कुल्लू के सुप्रसिद्ध दिवंगत साहित्यकार

By: Apr 17th, 2022 12:08 am

शेर सिंह

मो.-8447037777

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

यह संसार नश्वर है। यह शरीर नश्वर है। इसके बावजूद कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने कार्यों के लिए देहावसान के बाद भी याद किए जाते हैं। ऐसे अमर हो चुके महापुरुषों में साहित्य, कला-संगीत के क्षेत्र में हिमाचल प्रदेश के कुल्लू, बल्कि पूरे कुल्लू जिले में आकाश में ध्रुव तारे की तरह दिशा ज्ञान कराते एवं स्थिर-स्थापित, दिवंगत मगर प्रख्यात साहित्यकार, संगीतकार तथा राजनीतिज्ञ श्री लालचंद प्रार्थी ‘चांद’ कुल्लवी का नाम सहज ही हमारे जेहन और मानस पटल पर उभरता है। स्व. लालचंद प्रार्थी बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। जितनी लोकप्रियता उन्हें राजनीतिक नेता के तौर पर मिली, उससे कहीं अधिक मान-सम्मान उन्हें साहित्य एवं लोक कला के क्षेत्र में मिला। कुल्लू की सभ्यता और संस्कृति के प्रति वह बहुत आस्थावान एवं समर्पित थे। कुल्लवी संस्कृति तथा संस्कारों पर उन्हें कितना विश्वास और गर्व था, इसका एक छोटा सा उदाहरण पर्याप्त है। साहित्य और कला-संगीत के प्रति जितने समर्पित थे, राजनीति में भी कम सक्रिय नहीं थे। एक बार वह अपने समर्थकों के साथ राज्य के किसी दूसरे जिले में गए।

दूसरे जिला के नेता अथवा लोगों ने प्रार्थी जी के समर्थकों का विशाल जुलूस देखा तो वे उनकी लोकप्रियता और भव्यता को पचा नहीं पाए। उस जिला विशेष नेता के संकेत पर वहां उपस्थित लोगों ने अपने हाथों में पत्थर उठा लिए। प्रार्थी जी ने यह स्थिति देखी, तो तुरंत माइक के पास पहुंचे और उपद्रवियों को संबोधित करते हुए कहा, ‘आपका स्वागत करने का तरीका अजीब है। जब कभी आप कुल्लू आएंगे, तो हम आपका स्वागत कुल्लवी टोपी, फूलमालाएं पहनाकर और पांव छूकर करेंगे।’ प्रार्थी जी के ऐसा कहते ही उपद्रवी भीड़ शांत हो गई। लोगों को अपने व्यवहार पर शर्मिंदगी भी हुई। प्रार्थी जी में नेतृत्व का ऐसा गुण नैसर्गिक था। लालचंद प्रार्थी हिमाचल प्रदेश के राज्य मंत्रिमंडल में कला, भाषा-संस्कृति के कैबिनेट मंत्री रहे थे। प्रार्थी जी का जन्म 1916 में कुल्लू जिला के नग्गर गांव में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा (मैट्रिक) अपने ही क्षेत्र से हुई थी। मैट्रिक के पश्चात उन्होंने लाहौर से आयुर्वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त की थी। प्रार्थी जी का साहित्य के क्षेत्र में