उद्यमी भी अपनी जिम्मेवारी समझें

विकसित देशों के उद्यमियों की भांति ईमानदारी से अपना उद्यम चलाने की भावना अभी तक उनके भीतर पूरी तरह से नहीं उतर पाई है। कहीं-कहीं यह तर्क भी दिया जाता है कि ईमानदारी से कार्य करने पर आप अपने उद्यम में लाभ नहीं कमा सकते। इन्हीं सब तथ्यहीन तर्कों का परिणाम है कि सरकार के नियामक विभागों को सख्ती करनी पड़ती है। उद्यमियों से यही अपेक्षा है कि वे लाभ अवश्य कमाएं, परंतु कानूनों के दायरे में रहकर। तभी सरकार और उद्योगों के बीच सौहार्दपूर्ण सामंजस्य स्थापित हो सकता है…

एक समय था, जब भारत की पहचान लाइसेंस राज से होती थी, अधिकतर चीजों पर सरकार का नियंत्रण था जो औद्योगिक विकास में बाधा थी। आज परिस्थितियां बदल गई हैं। सरकार का ज़ोर ‘‘व्यापार में सुगमता’’ पर है। व्यापार से संबंधित सभी प्रक्रियाओं को या तो ‘‘ऑनलाइन’’ कर दिया गया है या किया जा रहा है। ‘‘स्वतः प्रमाणीकरण’’ पर विशेष बल दिया जा रहा है। इसमें उद्यमियों की भी भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती हैै। यह सुनिश्चित होना चाहिए कि जो भी सूचनाएं उद्यमी अपने उद्यम के संबंध में सरकारी विभागों को देते हैं, वे सही और प्रामाणिक हांे। वैसे तो आज इस उदारीकरण के युग में सरकार का भी प्रयास रहता है कि व्यापार में कम से कम दखल दिया जाए। परंतु जहां प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, श्रम कानूनों आदि से संबंधित अधिनियमों के अंतर्गत यदि कोई रिपोर्ट मांगी जाती है अथवा उद्यम का निरीक्षण आवश्यक हो जाता है, वहां उद्यमियों से यही अपेक्षा रहती है कि वे सभी वर्णित नियम व कानूनों का ईमानदारी से पालन करें, ताकि उद्यम अनावश्यक सरकारी दखल के बिना निर्बाध रूप से कार्य करते रहंे, कामगारों के हितों की सुरक्षा रहे व सरकार को मिलने वाले राजस्व में भी कोई हानि न हो। सुरक्षा की दृष्टि से नियम, कानूनों का पालन न करने का परिणाम हाल ही में ऊना के एक उद्योग में हुई दुर्घटना से भी सामने आया है, जिसमें बेकसूर कामगारों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। यहां नियामक विभागों व उद्यमियों दोनों को अपनी जि़म्मेवारी पूरी निष्ठा से निभानी पड़ेगी ताकि भविष्य में इस प्रकार की दुखद घटनाओं को रोका जा सके। ‘‘स्वतः प्रमाणीकरण’’ में उद्यमी का सरकार पर पूर्ण विश्वास रहता है कि वे सही जानकारी दे रहे हैं। कई विकसित देशों में यह प्रक्रिया बहुत पहले से चली आ रही है। वहां उद्यमी भी पूरी ईमानदारी से सही सूचनाओं की जानकारी प्रदान करते हैं। यदि किसी स्तर पर यह पाया जाता है कि ग़लत जानकारी दी गई है अथवा तथ्यों को छुपाया गया है तो इसमें सख्त दंड का प्रावधान भी है। परंतु हमारे देश में इस तरह का माहौल अभी नहीं बन पा रहा है।

