वस्तुएं नहीं, मुफ्त दीजिए

नोटबंदी, जीएसटी और लॉकडाउन ने छोटे उद्योगों को समाप्त कर दिया है और आम आदमी को त्रस्त कर दिया है। इस परिस्थिति में आम आदमी को राहत देना अनिवार्य है। इसका सीधा उपाय है कि उसे जीविकोपार्जन के लिए मुफ्त सुविधाएं उपलब्ध कराई जाए। इस मुफ्त वितरण के विरोध में पहला तर्क यह दिया जाता है कि वित्तीय दृष्टि से ऐसा वितरण टिकाऊ नहीं है। यह तर्क सही नहीं है। सरकार के खर्चों को तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है, मुफ्त वितरण, सरकारी खपत जैसे अधिकारियों को बढ़े हुए वेतन देना अथवा उनके लिए एसयूवी खरीदना और निवेश जैसे हाई-वे बनाना। इन तीनों में यदि हमें मुफ्त वितरण बढ़ाना है तो दूसरे दो यानी सरकारी खपत अथवा निवेश में कटौती करनी पड़ेगी…

चुनाव के समर में मुफ्त वस्तुएं बांटने की होड़ लगी हुई है। सरकार द्वारा पहले ही मुफ्त शिक्षा, किसानों को मुफ्त बिजली, मुफ्त गैस सिलिंडर, मुफ्त आवास आदि दिए जा रहे थे। अब मुफ्त लैपटॉप, साइकिल और कहीं तो शराब भी मुफ्त बांटने के वायदे किए गए ऐसा बताया जा रहा है। इस प्रकार के वितरण में सरकार का राजस्व समाप्त हो जाता है लेकिन लाभार्थी को केवल तात्कालिक आराम मिलता है। उसको अपनी जीविका को लंबे समय तक चलाने का मार्ग नहीं मिलता है। कहावत है कि किसी को मछली देने के स्थान पर मछली पकड़ना सिखाना ज्यादा उत्तम है जिससे कि वह आगे तक स्वयं मछली पकड़ कर अपना पेट भर सके। इसी प्रकार राजनीतिक पार्टियों को मुफ्त वस्तुएं वितरित करने के स्थान पर जनता को अपने रोजगार को बनाने और दीर्घकालीक आय अर्जित करने का रास्ता बनाने में मदद करनी चाहिए। लेकिन यहां समस्या हमारी आर्थिक नीतियों के मूल ढांचे की है। हम मुख्यतः जीडीपी यानी आय के पीछे भाग रहे हैं। जनता को रोजगार मिले या न मिले, हमारी दृष्टि सिर्फ  इस बात पर टिकी हुई कि है देश कितना समृद्ध है, देशवासी गरीब हों तो चलेगा। परिणामस्वरूप जनता को रोजगार उपलब्ध करने के प्रयास नहीं हो रहे हैं। जीडीपी बढ़ाने में बड़ी कंपनियां सफल होती है और छोटे उद्योग असफल होते हैं क्योंकि वे तुलना में महंगा माल बनाते हैं।

इसलिए सरकार ने नीति अपना रखी है छोटे उद्योगों को समाप्त करो और बड़े उद्योगों को बढ़ावा दो जिससे कि देश का जीडीपी बढ़े। लेकिन इसका परिणाम यह है आम आदमी बेबस है। न तो उसके पास रोजगार है और न ही आय का कोई साधन। नोटबंदी, जीएसटी और लॉकडाउन ने छोटे उद्योगों को समाप्त कर दिया है और आम आदमी को त्रस्त कर दिया है। इस परिस्थिति में आम आदमी को राहत देना अनिवार्य है। इसका सीधा उपाय है कि उसे जीविकोपार्जन के लिए मुफ्त सुविधाएं उपलब्ध कराई जाए। इस मुफ्त वितरण के विरोध में पहला तर्क यह दिया जाता है कि वित्तीय दृष्टि से ऐसा वितरण टिकाऊ नहीं है। यह तर्क सही नहीं है। सरकार के खर्चों को तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है, मुफ्त वितरण, सरकारी खपत जैसे अधिकारियों को बढे हुए वेतन देना अथवा उनके लिए एसयूवी खरीदना और निवेश जैसे हाई-वे बनाना। इन तीनों में यदि हमें मुफ्त वितरण बढ़ाना है तो दूसरे दो यानी सरकारी खपत अथवा निवेश में कटौती करनी पड़ेगी। यह बात सही है। यदि निवेश में कटौती की जाए और सरकारी खपत बनाई रखी जाए तब यह वितरण टिकाऊ नहीं रहेगा क्योंकि निवेश करना देश के अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी है। इसके विपरीत यदि सरकारी खपत में कटौती की जाए और निवेश को बनाए रखा जाए तो यह नीति टिकाऊ हो जाती है। यानी विषय मुफ्त वितरण के टिकाऊ होने का नहीं है।

