती-चलती अधखुले वस्त्र पहने सुंदरियां क्या देहमुक्ति का परचम लहराती हैं? इस तरह की देहमुक्ति को नारी विमर्श मान लेना संभवतः बड़ी भूल होगी। देह की स्वतंत्रता का प्रश्न निश्चित रूप से औरतों की जिंदगी से जुड़़ा है। समाज में उसकी अस्मिता, सम्मान और जीवन के मूल अधिकारों से जुड़ा है।

इस समाज की सारी नैतिकता स्त्री देेह से शुरू होकर स्त्री देह पर ही खत्म होती है। पवित्रता, अपवित्रता, शील, अश्लील, भद्र-अभद्र सभी कुछ लैंगिकता के दायरे में आ जाता है। स्त्री द्वारा आत्महत्या करना यह सूचित करता है कि वह न शारीरिक रूप से स्वतंत्र हुई है, न आर्थिक रूप से, न मानसिक तौर पर अपने को स्वतंत्र कर पाई है। जो स्त्रियां स्वयं को स्वतंत्र करने का प्रयास करती हैं, वे या तो समाज से बहिष्कृत कर दी जाती हैं या यह साबित कर दिया जाता है कि ये मानसिक संतुलन खो बैठी हैं। ऋतुमति होना, गर्भधारण करना, दूध पिलाना, बच्चे पालना, संस्कार देना, पिटना, बलात्कार, गालियां, यांत्रिक शारीरिक संबंध, नोच खसोट, हिकारत चुपचाप झेलते चले जाना स्त्री देह से जुड़े सत्य हैं। स्त्री विमर्श की सबसे बड़ी ताकत यह है कि यह प्रतिशोध से पीडि़त नहीं, उसका विरोध पुरुष से नहीं अपितु पितृसत्तात्मक व्यवस्था से है। वह दमनचक्र का जवाब दूसरे दमनचक्र से हरगिज नहीं देना चाहती। देह की स्वतंत्रता का प्रश्न निश्चित रूप से औरतों की जिंदगी से जुड़ा है। समाज में उनकी अस्मिता, सम्मान और जीवन के मूल अधिकारों से जुड़ा है। स्त्री न केवल घर-परिवार बल्कि समग्र समाज की एक इकाई है। उसका अस्तित्व वैयक्तिक भी है और समूहगत भी। उसकी चिंताएं और सरोकार व्यापक हैं। उसका वजूद एक छोटे समूह खंड का एक टुकड़ा आकाश तक सीमित नहीं है।

