घोटाले के पीछे बैंकों की भूमिका

 इसके विपरीत प्राइवेट बैंक में यदि उसके मालिक को वही कंपनी 20 करोड़ रुपए की घूस देकर 2000 करोड़ रुपए का घटिया लोन देने के लिए कहे तो मालिक के लिए हानिप्रद होता है क्योंकि 2000 हजार करोड़ रुपए का जो घाटा लगेगा, वह उसका व्यक्तिगत घाटा भी हो जाता है क्योंकि वे कंपनी के मालिक हैं। इसलिए सरकारी बैंकों के मुख्याधिकारी के उद्देश्य बैंक के हित के विपरीत चल सकते हैं जबकि प्राइवेट बैंक के मुख्याधिकारी के उद्देश्य मूलतः बैंक के हितों के सामंजस्य में चलते हैं। यही कारण है कि अपने देश में सरकारी बैंकों के तमाम घोटाले होते रहे हैं और मैं दावे के साथ कह सकता हूं यह आगे भी होते रहेंगे क्योंकि सरकारी बैंकों का ढांचा ही ऐसा है…

एबीजी शिपयार्ड पर 22000 करोड़ रुपए का सरकारी बैंकों को चूना लगाने का आरोप है। इस कंपनी ने पिछले 16 वर्षों में पानी के 165 जहाज बनाए जिनमें से 46 का निर्यात किया गया। इतनी बड़ी संख्या में जहाजों का निर्यात करना इस बात को दर्शाता है कि कंपनी सुदृढ़ थी। इसके अतिरिक्त कंपनी को अंतरराष्ट्रीय जहाजरानी रेटिंग एजेंसियों जैसे लोय्ड्स, ब्यूरो वैरिटास, अमेरिकन ब्यूरो ऑफ शिपिंग एवं अन्य द्वारा अच्छी रैंकिंग दी गई थी। इससे पुनः दिखता है कि कंपनी सुदृढ़ थी। लेकिन 2008 के वैश्विक संकट ने कंपनी को झटका दिया। इनके द्वारा बनाए गए जहाजों की मांग कम हो गई और धीरे-धीरे यह कंपनी घाटा खाने लगी। 2013 में इस कंपनी के द्वारा लिए गए लोन को नॉन परफॉर्मिंग ऐसेट यानी खतरे के लोन बताया जाने लगा। तब भी इसमें कोई घोटाले का आरोप नहीं था। इसके बाद 2016 की कंपनी की ऑडिट रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया है कि कंपनी के खाते पारदर्शी रूप से प्रस्तुत किए गए हैं, यद्यपि कंपनी को घाटा अवश्य लगा है। पुनः घोटाले का कोई संकेत नहीं दिया गया। जनवरी 2018 में इस कंपनी को लोन देने वाले बैंकों की एक मीटिंग में तय किया गया कि कंपनी के खातों की आपराधिक ऑडिट कराई जाए। इस कार्य के लिए अंतरराष्ट्रीय सलाहकारी कंपनी अर्न्स्ट एंड यंग को नियुक्त किया गया। अर्न्स्ट एंड यंग ने जनवरी 2019 में अपनी रिपोर्ट में बताया कि कंपनी ने कुछ रिसाव किया है। कंपनी की विदेशी सब्सिडीरियों के माध्यम से कुछ रकम अपने के निदेशकों आदि के व्यक्तिगत खातों में ट्रांसफर की गई है। लेकिन कितनी मात्रा में यह घोटाला हुआ, इसकी सार्वजनिक जानकारी फिलहाल मुझे उपलब्ध नहीं है। एबीजी शिपयार्ड को लोन देने वाले बैंक मुख्यतः सरकारी बैंक हैं।

 आईसीआईसीआई बैंक इनका लीड बैंक है, यानी इस विशाल लोन को मैनेज करने की प्रमुख जिम्मेदारी आईसीआईसीआई बैंक की थी। आईसीआईसीआई बैंक को आईसीआईसीआई द्वारा स्थापित किया गया था। आईसीआईसीआई स्वयं को विश्व बैंक, सरकारी बैंकों एवं सरकारी बीमा कंपनियों ने स्थापित किया था। वर्तमान में इसके प्रमुख शेयरधारक एलआईसी, स्टेट बैंक म्यूचुअल फण्ड और एचडीएफसी म्यूचुअल फण्ड हैं। यद्यपि तकनीकी दृष्टि से यह प्राइवेट बैंक है, परंतु इसका संचालन इन्हीं सरकारी इकाइयों द्वारा किया जाता है। इसलिए मैं इस बैंक को सरकारी बैंक ही मानता हूं। अन्य सरकारी बैंक जैसे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, आईडीबीआई बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, इंडियन ओवरसीज बैंक आदि मुख्यतः आईसीआईसीआई बैंक द्वारा लिए गए निर्णयों का अनुसरण करते थे। विशेष बात यह है कि इस पूरे प्रकरण में आईसीआईसीआई बैंक ने चुप्पी साधे रखी है। जनवरी 2018 में आपराधिक ऑडिट कराने की पहल स्टेट बैंक द्वारा की गई। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया द्वारा ही नवंबर 2019, अगस्त 2020 एवं अगस्त 2021 में क्रमशः दो शिकायतें और अंत में सीबीआई इन्क्वायरी की बात की गई। स्पष्ट है कि आईसीआईसीआई बैंक, जिसकी प्रमुख जिम्मेदारी इस लोन को मैनेज करने की थी, चुप बैठा हुआ था और वर्तमान में भी चुप बैठा हुआ है। आईसीआईसीआई बैंक का इतिहास भी विश्वास नहीं पैदा करता है।