विशेषकर कुल्लवी-पहाड़ी भाषा में उल्लेखनीय योगदान है। उनकी लिखी रचनाओं में प्रमुख हैं : बजूद और आदम, खुश्क धरती की दरारों ने किया याद, हर आस्तां पे अपनी जबीने वफा न रख, निगाहें शम्स ओ कमर भी जहां पे कम ठहरे,  कौन कहता है कि हम बेसरो सामा निकले, दिल पर जब चोट लगेगी सुन लो,  क्या तर्जे तबस्सुम है कि तहरीर लगे हैं, मेरी तकदीर संवर जाती उजालों की तरह, सरे नियाज तेरे दर पे हम झुका के चले, खुशी की बात मुकद्दर से दूर है, बाबा हमारे पास तेरे प्यार के सिवाए क्या है। उनकी एक कविता की बानगी देखिए : ‘खुश्क धरती की दरारों ने किया याद अगर उनकी आशाओं का बादल हूं बरस जाऊंगा’। ‘कुलूत देश की कहानी’ पुस्तक उनकी ऐतिहासिक एवं अमूल्य कृति है। इसके अतिरिक्त उनकी कविताओं-नज्मों की पुस्तक भी पठनीय एवं लोकप्रिय है। ये पुस्तकें अब साहित्यिक दस्तावेजों के साथ-साथ ऐतिहासिक धरोहर हैं। उन्होंने लाहौर में फिल्म कारवां में अभिनय भी किया था। लेखन के साथ-साथ वे नृत्य और संगीत में भी पारंगत थे। उन्हें शास्त्रीय गीत, संगीत तथा नृत्य का बहुत अच्छा ज्ञान था। उनके बड़े बेटे चंद्रकिरण प्रार्थी भी अपने पिता के नक्शे कदमों में चलते रहे। दुर्भाग्य ने उन्हें असमय ही हमसे छीन लिया। लेकिन छोटे बेटे योगेश प्रार्थी आम लोगों की तरह खेती किसानी में व्यस्त रहते हैं। स्व. प्रार्थी जी की छह संतानों में से केवल उनकी बेटी कमला प्रार्थी ने उनकी विरासत यानी राजनीति को अपनाया। कमला प्रार्थी कांग्रेस के अग्रणी नेताओं में शामिल हैं। वे हिमाचल प्रदेश महिला कांग्रेस की अध्यक्षा सहित विभिन्न पदों पर रही हैं। वे कांगे्रस की प्रखर नेत्री के तौर पर सक्रिय रही हैं। लेकिन उन्होंने अपने पिता की तरह साहित्य लेखन और कला-संस्कृति से नाता नहीं जोड़ा। अनुराग प्रार्थी उनके पौत्र हैं। परंतु आज उनके परिवार का कोई भी सदस्य सक्रिय राजनीति में नहीं है। स्व. लालचंद प्रार्थी जी 11 दिसंबर 1982 को अपने देह अवसान के पूर्व ही लोकप्रियता के शिखर को छू चुके थे। कुल्लू, ढालपुर मैदान में साहित्य एवं कला का मंच ‘कला केंद्र’ उनकी ही देन है। इस प्रकार अपने साहित्यिक अवदानों के फलस्वरूप आज भी वे लाखों लोगों के दिलों में बसे हैं। स्व. लालचंद प्रार्थी जी के लिखे संपूर्ण साहित्य, जो अधिकतर उर्दू भाषा में हैं, को उनके निधन के पश्चात उनकी संतानों ने शिमला में हिमाचल भाषा, कला-संस्कृति विभाग को सौंप दिया है, जिस विभाग के वह कभी मंत्री थे। वे सही मायने में लोगों के प्रिय नेता और नायक थे।

