सेना, अंतरराष्ट्रीय विवाद-1

टीकाकरण से जैसे ही ओमिक्रॉन का प्रभाव मंद पड़ा है, शहर-बाजारों की रौनक धीरे-धीरे लौटने लगी है और स्कूल भी करीब-करीब दो वर्ष बंद रहने के बाद बच्चों, नौनिहालों के कौतूहल से सजने लगे हैं। चुनाव आयोग ने भी रैलियां करने की अनुमति दे दी है। इस अनुमति का नेताओं ने भी भरपूर फायदा उठाना शुरू कर दिया है। पहले चरण की वोटिंग के बाद उत्तराखंड और गोवा में जैसे ही नेताओं का भविष्य मतपेटियों में बंद हुआ, रैलियों, बड़ी-बड़ी घोषणाओं, होर्डिंग और पोस्टरों पर विराम लग गया। अब बचे हुए कुछ दिन पंजाब के लोगों को सुविधाएं देने की घोषणाएं होंगी और फिर सिर्फ उत्तर प्रदेश।

इन्हीं चुनावों के बीच भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह जी का एक संबोधन भी चर्चा में बना हुआ है, जिसमें उनका कहना है कि ‘जबरन गले लगाने, बिरयानी खाने या झूल झूलने से विदेश नीति नहीं चलती। उनका मानना सही भी है कि विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय संबंध ऐसे दो महत्त्वपूर्ण विषय हैं जिन पर चर्चा मात्र सोशल मीडिया पर आईटी सैल द्वारा फोटो वायरल करने या किसी व्यक्ति विशेष का विरोध करने से सुदृढ़ नहीं हो सकते, अगर हम अंतरराष्ट्रीय संबंध और विदेश नीति की बात करें तो मौजूदा हालात में रूस और यूक्रेन के बीच का विवाद काफी चर्चा में बना हुआ है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि यह विवाद बड़ी ही जल्दी दुनिया को तीसरे विश्वयुद्ध की तरफ ले जा रहा है और इसके लिए दुनिया की दो बड़ी ताकत अमेरिका और रूस ने एक-दूसरे को चेतावनी देना भी शुरू कर दी है। रूस और यूक्रेन के विवाद का मुख्य कारण अमेरिका की विदेश नीति है, जिसकी कूटनीति के कारण पहले तो यूक्रेन को रूस यानी सोवियत संघ से अलग किया गया और अब अमेरिका चाहता है कि यूक्रेन नाटो का हिस्सा बने, जिससे पश्चिमी देश नाटो के नाम पर अपनी सेनाओं को यूक्रेन में बिठा सकें और रूस की हर गतिविधि पर नजर रख सकें।

रूस अमेरिका की इस कूटनीति से भली-भांति वाकिफ है और वह कभी नहीं चाहता कि यूक्रेन नाटो में शामिल हो। विवाद यहीं से ही शुरू हुआ है और आगे कहां तक जाता है, यह आने वाला समय ही बताएगा। रूस-यूक्रेन विवाद में भारत की स्थिति भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। रूस और अमेरिका दोनों भारत के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। भारत अभी भी अपने 55 फीसदी हथियार रूस से खरीदता है जबकि अमेरिका के साथ भारत के संबंध पिछले करीब एक दशक में काफी मजबूत हुए हैं। यूक्रेन ने एशिया में अपना पहला दूतावास 1993 में भारत में ही खोला था, तब से भारत और यूक्रेन के बीच व्यापारिक, रणनीतिक और राजनीतिक संबंध मजबूत हुए हैं। यानी भारत इनमें से किसी भी देश को परेशान करने या साथ देने का जोखिम नहीं उठा सकता। रूस ने अब तक भारत-चीन सीमा विवाद पर तटस्थ रुख अपनाया है। अगर भारत, यूक्रेन का समर्थन करता है तो वह कूटनीतिक रूप से रूस को चीन के पक्ष में ले जाएगा। शायद यही कारण है कि भारत अमेरिका के दबाव के बावजूद संयुक्त राष्ट्र में यूक्रेन पर लाए गए प्रस्ताव का समर्थन नहीं करना चाहता। भारत के लिए चिंता की बात यह भी है कि इस समय यूक्रेन में करीब 20000 भारतीय फंसे हुए हैं, जिनमें से 18000 मेडिकल छात्र हैं।   -क्रमश:

कर्नल (रि.) मनीष धीमान

स्वतंत्र लेखक


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