 2018 में उस समय इसकी प्रमुख चंदा कोचर के पति दीपक कोचर के वीडियोकॉन कंपनी से व्यक्तिगत संबंध थे। वीडियो़कॉन को आईसीआईसीआई बैंक ने लोन दिए थे। इसलिए संदेह बनता था कि लोन देने में सतर्कता नहीं बरती गई थी। इस प्रकरण में चंदा कोचर को हटाया गया था। इससे पता लगता है कि आईसीआईसीआई बैंक के अंदर सब कुछ ठीक नहीं है। एबीजी शिपयार्ड मूलतः सुदृढ़ कंपनी थी जैसा कि इसके द्वारा निर्यात किए गए जहाजों, इसको वैश्विक एजेंसियों द्वारा अच्छी रेटिंग दिए जाने से दिखाई पड़ता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन्होंने अपनी क्षमता से अधिक काम बढ़ा दिया था जैसे कार को यदि ज्यादा तेज चलाया जाए तो वह गर्म हो जाती है। इसी प्रकार यह कंपनी अपनी महत्त्वाकांक्षा के कारण संभवतः 2008 के संकट के बाद घाटे में आ गई। कहावत है कि बनिए की दो पूर्णिमा एक सी नहीं होती है। इसलिए 2008 के संकट के बाद कंपनी के द्वारा घाटा खाना कोई विशेष बात नहीं है। विशेष बात यह है कि 2013 में कंपनी को दिए गए लोन के नॉन परफॉर्मिंग हो जाने के बाद से लेकर आज तक सरकारी लीड बैंक आईसीआईसीआई बिल्कुल चुप्पी साधे हुए है। स्थिति यह है कि सरकारी बैंक के मुख्याधिकारी और सरकारी बैंक के स्वयं के उद्देश्यों में अंतर्विरोध होता है। जैसे मान लीजिए मुख्याधिकारी को 2 करोड़ रुपए प्रति वर्ष का वेतन मिलता है। इन्हें यदि 20 करोड़ रुपए की घूस देकर कोई कंपनी 2000 करोड़ रुपए का घटिया लोन देने के लिए कहे तो मुख्याधिकारी के लिए घटिया लोन को देना लाभप्रद हो जाता है क्योंकि अगले 10 वर्षों में जितना यह वेतन कमाते हैं, उतना इन्हें एक ही दिन में घूस के रूप में मिल जाता है। बैंक को 2000 करोड़ का घाटा लगे तो वह उनके व्यक्तिगत वित्तीय स्वार्थों को प्रभावित नहीं करता है।

 इसलिए सरकारी बैंक के मुख्याधिकारी के लिए लाभप्रद होता है कि वह घूस लेकर घटिया लोन दे। इसके विपरीत प्राइवेट बैंक में यदि उसके मालिक को वही कंपनी 20 करोड़ रुपए की घूस देकर 2000 करोड़ रुपए का घटिया लोन देने के लिए कहे तो मालिक के लिए हानिप्रद होता है क्योंकि 2000 हजार करोड़ रुपए का जो घाटा लगेगा, वह उसका व्यक्तिगत घाटा भी हो जाता है क्योंकि वे कंपनी के मालिक हैं। इसलिए सरकारी बैंकों के मुख्याधिकारी के उद्देश्य बैंक के हित के विपरीत चल सकते हैं जबकि प्राइवेट बैंक के मुख्याधिकारी के उद्देश्य मूलतः बैंक के हितों के सामंजस्य में चलते हैं। यही कारण है कि अपने देश में सरकारी बैंकों के तमाम घोटाले होते रहे हैं और मैं दावे के साथ कह सकता हूं यह आगे भी होते रहेंगे क्योंकि सरकारी बैंकों का ढांचा ही ऐसा है जिसमें मुख्याधिकारी के लिए भ्रष्टाचार में लिप्त होना लाभप्रद होता है। इसका यह अर्थ नहीं कि निजी बैंकों में घोटाले नहीं होते हैं, लेकिन निजी और सरकारी बैंकों के घोटालों में अंतर हैं। पहला यह कि निजी बैंक में घोटाला हो जाए तो वह रकम जनता से टैक्स वसूल करके भरपाई नहीं की जाती है, जैसे रिक्शेवाले को घाटा लग जाए तो सरकार उसकी भरपाई नहीं करती है। दूसरा अंतर है कि निजी बैंक में अक्सर जमाकर्ता ऊंचे ब्याज दर के लोभ में रकम जमा करते हैं। इसलिए उन्हें इस ऊंचे ब्याज दर की रिस्क का खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा। तीसरा अंतर है कि यदि निजी बैंक में गड़बड़ी होती है तो रिजर्व बैंक के पास पर्याप्त अधिकार हैं कि उसे ठीक करे जैसा कि कई निजी बैंकों के संबंध में किया गया है। इससे निजी बैंकों में दीमक पूरे बैंक को खा ले, ऐसा तुलना में कम होता है। इसलिए समय आ गया है कि सरकारी बैंकों का पूर्ण निजीकरण किया जाए और रिजर्व बैंक के नियंत्रक भूमि को सुदृढ़ किया जाए। तभी देश इस प्रकार के घोटालों से बच सकेगा।

भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक

ईमेलः bharatjj@gmail.com


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