-(शेष भाग अगले अंक में)

हिमाचल रचित साहित्य -10

अतिथि संपादक

डा. सुशील कुमार फुल्ल

मो.-9418080088

विमर्श के बिंदु

  1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
  2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
  3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
  4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
  5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
  6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
  7. अतीत के पन्नों में हिमाचल का उल्लेख
  8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
  9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
  10. लालटीन की छत से निर्मल वर्मा की यादें
  11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

हर जिले में हुआ साहित्य सृजन

त्रिलोक मेहरा

मो.-8219360278

-(पिछले अंक का शेष भाग)

पंकज ठाकुर ने महाभारत और श्रीमद्भगवद गीता का अनुवाद कुल्लुवी में प्रकाशित करवाकर उसे आम जन तक ले जाने का काम किया है। कृष्णा गायिका के कम्प्यूटर में सुरक्षित उनके कुल्लुवी कविताएं, गीत, लालडि़यां, भौंरूं, कहानियां, मंडी के बालो, लघु कथाएं उनके विदेश प्रवास के दौरान अज्ञात वजह से नष्ट हो गए। वह पत्रिकाओं में प्रकाशित शीर्षकों को एकत्र कर पुनः पुस्तक रूप में लाने के लिए कटिबद्ध हैं। उनके किन्नौरी, कुल्लुवी, लाहुली सभी भाषाओं में गीत दूरदर्शन और रेडियो पर प्रसारित हुए हैं। उनके गीत बेटी बचाओ, नशाबंदी, पर्यावरण, स्वतंत्रता सेनानी जैसे आम जनमानस के विषयों पर लिखे हैं।  बिलासपुरी (कहलूरी) में गंभरी देवी पहली लेखिका व गीतकार हुई। उनके लिखे गीत आकाशवाणी शिमला से प्रसारित और पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। वह अपनी आवाज और स्वर के लिए राज्य सरकार द्वारा पुरस्कृत हुई हैं। उसके पश्चात पुरुषोत्तम पंसारी और स्वतंत्रता सेनानी कन्हैया लाल तबड़ा हुए, लेकिन उनकी ओजपूर्ण कविताएं संग्रह की अपेक्षा इधर-उधर बिखरी रहीं। मास्टर हरीदास ‘चनेऊ’ का ‘झिलमिल स्मृतियां’ और ज्ञानचंद बैंस का ‘व्रीणा’ व्यक्तिगत काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। ‘लेखक संघ बिलासपुर’ का 29 कवियों का सांझा संग्रह ‘कहलूरी री कलम’ जिसमें प्रत्येक कवि की पांच कविताएं संकलित हैं, प्रकाशित हुआ है। ये कवि कर्नल जसवंत सिंह चंदेल, सुरेंद्र मिन्हास, नरैणुराम हितैसी, रवि सांख्यान, अनिल शर्मा ‘नील’, लश्करी राम, भीम सिंह नेगी, चंद्रशेखर पंत, रूप शर्मा, बद्री प्रसाद, बुद्धि सिंह चंदेल, डा. किरण ठाकुर, सरस्वती शर्मा, हेम राज, डा. लेखराम शर्मा, जावेद इकबाल व रविंद्र ठाकुर हैं। इनकी कविताओं के विषय वर्तमान व्यवस्था, कुरीतियां, प्रकृति, हास्य रस और सामाजिक हैं। महासुवी भाषा में सीआरबी ललित का 1974 में काव्य संग्रह ‘ज़ुएना रे असु’ यानी चंद्रमा के आंसू, कुल्लुवी, सिरमौरी और महासुवी क्षेत्र की भाषा में पहला संकलन था। इसकी भूमिका सिरमौर के डा. खुशीराम गौतम और कुल्लु के डा. पदमदेव कश्यप ने लिखी थी। ये पहाड़ के कठिन जीवन में हंसी-खुशी के क्षणों की कविताएं हैं। ‘सिरमौर कला संगम’ के संस्थापक आचार्य चंद्रमणी वशिष्ठ का ग़ज़ल संग्रह ‘नोदी रे पाथर’ सिरमौरी में है। ‘पहाड़ी कलाकार संघ-हाव्वन’ के संस्थापक डा. यशवंत सिंह परमार के हमराही, वैद्य सूरत सिंह के लिखे गीत रेडियो पर आज भी सुने जाते हैं। विद्यानंद सरैक, आचार्य ओम प्रकाश राही, जय प्रकाश चौहान, अर्चना शर्मा की यत्र-तत्र प्रकाशित कविताओं के स्वतंत्र कविता संग्रहों के प्रकाशन की अपेक्षा है। किनौर में केवल हिंदी में लेखन मुख्य भाषा से जुड़ाव और श्रेष्ठ होने के भाव के कारण ही हुआ है। अपनी बोलियों को देवनागरी रूप देने में कोई हिचकिचाहट रही होगी। किन्नरों का धर्म ग्रंथों में वर्णन के बावजूद किन्नर भाषा की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए थी। यहां-वहां बोलियों के लेखन का प्रचलन देख कविता लेखन शुरू हुआ तो है, लेकिन बहुत कम हुआ है। पारंपरिक गीत काव्य शैली में अवश्य लिखे गए हैं। राम भगत नेगी की अड़तालीस गीतों का संकलन ‘किन्नरी सभ्यता और साहित्य’ दिल्ली साहित्य अकादमी ने सन् 2007 प्रकाशित किया है। शर्व नेगी ने ‘किन्नर लोक गाथाएं’ में इन लोकगीतों को संकलित किया है। ये नौ लोक गीत हैं। इनकी पृष्ठभूमि और अर्थ हिंदी में हैं। केवल प्रभु नेगी और जयपाल नेगी ही किन्नौरी में रचित कविताएं सोमसी पत्रिका में प्रकाशनार्थ भेजते हैं और शीघ्र ही संग्रह लेकर प्रस्तुत करेंगे। सपना नेगी आदि महिला लेखिकाएं लोक साहित्य संकलन में निरंतर प्रयासरत हैं।