 विषय यह है कि हम सरकारी खपत में कटौती करके मुफ्त वितरण करना चाहते हैं अथवा सरकारी निवेश में कटौती करके। मुफ्त वितरण के विरोध में दूसरा तर्क टैक्स के दुरुपयोग का दिया जाता है। लेकिन हमारे संविधान में कल्याणकारी राज्य की कल्पना की गई है। सरकार का मूल उद्देश्य है कि जनता का कल्याण हासिल करे। इस दृष्टि से बड़े उद्योगों पर कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी की जिम्मेदारी दी गई है जिसके अंतर्गत उन्हें अपने प्रॉफिट के एक अंश का सामाजिक कार्यों में उपयोग करना होता है। इसी क्रम में यदि टैक्स का उपयोग भी जनता को मुफ्त वितरण के लिए किया जाए तो यह कल्याणकारी राज्य के उद्देश्य को बढ़ावा देगा और यह उचित ही दिखता है। मुफ्त वितरण के संदर्भ में असल प्रश्न यह है कि यह वितरण वस्तुओं के रूप में किया जाए अथवा सीधा नगद के रूप में। वस्तुओं के मुफ्त वितरण की तरफ  पहला कदम संभवतः 60 के दशक में फर्टिलाइजर पर सब्सिडी देकर की गई थी। उस समय देश में सूखा पड़ा हुआ था। खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ाना था। किसान फर्टिलाइजर का अधिकाधिक शीघ्र अति शीघ्र उपयोग करें इसलिए सरकार ने इसके दाम न्यून रखे। किसानों ने फर्टिलाइजर का उपयोग बढ़ाया। देश में खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ा और हम भुखमरी से बाहर निकले थे। लेकिन यह विवादस्पद कि क्या फर्टिलाइजर सस्ता होने से ही किसानों ने उसका उपयोग किया। संभव है कि यदि फर्टिलाइजर की उपलब्धि होती और किसान को फसल का समुचित दाम दिया जाता तो भी किसान फर्टिलाइजर का उपयोग बढ़ाते क्योंकि वे लाभ तो अर्जित करना ही चाहते हैं। इसलिए यह सोचना कि सब्सिडी अथवा मुफ्त वितरण से ही हम देश को सही दिशा में ले जा सकेंगे यह उचित नहीं दिखता है। सही यह है कि देश का हर नागरिक अपना हित साधना चाहता है। यदि हम ऐसी नीतियां बनाएं जिसमें वह अपने स्टार पर ही अपने हितों को बढ़ा सके तो वह उनका अवश्य ही अनुसरण करेगा जैसे पूरे देश में बैल गाडि़यों में लकड़ी के पहिए के स्थान पर टायर लगाने का काम किसानों ने बिना किसी सब्सिडी अथवा मुफ्त वितरण के कुशलतापूर्वक संपन्न किया है।

 यह भी विचारणीय है कि यदि जनता देश के प्रधानमंत्री को चुनने के लिए सक्षम है तो क्या वह फर्टिलाइजर का उपयोग करने का निर्णय लेने के लिए सक्षम नहीं है। यानी मुफ्त वितरण अथवा सब्सिडी के माध्यम से जनता को हांकने कि विचारधारा लोकतंत्र के सिद्धांत के मूलतः विरोध में है। लोकतंत्र में माना जाता है कि जनता समझदार है। यदि ऐसा है तो फिर जनता को नगद देकर उसको अपने विवेक के अनुसार वस्तुओं की खरीद करने का अवसर देना चाहिए। ऐसा करने से जनता अपनी जरूरत की वस्तुओं को खरीदेगी न कि उन वस्तुओं को पाएगी जो कि सरकार देना चाहती है। नगद वितरण को न अपनाने के पीछे मुख्यतः सरकारी नौकरशाही के स्वार्थ दिखते हैं। जैसे जनता को यदि खाद्यान्न उपलब्ध कराना है तो उसे सीधे नगद वितरित करके सक्षम बनाया जा सकता है कि वह 20 किलो में गेहूं बाजार से खरीद लेय अथवा उसे 2 प्रति किलो कि दर से गेहूं वितरित किया जा सकता है। दोनों ही तरह से लाभार्थी को गेहूं मिलता है। अंतर यह है कि यदि गेहूं का वितरण वस्तु के रूप में किया जाता है तो सरकारी नौकरशाही को गेहूं खरीदने में, भंडारण करने में, वितरण करने में, राशन की दुकान चलाने में एवं राशन कार्ड बनाने में नौकरी और घूस इत्यादि लेने का पर्याप्त अवसर मिलता है। इसलिए सरकारी तंत्र द्वारा यह दुष्प्रचार किया जाता है की जनता मूर्ख है। जनता नहीं समझती है कि शिक्षा और फर्टिलाइजर का उपयोग करना जरूरी है इसलिए सरकारी अधिकारी वस्तुओं के वितरण की नीति को बढ़ाते हैं जिसमें उनके निजी स्वार्थ रहते हैं अतः सभी पार्टियों को लैपटॉप और बाइसिकल का वितरण करने के स्थान पर सीधे नगद वितरण की नीति पर आना चाहिए जो कि मेरे आंकलन में उनके राजनीतिक हितों के लिए भी उत्तम रहेगा।

भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक

ईमेलः bharatjj@gmail.com


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