न्यायपालिका की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप न हो

हालांकि न्यायाधीश डर या पक्षपात के बिना न्याय करने की शपथ लेते हैं, लेकिन अपमानजनक आलोचना की आशंकाओं ने उन्हें इस मामले से हटने के लिए मजबूर कर दिया। यह ठीक है कि कुछ कनिष्ठ जजों ने समय-समय पर आपत्तिजनक निर्णय देकर अपने पद की गरिमा को ठेस पहुंचाई है, मगर इस मामले में कार्रवाई हुई है…

न्यायपालिका की स्वतंत्रता का आशय है कि सरकार के अन्य अंग विधायिका, कार्यपालिका व मीडिया न्यायालय के कार्य में कोई बाधा न डालें ताकि वह निष्पक्ष रूप से न्याय दे सके। न्यायपालिका अपने कार्य को निष्पक्षता तथा कुशलता से तभी कर सकती है जब वह स्वतंत्र और निष्पक्ष हो तथा उस पर किसी प्रकार का दबाव न हो। ‘न्याय केवल होना ही नहीं चाहिए, बल्कि इसे होते हुए देखा भी जाना चाहिए वाली उक्ति तभी प्रमाणित हो सकती है जब न्यायालयों की कार्यप्रणाली में कोई हस्तक्षेप व दबाव न हो। न्यायपालिका के सदस्यों का व्यवहार व आचरण न्यायपालिका की निष्पक्षता के प्रति लोगों के विश्वास की पुष्टि करता है। न्यायाधीशों की अपनी एक गरिमा होती है तथा उन्हें पृथकता का स्तर बनाए रखना पड़ता है। न्यायपालिका की स्वतत्रंता के कुछ सिद्धांत होते हैं तथा विधि का विधान यानी कानून सर्वोपरि होता है जो कि समान रूप से लागू होता है। न्यायपालिका के कार्यों व निर्णयों की मनमाने ढंग से आलोचना नहीं होनी चाहिए। आज जिस ढंग से मीडिया ट्रायल स्वतंत्र न्यायपालिका पर भारी पड़ता जा रहा है उसके जज साहिबान भी तनावग्रस्त देखे जा सकते हैं। वास्तव में मीडिया के कुछ लोगों को कानून की न्यायिक प्रक्रिया व विधि-विधान की बारीकियों का ज्यादा ज्ञान नहीं होता तथा वो अधजल गगरी की तरह ही छलकते हुए कुछ ज्यादा ही प्रतीत होते हैं। सर्वोच्च न्यायालय को तो पूर्ण अधिकार है कि वह अधीनस्थ न्यायाधीशों के निर्णयों के पुन: संज्ञान ले तथा जरूरत पडऩे पर उन्हें प्रताडि़त भी करे, मगर हर कोई व्यक्ति, संस्था व सरकार को ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है। वास्तव में मीडिया ट्रायल पर कोई अंकुश नहीं है तथा अब सोशिल मीडिया तो सारी सीमाएं लांघ रहा है तथा कुछ भी लिखने से परहेज नहीं करता। उदाहरणत: पालघर में साधुओं की हत्या, महामारी में तबलीगी जमात की कथित संलिप्तता, अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु तथा इसी तरह अन्य कई केसों में मीडिया ने अपने ही ट्रायल शुरू कर दिए तथा न्याय व्यवस्था में दबाव डालने का भरसक प्रयत्न किया। इसी तरह सरकार भी कई बार न्यायालयों के निर्णयों के खिलाफ राजनीति को ध्यान में रखते हुए अपनी मर्जी से कई अधिनियमों में संशोधन कर देती है तथा जाहिर है कि ऐसा करने से जजों का तनावग्रस्त होना स्वाभाविक हो जाता है। इसके अतिरिक्त जजों को अपराधियों व आतंकवादियों द्वारा भी समय-समय पर धमकियां मिलती रहती हैं तथा कई बार तो उन्हें अपनी जान भी गंवानी पड़ी। इस संबध में कुछ एक उदाहरणों का उल्लेख इस प्रकार से है। 1. वर्ष 1989 में जम्मू-कश्मीर के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश नीलकंठ गंजू का आतंकवादियों ने इसलिए कत्ल कर दिया था क्योंकि उन्होंने मकबूल भट्ट नामक आतंकवादी को एक पुलिस इंसपैक्टर की हत्या के लिए वर्ष 1968 में (जब वो सैशन जज थे) फांसी की सजा दी थी। ऐसी घटनाएं निश्चित तौर पर न्यायपालिका के वर्ग को आतंकित करती रहती हैं।

