नेताजी सुभाष चंद्र बोस का योगदान

अलबत्ता कांग्रेस के नेताओं पर कोई जि़म्मेदारी नहीं आई क्योंकि वे तो जेल में बंद थे। लेकिन नेता जी के इन प्रयासों से ब्रिटेन सरकार द्वारा तैयार की गई भारतीय सेना में जरूर देश की आज़ादी को लेकर समर्थन की आवाज़ें आने लगी थीं। जल सेना ने तो बाक़ायदा विद्रोह का बिगुल ही बजा दिया था। आर्थिक लिहाज़ से इस युद्ध ने इंग्लैंड की कमर तोड़ कर रख दी थी। अंग्रेज़ों ने भारत से जाने का निर्णय कर लिया, लेकिन तब तक सुभाष चंद्र बोस भारतीय जनता के नेता बन चुके थे। उनका नाम ही नेताजी हो गया था। लेकिन वे कहां हैं, इसको लेकर चर्चा शुरू हो गई थी। कुछ का मानना था कि रूस ने उन्हें युद्धबंदी के तौर पर क़ैद में रखा हुआ है। नेहरु को लगा यदि मामला बढ़ता गया, तो उनका क़द सुभाष की गैरहाजिरी में भी उनसे छोटा हो जाएगा। ब्रिटेन आज़ादी का श्रेय कांग्रेस को देने के लिए तैयार था, लेकिन शर्त केवल एक ही थी कि कांग्रेस बाक़ायदा भारत के विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण का प्रस्ताव पास करे। नेहरु इसके लिए तैयार हो गए। अंग्रेज यही चाहते थे और इस तरह भारत का विभाजन हो गया…

नेताजी सुभाष चंद्र बोस को लेकर नए सिरे से चर्चा शुरू हो गई है। विमान दुर्घटना में उनके मारे जाने या न मारे जाने को लेकर नहीं, क्योंकि अब विषय का कोई व्यावहारिक महत्त्व नहीं रह गया है। यदि उस विमान दुर्घटना में वे नहीं भी मारे गए थे, तो अब तक तो उनकी आयु के अनुसार भी मृत्यु हो ही गई होगी। इसलिए असली प्रश्न भारतीय इतिहास में बोस के स्थान, उनके योगदान और समग्र आंदोलन में उनके योगदान को लेकर है। जहां तक मार्क्सवादी इतिहासकारों का प्रश्न है, उनके लिए नेता जी का स्थान द्वितीय विश्व युद्ध में ही निर्धारित हो गया था। उनकी दृष्टि में सारा मामला सफेद-स्याह था। उनके लिहाज़ से दूसरा विश्व युद्ध फासीवादी ताक़तों और फासीवादी विरोधी ताक़तों के बीच हो रहा था। लेकिन असली प्रश्न था कि आखिर फासीवादी ताक़तें कौन सी हैं। इसके लिए मार्क्सवादी इतिहासकारों को न तब मेहनत करने की जरूरत थी और न अब है। रूस जिस देश के खिलाफ है वह देश फासीवादी है। और रूस उस समय ब्रिटेन के साथ हो गया था और जापान, जर्मनी से लड़ रहा था। इसलिए उनके लिए इतिहास साफ और स्पष्ट था। जापान, जर्मनी फासीवादी थे और रूस-ब्रिटेन लोकतंत्र के लिए लड़ रहे थे। लेकिन नेता जी सुभाष चंद्र बोस जर्मनी और जापान के साथ मिल कर भारत से ब्रिटेन का साम्राज्य उखाड़ने के लिए प्रयास कर रहे थे। इसके लिए उन्होंने बाक़ायदा आज़ाद हिंद फौज की स्थापना भी कर ली थी। लेकिन मार्क्सवादी इतिहासकारों को उससे कुछ लेना-देना नहीं था। उनके लिए नेता जी का इतिहास में स्थान तय हो गया था। उन्होंने नेता जी को ‘तोजो का कुत्ता’ कह कर उनका स्थान निर्धारित कर दिया था। ये इतिहासकार अब भी मोटे तौर पर उसी स्थान पर अटके हुए हैं। कांग्रेस की स्थिति इससे भी विचित्र थी और है। कांग्रेस ने ‘बिन खड्ग बिन ढाल’ वाला जयघोष चला रखा था। लेकिन बोस बाबू दोनों का ही प्रयोग कर रहे थे। इसलिए महात्मा गांधी जी ने तो जिस दिन सुभाष बाबू, उनके प्रत्याशी को हरा कर कांग्रेस के प्रधान चुने गए थे, उसी दिन बता दिया था कि वे सुभाष के साथ सहयोग नहीं कर सकते। आज़ादी के आंदोलन को नुक़सान न पहुंचे, इसलिए सुभाष ने इस्तीफा दे दिया था।

