वीरभूमि के आईने में हिमाचल प्रदेश

आज सेना की कई बटालियन उन्हीं रियासतों के नाम से जानी जाती हैं, मगर हिमाचल की किसी रियासत का नाम सेना की यूनिट से नहीं जुड़ा तथा राज्य ‘हिमाचल रेजिमेंट’ के लिए भी मोहताज रह गया। राज्य अपना 75वां स्थापना दिवस मना रहा है। इस अवसर पर क्रांतिवीरों को याद किया जाना चाहिए…

पांच हजार वर्ष पूर्व हिमाचल की सबसे प्राचीन रियासत ‘त्रिगर्त’ राज्य के कटोच वंशीय शासक ‘सुशर्म चंद’ ने अपने बंधुओं व क्षत्रिय योद्धाओं से सुसज्जित अपनी रियासत की सेना के साथ प्रतिबद्ध होकर महाभारत के युद्ध में गांडीवधारी अर्जुन को निर्भीक गर्जना से ललकार कर अपने अदम्य साहस का परिचय कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर दिया था। नंदीघोष रथ पर सवार महापराक्रमी अर्जुन के सारथी व युद्ध में पांडव पक्ष के रणनीतिकार स्वयं पीतांबरधारी ‘श्री कृष्ण’ थे। भावार्थ यह है कि पहाड़ की माटी में शूरवीरता की तहजीब की तासीर अतीत से ही मौजूद है। देवताओं व ऋषि मुनियों की तपोभूमि रहे देवभूमि हिमाचल को वीरभूमि का दर्जा भी प्राचीन काल से इतिहास ने ही दिया है। राज्य के शूरवीरों ने रियासत काल से ही मैदान-ए-जंग में शौर्य की संस्कृति का प्रतिनिधित्व किया है। 15 अप्रैल हिमाचल के लिए ऐतिहासिक दिन है। सन् 1947 में अंग्रेज साम्राज्य से आज़ादी के बाद 15 अप्रैल 1948 के दिन 30 छोटी-बड़ी पहाड़ी रियासतों के विलय के बाद हिमाचल प्रदेश ‘चीफ कमीश्नर प्रोविन्स’ के रूप में वजूद में आया था। 15 अप्रैल सन् 1786 को जम्मू-कश्मीर रियासत के सेनानायक तथा सैन्य पराक्रम में आलमी सतह पर बड़े अदब का नाम ‘जनरल जोरावर सिंह कहलूरिया’ का जन्म भी हिमाचल की इसी धरा पर हुआ था। ‘नेपोलियन ऑफ द ईस्ट’ के नाम से मशहूर जोरावर सिंह ने अफगानिस्तान, तिब्बत व बल्ख की भूमि पर जम्मू-कश्मीर रियासत की ध्वज पताका फहरा कर हिमाचली शौर्य को मुसबत किया था। ‘माऊंटेन वारफेयर’ के उस बादशाह को कश्मीर की सरहदें आज भी सजदे करती हैं। तिब्बत में तकलाकोट के ‘तोयो’ में कश्मीर के फातिम उस राजपूत जरनैल की मजार पर फूलों की कैफियत उनकी बहादुरी को बखूबी बयान करती है।