2. जुलाई 2021 में धनवाद के जज उत्तम चंद को जब वह सुबह की सैर कर रहे थे एक ऑटो रिक्शा वाले ने टक्कर मार कर मौत के घाट उतार दिया। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि वह बहुत ही संवेदनशील मुकद्दमे का ट्रायल कर रहे थे। 3. वर्ष 2018 में गुरुग्राम के एक जज की पत्नी व उसके बच्चे को जज के सुरक्षा कर्मचारी ने ही गोलियों से भून डाला था। 4. हाल ही में प्रधानमंत्री जी की पंजाब में यात्रा के दौरान कुछ असामाजिक तत्वों ने उनके काफिले को आगे बढऩे से रोक दिया जिस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय में लोगों ने जनहित में याचिकाएं दायर की। जिन एडवोकेट्स व न्यायाधीशों ने याचिकाओं की पैरवी व सुनवाई करनी थी, उन्हें ‘सिक्ख फॉर जस्टिस नामक संस्था के लोगों द्वारा धमकी भरे टैलीफोन आने आरंभ हो गए। 5. इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय के दो जजों जस्टिस डीवी चंद्रचूड़ और एस. वोपन्ना ने कृष्णानदी जल विवाद की सुनवाई से अपने को इसलिए अलग कर लिया क्योंकि यह विवाद महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र, तेलंगाना राज्यों के बीच पानी के बंटवारे से संबंधित था तथा यह दोनों जज क्रमश: महाराष्ट्र व कर्नाटक के रहने वाले हैं तथा उन्हें सोशिल मीडिया पर ढेरों सारे पक्षपात करने के संबंध में संदेश आने शुरू हो गए थे। हालांकि न्यायाधीश डर या पक्षपात के बिना न्याय करने की शपथ लेते हैं, लेकिन अपमानजनक आलोचना की आशंकाओं ने उन्हें इस मामले से हटने के लिए मजबूर कर दिया। यह ठीक है कि कुछ कनिष्ठ जजों ने समय-समय पर आपत्तिजनक निर्णय देकर अपने पद की गरिमा को ठेस पहुंचाई है, मगर सर्वोच्च न्यायालय ने हमेशा इसका संज्ञान लेकर उचित कार्रवाई की है। 6. लंबित मामलों की बढ़ती फेहरिस्त भी जजों के तनाव का एक अन्य कारण है।

वर्ष 2019 में विभिन्न न्यायालयों में 4-5 करोड़ मुकद्दमे लंबित थे तथा इस संबंध में रिटायर्ड जस्टिस काटजू का कहना है कि इन सभी मामलों को कलीयर करने में सैंकड़ों वर्ष लग सकते हैं। न्यायालयों व जजों की संख्या में वांछित बढ़ोतरी न होने के कारण जजों के कार्य में अत्यधिक बोझ बढ़ता जा रहा है तथा आम जनता इस देरी के लिए जजों को ही उत्तरदायी ठहराती है। मीडिया विशेषत: इलैक्ट्रानिक मीडिया को अपना समानंतर मीडिया ट्रायल आरंभ नहीं कर लेना चाहिए, क्योंकि इससे जज साहिबानों का दिल और दिमाग प्रभावित हो सकता है। मीडिया को अपनी अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का इस्तेमाल करते समय अपनी भाषा मर्यादा, संयम और किसी भी जांच में हस्तक्षेप के अनजाने प्रयास में अदृश्य सीमा रेखा नहीं लांघनी चाहिए अन्यथा वह समय दूर नहीं है जब न्यायपालिका संविधान में प्रदत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आ रही मीडिया के लिए विशेष परिस्थितियों या मामलों के संबंध में कोई लक्ष्मण रेखा नहीं खींच दे। एक अन्य मामले में रिटायर्ड जस्टिस कुरियन ने 2015 में बार काउंसिल में कहा था कि निर्भया हत्याकांड में जजों पर इतना दबाव था जो कि निष्पक्ष ट्रायल में एक बहुत बड़ी बाधा थी। एक जज ने तो यहां तक कह दिया था कि अगर वो कड़ी सजा न देता तो उसे ही लटका दिया होता। इस तरह न्यायपालिका की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप को हर हालत में रोकना होगा।

राजेंद्र मोहन शर्मा

रिटायर्ड डीआईजी


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