यूक्रेन के दर्द-बेबसी में छिपी बड़ी सीख

यूक्रेन ने गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनाया होता तथा एनपीटी पर हस्ताक्षर न किए होते तो आज वह महाशक्ति बनकर उभरा  होता…

यूक्रेन यूरोप के पूर्वी हिस्से में स्थित है तथा तीनों तरफ से रूस से घिरा हुआ है। यह रूस के बाद यूरोप का सबसे बड़ा देश है। इसमें लगभग 67 प्रतिशत यूक्रेनियन, 30 प्रतिशत रूसी व तीन प्रतिशत अन्य लोग हैं। प्रथम विश्व युद्ध में यूक्रेनियन, रूसी साम्राज्य की ओर से लड़े थे। वर्ष 1991 में सोवियत संघ (रूस) बिखरने लगा तथा यूक्रेन में भी स्वतंत्र देश की मांग बढ़ने लगी थी। वर्ष 1954 में रूस ने क्रीमिया देश को सौंप दिया था, हालांकि वर्ष 2014 में रूस ने क्रीमिया पर दोबारा कब्जा कर लिया था। जब वर्ष 1991 में सोवियत संघ का विखंडन हुआ, तब इससे अलग होकर 15 अन्य राज्य स्वतंत्र देश बन गए थे जिनमें यूक्रेन भी एक था। वास्तव में रूस के यूक्रेन पर आक्रमण करने को कुछ विशेष कारण हैं जिनका विवरण देने की कोशिश करेंगे। वर्ष 1955 में सोवियत संघ ने नाटो संघ के समानांतर सात अन्य देशों के साथ मिलकर वारसा नामक संधि की थी जिसका मुख्यालय पोलैंड (वारसा) में बनाया गया था। इसके सदस्य देश इस तरह से थे- अलबानिया, बुलगारिया, चैकोस्लोवाकिया, पूर्वी जर्मनी, पोलैंड व सोवियत संघ। यह संघ पश्चिमी जर्मनी के नाटो संघ में प्रवेश के प्रतिशोध में बनाया गया था। मगर धीरे-धीरे यह सातों देश इस संधि को तोड़कर नाटो संघ में शामिल होते चले गए तथा सोवियत संघ अकेला पड़ता चला गया। वर्ष 1991 में इससे 15 राज्य अलग होकर स्वतंत्र राज्य बन गए। इसी होड़ में नाटो संघ ने यूक्रेन को भी अपने में शामिल करने की कवायद आरंभ कर दी, मगर यह प्रयास रूस को पसंद नहीं आया तथा इसी प्रतिशोध में उसने यूक्रेन पर आक्रमण कर दिया।

 वास्तव में रूस चाहता था कि यूक्रेन इस बात को लिखित रूप में प्रमाणित करे कि वह नाटो संघ में शामिल नहीं होगा। मगर यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की को यह बात स्वीकार्य नहीं थी। परिणामस्वरूप रूस ने यूक्रेन पर निरंतर आक्रमण करना शुरू कर दिया। अब इस युद्ध को 50 दिन से भी ज्यादा हो चुके हैं, मगर रूस पीछे हटने को तैयार नहीं है। नाटो संघ के बहुत से देश विशेषतः अमरीका, ब्रिटेन व फ्रांस इत्यादि ने रूस पर कई प्रकार के आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए हैं तथा यूक्रेन को आर्थिक व सैन्य सहायता भी उपलब्ध करवा रहे हैं, मगर अपने सैनिकों को युद्ध मे शामिल होने के लिए नहीं भेज रहे क्योंकि उन्हें पता है कि ऐसा करने से विश्व युद्ध छिड़ सकता है। ये देश केवल तमाशबीन की तरह बड़े-बड़े भाषण कर रहे हैं, मगर केवल तमाशा देखने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहे। यूक्रेन की बेबसी का दूसरा पहलू कुछ इस तरह से है। वर्ष 1994 में बुडापेस्ट (हंगरी) नामक एक समझौता हुआ जिसमें अमरीका, ब्रिटेन व रूस ने यूक्रेन को यह विश्वास दिलवाया कि यदि यूक्रेन अपने देश में परमाणु शस्त्र न बनाए तथा एनपीटी (अप्रसार संधि) यानी न्यूकलियर प्रोलीफिरेशन ट्रीटी पर दस्तखत कर दे तो उसे किसी भी बाहरी देश द्वारा किए गए आक्रमण की घड़ी में हर प्रकार की सैन्य सहायता प्रदान की जाएगी। यूक्रेन ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया तथा अपने परमाणु शस्त्रों पर विराम लगा दिया। मगर रूस ने धोखाधड़ी से पहले वर्ष 2014 में क्रीमिया को अपने अधीन किया तथा अब यूके्रन को तहस-नहस कर रहा है। रूस कुछ अन्य पड़ोसी देशों जैसे कि स्वीडन, फिनलैंड जो कि नाटो के सदस्य बनने जा रहे हैं, उन पर भी अपना आक्रमण करके अपनी शक्ति का परिचय दे सकता है। यूक्रेन, जो कभी विश्व की तीसरी बड़ी परमाणु शक्ति थी, को अब अपनी गलतियों के कारण अपनी बेबसी पर आंसू बहाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।