लाहौल-स्पीति की दोनों घाटियों में भोटी को देवनागरी लिपि में नहीं लाया जा सका। उच्च शिक्षित वर्ग हिंदी-अंग्रेजी में लिखता रहा। ये लोग पढ़ने के लिए घर से बाहर गए और नौकरी भी बाहर की। अपनी बोली कागज पर नहीं आ सकी। तो भी तिसलोपा ने यहां के पुराने गीतों की किताब ‘गीत अतीत’ लिखी है। लाहुली गीतों को छापने वाली चंद्रताल पत्रिका बंद हो गई है। लाल चंद दिस्सा की लाहुली कविताओं की पत्रिका सद् प्रयास बंद हो गई। दोनों कुल्लू से ही निकलती थीं। सुखदास मुलिंगपा की छंद शैली में अगमां, पालमो, गंगी, हसल, गुरैणी गीत और राम दास राही के भाई साहिब जी, पेशा योआंतई, आडू चंद्र-मुखी; रचनाएं आज भी आकाशवाणी शिमला से प्रसारित होती हैं। बैंक अधिकारी सुरिंद्र सिंह ठाकुर लाहौली मनचंदी बोली के कवि हैं। शमशेर सिंह का लाहौली संस्कृति के प्रदर्शन के लिए ‘द करेक्टर’ रंगमंच था। अब उसका नामकरण ‘किल्हाली’ है। देवी सिंह-1 और देवी सिंह-2 लोक गायक हैं। दोनों स्वयं गीत लिखते हैं और गाते भी हैं। उनके गीतों की कैसेट्स हैं। पांगी के उत्सव और मेले के गीतों को प्रभात शर्मा ने ‘मनमोहक देवधरा पांगी’ में संकलित किया है। अजय लोपा की पत्रिका ‘अश्कनी’ भी बंद हो गई। हिमाचली भाषा में लिखने का रुझान लगातार बढ़ रहा है। भाषा के वाचिक और लिखित दो स्वरूप होते हैं। लेखकों को वाचिक स्वरूप को लेखन में कुछ त्यागना चाहिए ताकि हिमाचली भाषा में निकटता के साथ ग्रह्यता अधिक आ सके। यह काम लेखक ही कर सकते हैं। प्रसन्नता की एक और बात है कि हिमाचल विश्वविद्यालय में भी स्थापित डा. यशवंत सिंह परमार पीठ, स्नातक के बाद, हिमाचली भाषा और लोकसाहित्य में डिप्लोमा करने का प्रावधान कर रही है। अब हिमाचली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में डालने के लिए दबाव बढ़ेगा।

अपनी कहानियों के भीतर संवाद करते फुल्ल

पुस्तक का नाम : मेरी चयनित कहानियां

लेखक : डा. सुशील कुमार फुल्ल

प्रकाशक : श्रीसाहित्य प्रकाशन, दिल्ली

कीमत : 450 रुपए

डा. सुशील कुमार फुल्ल अपनी वर्षों की साहित्यिक क्षमता से संजोए खजाने में से कुछ इत्र बिखरते हुए, अपनी ही कहानियों से साक्षात्कार करते हैं। अपनी ही कहानियों से उनका संवाद ‘मेरी चयनित कहानियां’ का एक संग्रह बनाता है, जिसमें कई रंग, मानवीय एहसास, सामाजिक फंदे, करुणा बोध, हकीकत की धूप में बनती-बिगड़ती परछाइयां और मानवीय गुणों की तमाम आकृतियों के बीच का संघर्ष दिखाई देता है। वह अपनी कहानियों के भीतर संबोधित करते हैं, ‘लेकिन व्यक्ति की अतल गहराइयों में क्या छिपा है, कौन जाने। कितनी परतें होती हैं अंतरमन की (86)’, ‘फिर मंच पर आया एक बहरूपिया…नेता के रूप में लच्छेदार संवाद बोलता है…जिसका भाव है…कि नेता तो जनता के सेवक हैं, रक्षक एवं भक्षक हैं (95)’, ‘गांव भी मर जाते हैं। कुछ परंपराएं होती हैं, कुछ खास जीव होते हैं, जिनके भाग्य में गांव जीवित रहता है…बाकी तो सब लल्ली-छल्ली होते हैं (109)’, ‘मां को आश्चर्य हुआ। धर्मू ने आज चरण स्पर्श नहीं किया। चरण स्पर्श ही नहीं किया तो मां के मुंह में आए आशीर्वाद के शब्द मौन ही रह गए (133)।’ कुल 19 कहानियों में वह अपने चयन की बुनियाद के समीक्षक हैं और इसे बेतकल्लुफ जाहिर करते हुए टिप्पणी भी करते हैं। डा. सुशील कुमार अपने ही आलोच्य पक्ष को शांत करती भूमिका को भी कहानी सरीखी और यथार्थ को तसदीक करते आत्ममंथन के उपहार जैसा बना देते हैं।