पंडित जवाहर लाल नेहरु कांग्रेस में भी समाजवादी टैम्परामैंट के माने जाते थे। उन दिनों समाजवाद और कम्युनिजम दोनों को एक ही माना जाता था। नेहरु के प्रशंसक नेहरु को ‘रैड स्टार इन कांग्रेस’ कहा करते थे। फासीवाद को लेकर नेहरु बचपन से ही सख्त थे। पैमाना उनके पास भी कम्युनिस्टों वाला ही था। जो रूस के खिलाफ वह यक़ीनन फासीवादी। इसलिए उन्हें यह समझते क्षण भर भी नहीं लगा कि सुभाष चंद्र बोस भारत के खिलाफ फासीवादी ताक़तों से मिल गए हैं। इसलिए वे देशद्रोही हुए। देशद्रोहियों को समाप्त करने के लिए नेहरु किसी भी सीमा तक जा सकते थे, इसलिए उन्होंने उन दिनों ही स्पष्ट घोषणा कर दी थी कि यदि सुभाष बाबू ने अपनी फौज लेकर यहां घुसने की कोशिश की तो वे पहले व्यक्ति होंगे जो बंदूक़ लेकर सीमा पर जाकर उनका मुक़ाबला करेंगे। लेकिन आखिर कांग्रेस को भी तो इस मौके पर कुछ न कुछ करना ही था, नहीं तो उसको और सीपीआई को एक ही मान लिया जाता। अतः कांग्रेस ने सत्याग्रह के नाम पर हलचल शुरू की। ब्रिटेन सरकार भी यही चाहती थी। उसने कांग्रेस के प्रमुख नेताओं को उठाकर जेल में डाल दिया और सत्याग्रह का जो हश्र होना था वही हुआ। अलबत्ता कांग्रेस के नेताओं पर कोई जि़म्मेदारी नहीं आई क्योंकि वे तो जेल में बंद थे। लेकिन नेता जी के इन प्रयासों से ब्रिटेन सरकार द्वारा तैयार की गई भारतीय सेना में जरूर देश की आज़ादी को लेकर समर्थन की आवाज़ें आने लगी थीं। जल सेना ने तो बाक़ायदा विद्रोह का बिगुल ही बजा दिया था। आर्थिक लिहाज़ से इस युद्ध ने इंग्लैंड की कमर तोड़ कर रख दी थी। अंग्रेज़ों ने भारत से जाने का निर्णय कर लिया, लेकिन तब तक सुभाष चंद्र बोस भारतीय जनता के नेता बन चुके थे। उनका नाम ही नेताजी हो गया था। लेकिन वे कहां हैं, इसको लेकर चर्चा शुरू हो गई थी। कुछ का मानना था कि रूस ने उन्हें युद्धबंदी के तौर पर क़ैद में रखा हुआ है। नेहरु को लगा यदि मामला बढ़ता गया, तो उनका क़द सुभाष की गैरहाजिरी में भी उनसे छोटा हो जाएगा। ब्रिटेन आज़ादी का श्रेय कांग्रेस को देने के लिए तैयार था, लेकिन शर्त केवल एक ही थी कि कांग्रेस बाक़ायदा भारत के विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण का प्रस्ताव पास करे।

 नेहरु इसके लिए तैयार हो गए। जब कांग्रेस कार्यकारिणी में यह प्रस्ताव आया तो राम मनोहर लोहिया जी के अनुसार महात्मा गांधी इसे सुनकर भौंचक्के रह गए थे। लेकिन वे जल्दी ही समझ गए कि नेहरु और उनके साथियों ने पहले ही लार्ड माऊंटबेटन और उसकी पत्नी से सांठगांठ कर रखी थी। गांधी जी तो कांग्रेस के चार आना के सदस्य भी नहीं थे। अलबत्ता उन्होंने कार्यकारिणी के सदस्यों से पार्टी का अनुशासन मानने की सलाह दी। खान अब्दुल्ला ग़फ्फार खान ने तो कहा कि कांग्रेस हमें भेडि़यों के आगे फेंक रही है। कि़स्सा कोताह यह कि जब कांग्रेस ने देश को विभाजित करने की शर्त मान ली तो अंग्रेज़ों ने नेहरु को कार्यवाहक प्रधानमंत्री बना दिया। उसके बाद से ही नेता जी इतिहास की आधिकारिक किताबों से गुम होने लगे। लेकिन वे देश के लोगों के दिल से कभी गुम नहीं हुए। यह ख़ुशी की बात है कि आम भारतीय के नेता सुभाष चंद्र बोस के योगदान को फिर से खंगाला जा रहा है। आजादी के आंदोलन में सुभाष चंद्र बोस के योगदान को कोई नकार नहीं सकता है। भारतीय जनमानस भी इस बात को समझता है। इसीलिए आज भी सुभाष चंद्र बोस को भारतीय याद करते हैं। उनके आजादी के आंदोलन में योगदान को फिर से खंगाला जाना चाहिए। जो सम्मान सुभाष चंद्र बोस को मिलना चाहिए, वह आज तक नहीं मिल पाया है। सुभाष चंद्र बोस ने अंग्रेजों को सीधे ललकारा था, इसलिए उनको भारत को आजाद करना पड़ा। सुभाष चंद्र बोस न होते तो भारत को आजाद होने में कई वर्ष लग जाते। इसलिए सुभाष चंद्र बोस को वह सम्मान मिलना चाहिए, जिसके वह हकदार हैं।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App