 यहां संयुक्त राष्ट्र संघ, जिसके वर्तमान में 195 सदस्य देश हैं, की भूमिका पर चर्चा करना भी महत्त्वपूर्ण है। द्वितीय विश्व युद्ध की आगामी विभीषिका को रोकने के लिए उस समय  के अमरीकी राष्ट्रपति रुजवेल्ट ने पहल करते हुए 51 देशों को साथ लेकर एक चार्टर पर हस्ताक्षर करवाए तथा 24 अक्तूबर 1945 को यू. एन. की स्थापना की गई। इस संस्था का मुख्य कार्य अंतरराष्ट्रीय झगड़ों का शांतिपूर्ण निपटारा करना तथा सदस्य देशों के बीच परस्पर मैत्रीपूर्ण संबंधों को बढ़ावा देना व मानव के मूल अधिकारों के प्रति सम्मान में वृद्धि करना है। आज तक विभिन्न देशों में इसने 70 से अधिक सुरक्षा आपरेशन किए हैं तथा संबंधित देशों में आंतरिक शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए सदस्य देशों की सेनाओं को शांति बहाली सेना के रूप में तैनात किया है। वर्तमान में भी कई देशों जैसे कि सूडान, वारूंडी, लाइबेरिया, कांगो, इथोपिया, इरीशिया, प. सहारा, साइप्रस व गोलान इत्यादि देशों अथवा प्रांतों में शांति सेना तैनात कर रखी है। मगर विडंबना यह है कि युद्धों को रोकने या युद्ध की स्थिति में इस संस्था के चार्टर में इस बात का कोई उल्लेख नहीं है कि यह अपनी सेना को युद्ध रोकने के लिए तैनात करेगा। वास्तव में यूएन की सुरक्षा परिषद, जिसमें कुल 15 सदस्य देश होते हैं, में पांच स्थायी देश यूएस, रूस, यूके, फ्रांस व चीन ऐसे देश हैं जिनको विशेष सुविधाएं वीटो पावर के रूप में दी गई हैं। इस वीटो पावर का प्रयोग यह पांचों देश अपने-अपने स्वार्थ के रूप में करते रहते हैं तथा एक-दूसरे को लड़ाने का काम करते रहते हैं। यूक्रेन-रूस के इस युद्ध में जब रूस के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव लाया गया, तब रूस ने अपनी वीटो पावर का प्रयोग करते हुए इसे पास नहीं होने दिया।

 वैसे भी यदि देखा जाए तो यूएन में इन पांच स्थायी वीटो पावर वाले देशों में यूरोप का सबसे अधिक प्रतिनिधित्व है, जबकि यहां विश्व की कुल आबादी का मात्र 5 प्रतिशत ही निवास करता है। यह पांचों देश, विशेषतः अमरीका अपनी सैन्य व आर्थिक शक्ति के बल पर दूसरे देशों की अनदेखी करता रहता है या फिर अकारण ही छोटे-छोटे देशों में बिना वजह हस्तक्षेप करता रहता है। यूएन के सिद्धांत देखने में तो आदर्श लगते हैं, किंतु व्यवहार में ठीक नहीं उतर रहे। इसका एक अन्य उदाहरण यह भी है कि यूएन वैसे तो रंगभेद नीति का विरोधी है, किंतु जब दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में अश्वेत लोगों पर अमानवीय अत्याचार होता है तब यह इस बात को कह कर कि यह इस देश का आंतरिक मामला है, अपना पल्ला झाड़ लेता है। ऐसे और भी कई उदाहरण हैं जहां यूएन केवल मूकदर्शक का ही रोल अदा करता आया है। अफगानिस्तान में तालिबानों द्वारा किए गए अत्याचारों का उदाहरण भी हम सबके सामने है। इस तरह हम कह सकते हैं कि आज यूक्रेन नाटो के झांसे में आकर जरूर पछता रहा होगा तथा यदि उसने भारत की तरह गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनाया होता तथा एनपीटी संधि पर हस्ताक्षर न किए होते तो आज वह एक महाशक्ति बनकर विश्व में अपनी एक पहचान बना लिए होता।

राजेंद्र मोहन शर्मा

रिटायर्ड डीआईजी


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