 आए दिन इस प्रकार की ख़बरें सामने आती हैं कि ई.पी.एफ.में अनियमितताएं, टैक्स व बिजली की चोरी की गई है, श्रम कानूनों का उल्लंघन कर कामगारों के हितों से खिलवाड़ किया गया है तथा प्रदूषण नियंत्रण के लिए जो उपकरण लगाए जाने चाहिए थे वे या तो नहीं लगाए गए हैं अथवा उन्हें उसी समय चलाया जाता है जब कोई निरीक्षण किया जाना हो। हिमाचल की औद्योगिक नीति-2019 के नियम-4 में उद्यमों के लिए 80 प्रतिशत बोनाफाइड हिमाचलियों के लिए रोज़गार प्रदान करने का प्रावधान है। हिमाचल की भांति कई अन्य राज्यों ने भी इस प्रकार का प्रावधान अपनी औद्योगिक नीति में किया है। औद्योगिकरण का उद्देश्य जहां एक ओर आर्थिकी को मज़बूत करना है, वहीं स्थानीय युवाओं को अपने ही प्रदेश में रोज़गार के अवसर प्रदान करना भी है, ताकि सब सरकारी नौकरियों के पीछे न भागंे। इस प्रावधान के पीछे यह उद्देश्य है कि औद्योगिकरण से राज्य के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन होता है। फलस्वरूप वायु, जल व मिट्टी प्रदूषित होती है। ‘‘ग्लोबल वॉर्मिगं’’ तथा मौसम पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव भी औद्योगिकरण के ही परिणाम हैं। उद्योगों से निकलने वाले खतरनाक अवशिष्ट का सुरक्षित निस्तारण हिमाचल जैसे राज्य के लिए एक बड़ी समस्या है। हिमाचल एक पहाड़ी राज्य है, जहां सरकारी क्षेत्र में स्थानीय युवाओं के लिए रोज़गार के बहुत ज्यादा अवसर नहीं हैं। फलस्वरूप बेरोज़गार युवाओं की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। अपनी औद्योगिक नीति में तथा केन्द्र द्वारा समय-समय पर मिलने वाले पैकेज में उद्यमियों के लिए कई प्रोत्साहन भी दिए गए हैं। इस अवस्था में उद्यमियों से यही अपेक्षा की जाती है कि वे हिमाचली योग्य युवाओं को उनकी क्षमता व योग्यता अनुसार अपने उद्यमों में रोज़गार के लिए प्राथमिकता दें। 80 प्रतिशत हिमाचली की शर्त भी केवल उन्हीं उद्यमियों पर लागू की जाती है जो कि सरकार से कोई प्रोत्साहन प्राप्त करते हैं या प्राप्त करने के इच्छुक हैं।

परंतु कई बार यह देखा गया है कि प्रोत्साहन प्राप्त करने के लिए जब विभाग द्वारा उद्यम में दिए गए हिमाचली रोज़गार का सत्यापन किया जाता है तो अधिकारियों को उस समय तो हिमाचली कर्मी उनके रोज़गार रिकार्ड में दिखा दिए जाते हैं, परंतु बाद में लाभ प्राप्त करने के पश्चात उन्हें हटा दिया जाता है। विचारणीय प्रश्न यह है कि हर उद्यम को अपना कार्य चलाने के लिए श्रम शक्ति की आवश्यकता होती है। यदि हिमाचली व्यक्तियों के रूप में इसकी पूर्ति होती हो तो क्यों न स्थानीय युवाओं को ही रोज़गार दिया जाए। इसके प्रत्युत्तर में यह सुनने को मिलता है कि हिमाचली युवाओं को उद्यमों में कुर्सी-मेज पर बैठने वाला काम ज्यादा पसंद है तथा भारी मशीनों व जोखिम भरी प्रक्रियाओं से वे दूर रहना चाहते हैं। जिस कारण हिमाचलियों को यहां के उद्यमों में रोज़गार देने के प्रति हिचकिचाहट रहती है। परंतु उद्यमियों का यह तर्क न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता। अभी भी हमारे बहुत से उद्यमियों का ‘‘माइंड सैट’’ इस प्रकार का है कि कानूनों को तोड़-मरोड़ कर सरकार से लाभ प्राप्त कर लिया जाए और बाद में परिणाम से बचने के लिए कोई न कोई रास्ता निकल ही आएगा। विकसित देशों के उद्यमियों की भांति ईमानदारी से अपना उद्यम चलाने की भावना अभी तक उनके भीतर पूरी तरह से नहीं उतर पाई है। कहीं-कहीं यह तर्क भी दिया जाता है कि ईमानदारी से कार्य करने पर आप अपने उद्यम में लाभ नहीं कमा सकते। इन्हीं सब तथ्यहीन तर्कों का परिणाम है कि सरकार के नियामक विभागों को सख्ती करनी पड़ती है। उद्यमियों से यही अपेक्षा है कि वे लाभ अवश्य कमाएं, परंतु कानूनों के दायरे में रहकर। तभी सरकार और उद्योगों के बीच सौहार्दपूर्ण सामंजस्य स्थापित हो सकता है।

संजय शर्मा

लेखक शिमला से हैं


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