हिमसख्लन एवलाच सशस्त्रबलों के लिए चुनौती

सैनिकों की हिमस्खलन व एवलांच की चपेट में आकर मौत के आगोश में समाने की यह पहली घटना नहीं है, मगर देश की सीमाओं पर हजारों फुट की ऊंचाई पर मौजूद ग्लेशियरों की तरफ  ध्यान तभी आकर्षित होता है जब प्रतिवर्ष कई सैनिक बर्फीले तूफान की जद में आकर जिंदगी की जंग हार जाते हैं। कई सैनिक अपंग होकर अन्य गंभीर बीमारियों से ग्रसित हो जाते हैं…

भारत की सरहदों को दुश्मनों से सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी हमारे सशस्त्र बलों के जवान पूरी शिद्दत से निभा रहे हैं। भारत पश्चिमी महाज पर दशहतगर्दी के मरकज पाकिस्तान के साथ 740 किमी. लंबी ‘नियंत्रण रेखा’ तथा 3323 किमी. ‘अंतराष्ट्रीय सीमा’ साझा करता है। पूर्वोत्तर में शातिर मुल्क चीन के साथ भारत के पांच राज्यों की 3488 किमी. लंबी ‘वास्तविक नियंत्रण रेखा’ लगती है। इसी एलएसी का 1080 किमी. हिस्सा अरुणाचल प्रदेश के साथ लगता है। 6 फरवरी 2022 को अरुणाचल के कांमेंग सेक्टर में एलएसी पर भारतीय सेना (19 जैकरिफ ) के सात जवान गश्त के दौरान हिमस्खलन की जद में आकर वतन की राह में कुर्बान हो गए। सीमा पर शहादत को गले लगाने वाले सैनिकों में दो जांबाजों का सबंध हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर व कांगड़ा जिले से था। गत 12 फरवरी 2022 को राज्य का माहौल काफी गमगीन हुआ, जब प्रदेश के दोनों स्पूतों के पार्थिक शरीर देश की सरहद से तिंरगे में लिपट कर लौट आए। हालांकि सैनिक किसी प्रांत, धर्म, जाति या समुदाय के नहीं होते। देश का नेतृत्व करने वाली सेना व सैनिक देश की शान व स्वाभिमान होते हैं।

 आज देश में हिजाब व नकाब जैसे मुद्दों में उलझे सियासी रहनुमां यदि बेखौफ होकर चुनावी रैलियों में मशगूल है देश का हर नागरिक अमन से जिंदगी जी कर खुद को सुरक्षित महसूस कर रहा है, तो सुरक्षा का पूरा श्रेय सशस्त्र बलों को ही जाता है। भारत को पाक व चीन  जैसे मुल्कों से सुरक्षित रखने की भारी कीमत सैनिकों के परिवार देश की सरहदों पर अपने स्पूतों को खोकर चुका रहे हैं। मगर अफसोस देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वाले उन सूरमाओं का चुनावी मंचों से जिक्र तक नहीं होता। सैनिकों की हिमस्खलन व एवलांच की चपेट में आकर मौत के आगोश में समाने की यह पहली घटना नहीं है, मगर देश की सीमाओं पर हजारों फुट की ऊंचाई पर मौजूद ग्लेशियरों की तरफ ध्यान तभी आकर्षित होता है जब प्रतिवर्ष कई सैनिक बर्फीले तूफान की जद में आकर जिंदगी की जंग हार जाते हैं। कई सैनिक अपंग होकर अन्य गंभीर बीमारियों से ग्रसित हो जाते हैं। ग्लेशियरों के खिलाफ सेना की जद्दोजहद कुछ दशक पहले ही शुरू हुई थी। बर्फ  का रेगिस्तान कहे जाने वाले 70 किमी. के दायरे में फैले सियाचिन ग्लेशियर जहां पूरा वर्ष बर्फ  की हुकूमत रहती है। तापमान माइनस 55 डिग्री तक गिर जाता है उस दुर्गम व बर्र्फीले क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए भारतीय सेना ने 13 अप्रैल 1984 के दिन ‘आपरेशन मेघदूत’ नामक सैन्य मिशन को अंजाम दिया था। उसी दौरान इसी सियाचिन को हड़पने के लिए पाकिस्तान की सेना ने ‘आपरेशन अबाबील’ चलाया था, मगर सियाचिन में भारतीय सेना की मजबूत किलेबंदी ने पाक सिपहसालारों की पूरी मंसूबाबंदी को नाकाम कर दिया था। कई महीनों तक चले आपरेशन मेघदूत में भी हिमाचल के कई सैनिकों ने अपना बलिदान दिया था। 24 जून 1987 को भारतीय सेना की ‘8 जम्मु एंड कश्मीर लाइट इन्फेंट्री’ के जवानों ने बेहद सघंर्षपूर्ण सैन्य अभियान ‘आपरेशन राजीव’ के तहत 22 हजार फुट की ऊंचाई पर सामरिक दृष्टि से अहम पाकिस्तानी ‘कायद पोस्ट’ को अपने कब्जे में ले लिया था।