वह समग्र समाज की प्रतिनिधि है। यही स्त्री विमर्श की अवधारणा है और समस्त स्त्रियों की रचनात्मकता का पटल है। देहमुक्ति से संबंधित एक प्रश्न मन में कौंधा है, देह पर किसका अधिकार है? सनातन दृष्टि से जिससे सात फेरे लिए हों, वही भर्तार है, नारी देह का स्वामी है, इस अर्थ से नारी दासी हुई। यदि तथाकथित स्वामी व्यभिचारी हो, नकारा हो, शराबी हो, व्यसनी हो, देह भोग कर लतियाता हो, भोजन के नाम पर सबको खिलाने के पश्चात जो उच्छिष्ट बच जाता है, उसे खाने को मजबूर औरत के लिए ऐसा पति या स्वामी सिंदूर की बिंदी से अधिक कुछ नहीं। यदि वह आर्थिक दबाव या बल से डरकर अपनी देह पति को समर्पित न करना चाहे तो उसे अधिकार होना चाहिए कि वह एवज में पुरुष प्रताड़ना करे और समाज उसके साथ हो अर्थात इस अधिकार को सामाजिक स्वीकृति मिलनी ही चाहिए। सोचो! दिन भर औरत कोल्हू के बैल की तरह खटकर समस्त परिवार को भोजन खिला, बर्तन चौका साफ कर, पति की सेज सजा कर एक काम की तरह अपनी देह को तुड़वाती है, इसमें उसकी इच्छा नहीं होती, वह विरोध करने में अक्षम है, तथाकथित पति उसको नोचता है, नख, दंत से चिंचोड़ता है, उसके वक्ष को सहलाने के नाम पर कचोटता है, जब उसका स्त्रीत्व नहीं जागता तो वह भुनभुना कर उसकी चुटिया खींचते हुए मां-बहिन की गाली देते हुए कहता है, ‘रांड दिन भर पता नहीं किस-किस के नीचे बिछ कर आई है’…और वह बात बढ़ने के डर से अंदर की सारी नफरत समेट कर उसे जबरदस्ती निपटा डालती है, उसे फिक्र होती है कि रात भर इसके नखरे उठाती रही तो सुबह कैसे उठ पाएगी। ढोर डंगर उसकी राह तकेंगे। बूढ़े ससुर को सुबह हुक्का देना है। सास के लिए गर्म पानी नहाने के लिए रखना है। बच्चों को स्कूल भेजना, पानी, सानी, खेत-खलिहान, रोटी-पोटी, झाडू बुहारी, उसके पास कहां हैं समय सोचने का? हद तो तब होती है जब दुखते वक्षोज वह रोते हुए बच्चे के मुंह में देती है तो बच्चा दूध पूरा न मिलने पर दांत से काटता है, तब न वह रो सकती है न चीख सकती है, बस घुट कर रह जाती है। इतना सब करने पर भी कोई उससे संतुष्ट नहीं। पति को देह तुष्टि नहीं-बच्चों को ममता की कमी खलती है, बुजुर्गों की शिकायते खत्म नहीं होती।

नाते, रिश्तेदार तो बातें बनाते ही हैं। यदि बच्चे काबिल हुए तो पति गर्व से सीना फुलाते हुए खानदान की सात पुश्तें गिनाते हुए परिवार पर अपना वर्चस्व कायम रखने का दंभ करता है। और यदि संतान नालायक हुई तो पत्नी की दस पीढि़यों के पुरखों को नरक में भेजते हुए लानतें भेजता है। यदि पत्नी घर से बाहर काम कर धन अर्जित करती है तो उस धन पर औरत का अधिकार ही कितना है। कभी बिजनैस के नाम पर तो कभी घर की जरूरतों के नाम पर उसकी पूंजी ऐंठी जाती है और वह पतिव्रत धर्म का निर्वाह करते हुए, दुःख-तकलीफ सहते हुए, घर-बाहर के क्षेत्र की चुनौतियों को स्वीकार करते हुए अपने परिवार के हित को सर्वोपरि रख अपना सब कुछ लुटा कर संतुष्ट रहती है। ऐसी स्त्री से देहमुक्ति की बात करना कोई मायने नहीं रखता। हालांकि सोचती वह भी है, पर परंपराओं का पालन करने में उसकी आस्था रहती है। वह विद्रोह करने में असमर्थ रहती है। उसे अपने परिवार के दुःख-सुख में जाना हो तो परिवार के बड़े से लेकर छोटे तक की आज्ञा लेनी पड़ती है व मान-मनौव्वल करना पड़ता है। जबकि पति ऐसी स्थिति में केवल सूचित कर या बिना सूचना के भी चला जाता है। फिर छूटा हुआ सूत्र पकड़ती हूं कि देहमुक्ति क्या है? देह पर किसका अख्तियार? मेरे विचार में देह पर अधिकार केवल मात्र देहधारी का है। यदि वह अपने संगी से मानसिक रूप से संतुष्ट है तो वह उसे देह भोग के लिए देहयष्टि समर्पित करेगी। अनिच्छा, मानसिक आवेग, क्रोध, चिंता, थकान होने पर उसे पति का स्पर्श भी असह्य होता है। ऐसे में जबरन बनाया गया शारीरिक संबंध ही बलात्कार है।

– सरोज परमार

– (शेष भाग अगले अंक में)


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