 हाल ही में भारतीय सेना की ‘जैक राइफल’ के जवानों ने जोरावर सिंह की 236वीं जयंती पर साइकिल रैली निकाल कर अजीम जरनैल को अकीदत पेश की है। रामपुर बुशहर रियासत के राजा ‘केहरी सिंह’ (1639-1696) की बहादुरी से प्रभावित होकर दिल्ली की मुगल बादशाही ने उन्हें ‘छत्रपति’ की उपाधि से सरफराज किया था। ‘नूरपुर’ रियासत के शासक ‘जगत सिंह पठानिया’ (1619-1646) ने बंगाल से लेकर अफगानिस्तान तक सफल सैन्य अभियानों को अंजाम दिया था। सन् 1645 में ‘बल्ख’ व ‘बदख्शां’ के उज्बेकों को जगत सिंह ने अपने रियासती लश्कर के साथ तलवारों से खामोश कर दिया था। बदख्शां पर फतह हासिल करके गिलगिट के रास्ते से वापस आते समय बर्फीला तूफान उनके लिए जानलेवा साबित हुआ। जनवरी 1646 को पाकिस्तान के चित्राल में जगत सिंह पठानिया वीरगति को प्राप्त हुए। नूरपुर के कवि ‘गंभीर राय’ ने बदख्शां विजय के उपरांत जगत सिंह  की बहादुरी को अपनी नज्म के जरिए बयान किया था। जगत सिंह की वफात के बाद उनके बेटे ‘राजरूप सिंह पठानिया’ (1646-1661) ने शूरवीरता की विरासत को कायम रखते हुए कंधार व ईरान के महाज तक सैन्य मिशन को अंजाम दिया। सन् 1661 में ‘गजनी’ में अफगान सेना से लड़ते हुए राजरूप ने शहादत को गले लगा लिया था। सिरमौर रियासत के नरेश ‘जगत प्रकाश’ (1773-1792) ने सन् 1785 में नाहन के समीप ‘कटासन’ के युद्ध में रोहिल खंड के मुस्लिम हुक्मरान ‘गुलाम कादिर रोहिल्ला’ पर जोरदार हमला बोलकर उसे रणभूमि में बेआबरू करके भागने पर मजबूर कर दिया था। कटासन का दुर्गा मंदिर उसी कटासन युद्ध की विजय की स्मृति में बनवाया गया है। सन् 1846 में ‘नूरपुर’ देश की पहली राजपूत रियासत थी जिसने बर्तानिया बादशाही के खिलाफ बगावत को अंजाम दिया था। फिरंगी हुकूमत के विरुद्ध सशस्त्र इंकलाब की कयादत से आजादी का चिराग जलाने वाले शूरवीर का नाम वीर शिरोमणि ‘वजीर राम सिंह पठानिया’ (1824-1849) था। राम सिंह ने तीन वर्षों तक गोरिल्ला युद्ध कला के जरिए ब्रिटिश फौज के कई सैनिकों को मार गिराया था। जनवरी 1849 में एक शदीद सैन्य संघर्ष के दौरान ‘प्रथम सिख इन्फैंट्री’ के लेफ्टिनेंट ‘जॉन पील’ को राम सिंह ने अपनी शमशीर से हलाक करके उसका जंगी जुनून उतार दिया था जो कि बर्तानिया के प्रधानमंत्री ‘राबर्ट पील’ का भतीजा था। राम सिंह को अंग्रेजों ने धोखे से कैद करके उम्रकैद की सजा देकर सिंगापुर की जेल में भेज दिया था। लेकिन गोरे हुक्मरानों के विरुद्ध सशस्त्र बगावत से नौजवानों के जहन में आज़ादी की जद्दोजहद का जज्बा पैदा करके स्वाधीनता की मशाल जलाने वाले महान योद्धा वजीर राम सिंह पठानिया को शहीद का दर्जा देने के लिए हमारी सरकारों में खामोशी की रजामंदी तथा नूरपुर का नाम ‘वीरपुर’ रखने पर संशय बरकरार है। महाभारत युद्ध से लेकर वर्तमान तक वीरभूमि का सैन्य इतिहास स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है, मगर देश के शिक्षा पाठ्यक्रम में विदेशी आक्रांताओं को ही महान् पढ़ाया गया।

 नतीजतन अपनी तलवारों से शौर्य पराक्रम के रक्तरंजित मजमून लिखने वाले शौर्य के प्रतीक हमारे वास्तविक नायक इतिहास में गुम हो गए तथा देश का मुस्तकबिल युवावर्ग राष्ट्रीय स्वाभिमान के इतिहास से अनभिज्ञ रह गया। आजादी के बाद कुछ रियासतों की सेनाएं भारतीय सेना का हिस्सा बनी थी। आज सेना की कई बटालियन उन्हीं रियासतों के नाम से जानी जाती हैं, मगर हिमाचल की किसी रियासत का नाम सेना की यूनिट से नहीं जुड़ा तथा राज्य ‘हिमाचल रेजिमेंट’ के लिए भी मोहताज रह गया। बहरहाल आजादी के परवानों की शहादत की रोशनी में देश स्वतंत्रता के 75वें ‘आजादी अमृत महोत्सव’ का जश्न मना रहा है। राज्य अपना 75वां स्थापना दिवस मना रहा है। लाजमी है इस अवसर पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले जिन सपूतों की शूरवीरता की बुनियाद पर प्रदेश की शिनाख्त वीरभूमि के रूप में हुई है, उन क्रांतिवीरों को याद किया जाए। जम्हूरियत की बहाली व अखंड भारत के निर्माण में अपने राजपाट का त्याग करने वाले देश के शासकों तथा अपनी 30 पहाड़ी रियासतों का स्वेच्छा से विलय करके हिमाचल के गठन में अहम योगदान देने वाले राजाओं का भी स्मरण होना चाहिए। भावी पीढि़यों की प्रेरणा के लिए राज्य के रणबांकुरों की जांबाजी का समृद्ध इतिहास सहेजना होगा।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं


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