 कायद चौकी पर तैनात पाक सेना की ‘स्पेशल सर्विस ग्रुप’ की लाशें बिछाकर भारतीय सेना ने विश्व के सबसे ऊंचे रणक्षेत्र की सरजमीं पर हिंदोस्तान का तिरंगा फहरा कर दुनिया में अपने शौर्य पराक्रम की अनूठी मिसाल कायम की थी। उस सैन्य अभियान में उच्चकोटी की वीरता के लिए सेना ने ‘सुबेदार बाना सिंह’ को ‘परमवीर चक्र’ से नवाजा था। 1987 में संपूर्ण सियाचिन ग्लेशियर पर भारतीय सेना का कब्जा पाक हुक्मरानों के लिए 1971 के बाद दूसरा जिल्लतभरा सदमा था। सियाचिन क्षेत्र में पाक सेना की उस शर्मनाक शिकस्त से गमजदा होकर पाकिस्तान की मारूफ  सियासी लीडर बेगम बेनजीर भुट्टो ने मखसूस अंदाज में पाक सेना को चूडि़यां व उनके जरनैल जिया-उल-हक को हिजाब पहनने का मशबिरा दे डाला था। यदि आज घाटी में आंतक अपनी आखरी सांसे गिन रहा है। दहशतगर्दी पर पाकिस्तान बेनकाब होकर आलमी सतह पर तन्हाई का शिकार हुआ है पाक हुक्मरान अफसुर्दा होकर कई मुल्कों से नवाबी अंदाज में खैरात मांगने को आमादा है, तो यह भारतीय सैन्य रणनीति व कूटनीति का ही प्रभाव है। 14 देशों के साथ अपनी सरहद साझा करके 23 मुल्कों को अपने विस्तारवादी मंसूबों की जद में ले चुके भू-माफिया चीन की ‘पीपल लिबरेशन आर्मी’ भी विश्व में केवल भारतीय थलसेना से ही खौफजदा रहती है। मगर तशवीशनाक पहलु यह है कि कई वर्षों से हमारी सेना को सरहदों पर भयानक विषम परिस्थितियों से गुजरना पड़ रहा है।

 सरहदों पर दुश्मन से निपटने के साथ आंतरिक सुरक्षा में आंतक तथा हिमालयी क्षेत्रों में हिमस्खल व एवलांच जैसी प्राकृतिक आपदाएं सैनिकों के लिए जोखिम व आफत बन चुकी हैं। मार्च 2012 को ग्लेशियर में भारतीय सेना के 6 जवान, फरवरी 2016 को 10 जवान, नवंबर 2019 में 4 जवान और 20 फरवरी 2019 को हिमाचल के किन्नौर जिले में शिपकी लॉ के नजदीक सेना के सात जवान हिमस्खलन का शिकार बने थे। देश का शीर्ष सैन्य नेतृत्व व पूर्व सैन्य अधिकारी समय-समय पर सरकारों को इन मसलों का सियासी हल तराशने के लिए आगाह करते आए हैं मगर सियासी हुक्मरानों का सामरिक विषयों में जमीनी अनुभव का आभाव है तथा पाक व चीन जैसे मुल्क भरोसे के काबिल नहीं हंै यही इन गंभीर मसलों के आगे प्रश्न चिन्ह है। बहरहाल सैन्य शहादतों के मौके पर माहौल कुछ पलों के लिए गमगीन जरूर होता है मगर सरहदें किसी रूहानी ताकत की वजह से महफूज नहीं हैं। हजारों फुट की बुलंदी पर स्थित सियाचिन जैसी सरहदों पर आखरी गोली व आखरी सांस तक राष्ट्ररक्षा में मुश्तैद रहने वाले हमारे बहादुर सैनिकों की खुद की हिफाजत का मुफीद विकल्प तराशा जाना चाहिए। हमारे सियासी रहनुमाओं को वतन पर कुर्बान हो रहे स्पूतों के बलिदान का मोल समझना होगा। देश की सीमाओं के शूरवीर प्रहरियों के जोश, जज्बे, जुनून को देश नमन करता है जो बर्फीली हवाओं के थपेड़ों को सहन करके उफ तक नहीं करते।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं


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