मेमना अपने आप के प्रतीक में गद्दी समुदाय की पीढि़यों के ललाट पर चंद बूंदें एहसास की जोड़ देती है। यह आज से कुछ दशक पूर्व लौटती जिंदगी का मुआयना है, जहां विषमताओं के मुहासे उस घोर परंपरा से लड़ रहे हैं, जो पहाड़ पर चढ़ती-उतरती मानवीय फिरौती भी है। प्रकृति अपने सौंदर्य से आलोकित उद्गार को जब बांटती है, तो ‘मेमना’ बनी कहानी अपने जीवन की बुनियाद पर प्रेम को ढोती हुई, गद्दी-गुज्जर समाज के बीच जीवन की समानताओं को जोड़ना चाहती है, अंत तक। फुलमां और छन्नू के बीच न्यूगल खड्ड का पानी जब सलीके से बहना चाहता है, तो परंपराओं के पत्थर प्रीत की सांसों को घायल करने पर उतारू हो जाते हैं। देउता ः पर्वतीय जीवन के हाड़ मांस पर लिखी इबारत सरीखी कहानी है जो यह तय नहीं कर पा रही है कि इनसानी फितरत में कोई बदलाव आएगा। चिकित्सा सेवाओं के दर्पण तोड़ती हुई और मानवीय वेदना के झरोखों से देखते हुए लेखकीय भावों की बानगी, ‘आंख की नस सूख गई है।’ ‘नस भी सूख जाती है?’ मेथरी डर गया। उसने आंखें बंद करके देखने का प्रयास किया…अंधकार का सागर कितना भयावह होता है, उसने साक्षात महसूस किया।’ दंडकीला : अपने शब्दार्थ में कहानी का शीर्षक इतना नुकीला और हठीला है कि मनुष्य में ‘लक्कड़’ या ‘बींडा’ होने की तमाम संज्ञाओं का मिश्रित आकार ले लेता है। बच्चों के आसपास घूमती अभिभावकों की दुनिया और उनके द्वंद्व के बीच ‘पलना’ और ‘पालना’ अजीब कसौटियां खड़ी कर देता है और अंत में अंतर्नाद की पीड़ा भी गुम हो जाती है।

यह कहानी निजी महत्त्वाकांक्षा के घरौंदे को इतना सशक्त कर देती है कि ‘विभूति’ निपट अकेला अपने जीवन को गढ़ते-गढ़ते भरता रहा, मरता रहा, उम्र भर। होरी की वापसी ः ग्रामीण आर्थिकी का बोझ ढोती कहानी, विपरीत धाराओं के बीच पुनर्वास का मंतव्य खोजती है, तो कभी स्वरोजगार के कांटों से घायल हो जाती है। हर किसान एक ही चक्र में घूम रहा है और उसके चारों ओर व्यवस्था की चील-कौए मंडरा रहे हैं- सरकारी नीति के आगे विनति करता होरी बार-बार लौटता रहेगा। मीच्छव ः बहुपति प्रथा के रिश्तों में पलती पुश्तें और मार्मिक संबंधों की देखरेख करतीं कठोर परंपराएं तथा समझौते। देह की गठरियां सदियों से ढोई जा रही हैं। एक पत्नी के चार-छह पति हों, तो उसके आत्मीय सुख, विमर्श, सहमतियां और जीवन की अनुभूतियों में कितनी तृष्णा-कितनी वितृष्णा होगी। मीच्छव एक लाश की मानिंद उस सजी हुई औरत से पूछ रही है कि वह कब इनसान मानी जाएगी। फुल्ल की कहानियां अपने भीतर चुभे हुए प्रश्नों को एक-एक करके चुनती हैं। सारी उम्र के रिश्तों के सौदे में जिंदगी कैसे फनां होती और चारों ओर घेरे बढ़ते हैं, इसी के ‘मुक्तिद्वार’ पर पीढि़यों के संघर्ष में घर हमेशा अतीत के पंजों में वर्तमान की चूलों के साथ हिलता है। संस्कृति के बहाने और बच्चों पर नकेल कसते मां-बाप का चरित्र भी एक तरह के सांप-सीढ़ी का खेल है। खुद जब बच्चे रहे तो सीढि़यां चढ़ते गए, लेकिन अपने बच्चों के लिए कुंडली मार कर बैठ जाते हैं। मुंडू का भावनात्मक पक्ष इसके संबोधन में है और इसके अर्थों में मुंडू बनाने की प्रक्रिया का संताप भी।

