सरकारी खजाने की सैर

By: Mar 16th, 2022 12:05 am

सैर सपाटा जीवन की अनिवार्यता में सबसे नीचेे इसलिए आता है, क्योंकि देश की आधी आबादी का संघर्ष रोटी के इर्द-गिर्द घूमता है, जबकि रोजगार की बढ़ती कतार में भावी पीढ़ी की बुनियाद का गतिरोध जारी है। आम आदमी के जीवन में ख्वाहिशों और सुविधाओं के मेले नहीं लगते और न ही उनके विशेषाधिकार सरकार के खजाने से तय होते हैं, इसलिए देश के संसाधनों का आबंटन अब अति विशिष्ट लोगों के समूहों तक केंद्रित हो रहा है। इसी परिप्रेक्ष्य में हिमाचल का बजट सत्र जब वित्तीय व्यवस्था की लोरियांे और डोरियांे से बंधा हुआ, सत्ता और विपक्ष के बीच अपने लिए या प्रदेश के भविष्य के लिए उच्च वचन सुन रहा था, तो कहीं धीमे से कुछ कदम सैर-सपाटे के लिए आगे बढ़ जाते हैं। यानी अब विधायकगण अपने वार्षिक सैर-सपाटे में पर चार लाख खर्च कर पाएंगे। विधायक इस राशि को दो दिन के सैर सपाटे में अर्पित करें या वार्षिक कैलेंडर बनाएं, इसको लेकर सरकारी खजाने को कोई एतराज नहीं। वे चाहें तो घूमते-घूमते ऐसे होटल में विश्राम कर सकते हैं, जिसका दैनिक किराया एक लाख हो या इससे ऊपर भी हो तो हिमाचल के वित्तीय संसाधनों को कोई आपत्ति नहीं होगी। जनप्रतिनिधियों की परिपाटी में आम और खास के फर्क की निशानियांे में, अब राज्य को केवल यह गौर करना होगा कि आगे चल कर हम माननीयों के वेतन-भत्तों को किस तरह आगे बढ़ा सकते हैं। यह लोकतांत्रिक प्रतिष्ठा के बीच एक ऐसा गजब का रिश्ता है जो हमेशा सत्ता और विपक्ष की सहमति को परवान चढ़ाता है।

भले ही हिमाचल कांग्रेस के विधायकों ने बजट व बजट सत्र के बहाने सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया हो या लगातार वाकआउट के पैमानों पर सरकार को सुरक्षात्मक स्थिति में ला दिया हो, लेकिन यकीन करें जब सैर सपाटे के लिए व्यय की सीमा चार लाख हो रही है, विपक्ष भी विनम्र आदर भाव से सहमत दिखाई देगा। हम यह नहीं कहते कि हमारे विधायक सैर सपाटा या महंगे होटलों में रात्रि विश्राम न करें, लेकिन सरकारी खर्च की पनाह में पैदा होती आदतें अगर रूटीन हो जाएंगी, तो कौन किसी गरीब की झोंपड़ी में जाकर यह जानने की हिम्मत करेगा कि वहां तारों की छांव में विश्राम के दौरान भी, आसमान के टूटने का अंदेशा कैसे सोने नहीं देता। बहरहाल विधानसभा सत्र की सारी खटास पर मरहम लगाती सैर-सपाटे की पर्चियां खूबसूरत दिखाई देती हैं, लेकिन यह एक नया मुकाबला भी पैदा करती हैं। हमें अपने प्रदेश के नागरिकों से यह पूछना होगा कि वे साल में सैर-सपाटे के लिए अधिकतम कितना खर्च करते होंगे या उन्होंने कभी किसी होटल के कमरे पर एक रात में 7500 रुपए अदा किए। आम आदमी की औसत से कितने प्रतिशत अधिक जनप्रतिनिधियों के निजी भ्रमण पर खर्च होगा और यह प्रतिदिन के हिसाब से करीब ग्यारह सौ रुपए प्रति विधायक भी आंका जाए तो यह राज्य अपने समस्त विधायकों पर प्रतिदिन 7500 रुपए खर्च कर रहा होगा। आश्चर्य यह कि जिस प्रदेश में ओपीएस बनाम एनपीएस के तर्कों से दिल नहीं पसीज रहा हो या जहां बारह लाख के करीब पंजीकृत पढ़े-लिखे बेरोजगार सड़क पर घूम रहे हों, वहां एक वीआईपी सैर-सपाटा कैसे हो सकता है।

राज्य को अपने जनप्रतिनिधियों को अवश्य भ्रमण पर भेजना चाहिए और अगर उद्देश्यपूर्ण यात्राओं के लिए प्रति विधायक को दस लाख प्रतिवर्ष भी दिए जाएं, तो कोई आपत्ति नहीं होगी बशर्ते इससे सार्थक परिणाम निकलें। मसलन हिमाचल के विधायकों को देश-विदेश की प्रगति, विकास, नवाचार व आर्थिक विकास से बहुत कुछ सीखना चाहिए। अगर कुल्लू के विधायकों को कुछ वर्ष पूर्व यूरोपीय देशों में भ्रमण के लिए भेजा होता, तो मनाली के स्की विलेज का न तो गैर जरूरी विरोध होता और न ही आज की तरह घाटी में खनन होता। हिमाचल के विधायकों को विकास के नित नए मॉडलों के अध्ययन के लिए विदेश जाना चाहिए ताकि जब शिमला-धर्मशाला में स्काई बस परियोजना की रूपरेखा बन रही थी, तो खमख्वाह विरोध न होता। इसी तरह शहरी व पर्यटन विकास की नई अवधारणा को समझने के लिए हर विधायक को बाहर निकलना होगा। सैर-सपाटा मन के द्वार खोलने का अति उत्तम प्रावधान हो सकता है, बशर्ते इस लागत का सदुपयोग उसी तरह से किया जाए जिस तरह हम निजी जीवन में जब कभी घूमने जाते हैं, तो उसके लाभकारी पक्ष और व्यय से हासिल को लेकर लौटते हैं। राज्य सरकार को सैर-सपाटे के इस दायरे को विस्तार देते हुए आठवीं तथा दसवीं के बच्चों को भी जोड़ना होगा। प्रदेश सरकार अगर आठवीं तक के बच्चों को हिमाचल तथा दसवीं के बच्चों को भारत भ्रमण पर भेजे, तो आने वाली पीढि़यों के सामने भविष्य की ख्वाहिशें और चमकदार होंगी तथा उनके व्यक्तित्व विकास की परिकल्पना भी बदलेगी।


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