हुक्के की चिलम को आज भी कोई न कोई ‘भोलू’ हवा दे रहा है- अपनी सांसें दे रहा है, ‘सर, मुंडू का अर्थ परंपरा से चली आ रही बेगार…अरदली होना….इसका सही अर्थ तो मैं नहीं समझा सकता…लेकिन…’। रिकवरी एजेंट : मीडिया के लिए दर्पण खड़ी करती कहानी एनपीएस जैसे मुद्दे तक पहुंच जाती है, ‘जब से वह एक स्थानीय पत्र का संपादक बना है, उसमें औरंगजेब घुस गया है।’ पत्रकार को रिकवरी एजंेट के समकक्ष रखती कहानी के अपने तर्क हैं और इन्हें झुठलाया नहीं जा सकता। लेखक कोरोना के डंक महसूस करते हुए, तृप्ति जैसी कहानी को जन्म देता है, तो अटकाव के भीतर मन के कई घरौंदे खड़े कर देता है। दंपति जीवन की लाठी बनकर औरत ही क्यों बार-बार टूटती है, इन्हीं प्रश्नों के किसी कोने से टुच्चे लोग जन्म लेती है। जीवन की पलकें जो देखना चाहती हैं, उनके भीतर सपने अपनी ही हकीकत के आगे थके हारे और फिर मिट्टी हो गए जज्बात कब्र खोदते हैं, तो आह भी नहीं निकलती। फुल्ल खुद ही अपनी कहानियों के रसिक हैं, इसलिए उनके लघु चित्र भी इनके कैनवास को बड़ा कर देते हैं। फंदा कहानी अपनी रचनात्मकता के कारण विशिष्ट हो जाती है। परंपराओं का फंदा और कहीं मूंछ का फंदा और भी घातक परिवेश जुटा लेता है।

सम्मान की नागफनी से निकलते समाज के नागनाथ और सांपनाथ केवल एक फंदा ही दे सकते हैं और जहां जाति और वर्ग भेद की चिता पर कोई नाता धू-धू जलता है। आधुनिक जीवन की विसंगतियों में मेहमाननवाजी को लगा ग्रहण अब सोच पर इस तरह छा गया है कि रिश्तों की गांठें, लल्ली-छल्ली बनकर, एक निकटतम एहसास की कील सरीखी चुभती हैं। डा. सुशील कुमार अपने आलोच्य पक्ष से कहानी चुनते हैं और राष्ट्रीय नीतियों के मकड़जाल में गरीब के हिस्से की धूप की चोरी को पकड़ते हुए ‘जूठन, दसौंध और मुक्ति’ जैसी रचना कर देते हैं। इसी तरह परिवेश के भीतर से कण और क्षण समेटना डा. फुल्ल का कलात्मक पक्ष है। जीवन की रचना से अपने अर्थबोध को वह ‘अधर में अटके लोग’ तक ले आते हैं, जहां औरत की असीमित क्षमता और साधना के बरअक्स औरत की कचहरी में औरत का ही निर्दोष साबित होना कठिन हो जाता है। मां के भाव और मां के आंचल में पैदा हुई यह कहानी सामाजिक अपेक्षाओं की घनिष्टता में पूछती है, क्या मां का आंचल उत्पीडि़त कर सकता है या अपने ही बच्चों के आगे मां की झुर्रियां हर दर्द की पनाहगाह बन सकती हैं।

पालतू कहानी में लेखक कटाक्ष की संभावना को बार-बार पूरा करता है। आदमी का पालतू होना उसकी निजी च्वाइस कैसे बन रहा है और मौजूदा दौर के कितने पहलू इसके भीतर पर्दानशीं हैं, यह बताते हुए कहानी ‘बिट्टू’ जैसे लोगों को प्रजाति मान लेती है। इसी तरह व्यवस्था के अंधे दरवाजों की सांकल खोलते ‘फिरौती’, सच की परतों से जिरह करती है और उन अरमानों का स्पर्श भी करती है, जो युवा महत्त्वाकांक्षा में अक्सर निराशावाद भर देते हैं। कुल मिलाकर डा. फुल्ल समाज की भीतरी परछाइयों और लघु छवियों से बड़े चित्र खोजते हैं और कहानी को किस्सागोई तक पहुंचा देते हैं। वह संवेदना पर अंगुली रखते हुए, अवसाद के घूंट और खूंटे पर विवेचना करते हैं। -निर्मल असो


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