भुगतान संतुलन का सुप्रबंध हो

ध्यान हो कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को ‘जटिल नीतिगत दुविधाओं’ का सामना करना पड़ सकता है, जो नीतियों का जटिल मकड़जाल खड़ा कर सकती हंै। एक साफ दुविधा यह है कि अगर विदेशी मोर्चा दबाव में आता है और अनिवार्य आयातों में कमी करने की जरूरत आन पड़ती है तो भी ऐसा करने की एक सीमा है, क्योंकि गरीब और कमजोर आबादी का ख्याल रखना जरूरी है। श्रीलंका, पेरू, नेपाल, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि में हम यह देख रहे हैं…

आठ अप्रैल 2022 को समाप्त हुए सप्ताह के दौरान भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 2.471 बिलियन डॉलर की कमी के साथ 604.004 अरब डॉलर पर पहुंच गया है। विश्व में सर्वाधिक विदेशी मुद्रा भंडार वाले देशों की सूची में भारत चौथे स्थान पर है। इस सूची में चीन पहले स्थान पर है। गौरतलब है कि पिछले कुछ समय से भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। यह ऐसा पांचवां महीना है जिसमें गिरावट दर्ज की गई है। याद रहे विदेशी मुद्रा भंडार का प्रयोग विदेशी भुगतान के लिए किया जाता है। इसकी कमी से देश अनेक आर्थिक मुश्किलों का सामना करते हंै। यह हमारी भुगतान को लेकर पैदा हो सकने वाली चिंता है। एक देश का विदेशी मुद्रा भंडार न केवल वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात से संचित होता है, बल्कि विदेशी निवेश, वाणिज्यिक उधारियां या विदेशी सहायता के रास्ते पूंजी प्रवाह से भी प्राप्त होता है। इसी वजह से कई वर्षों से चालू खाता घाटा होने के बावजूद भारत के पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार बना हुआ है क्योंकि अधिकांश वर्षों में भारत में शुद्ध पूंजी प्रवाह, चालू खाता घाटे से ज़्यादा रहा है। यही पूंजी प्रवाह का अधिशेष विदेशी मुद्रा भंडार के निर्माण में सहायक होता है।

 यूक्रेन युद्ध के वास्तविक प्रभाव सामने आने से पहले ही पांच महीने में इसमें 35 अरब डॉलर की गिरावट आई थी। भारत का विदेशी क्षेत्र फिलहाल स्थिर नजर आ सकता है, लेकिन यह मानकर नहीं बैठ जाना चाहिए कि यह संकटों से अछूता रहेगा। कोरोना महामारी के बाद वैश्विक उत्पादन के धीरे-धीरे सामान्य होने की कोशिशों को बढ़ रही खाद्य और ऊर्जा मुद्रास्फीति का तगड़ा झटका लगा है। खाद्य और ऊर्जा मुद्रास्फीति को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की प्रमुख ने विश्व अर्थव्यवस्था के लिए स्पष्ट और साक्षात खतरा करार दिया है। यूक्रेन संघर्ष से हुए नुकसान का पूरा आकलन किया जाना अभी बाकी है। सच यह है कि भारत समेत ज्यादातर अर्थव्यवस्थाएं संघर्ष के समाधान से ऊर्जा और खाद्य कीमतों में नरमी आने की उम्मीद के आसरे बैठी हैं। सरकारों में ईंधन की बढ़ी हुई कीमतों का पूरा बोझ उपभोक्ताओं पर लादने को स्थगित करने की प्रवृत्ति होती है। यह एक प्रेशर कुकर को पूरी आंच पर ज्यादा समय तक रखे रहने जैसा है। दक्षिण एशिया और लेटिन अमेरिका की छोटी अर्थव्यवस्थाएं पहले ही विदेशी मुद्रा संकट के मुहाने पर पहुंच चुकी हैं, क्योंकि इनमें से ज्यादातर ऊर्जा और खाद्य की शुद्ध आयातक हैं।

 पहली बात, कई अर्थशास्त्री वर्तमान वित्त वर्ष में भुगतान संतुलन के नकारात्मक रहने का अनुमान लगा रहे हैं। हाल के वर्षों में भारत का चालू खाते का घाटा 1-1.5 फीसदी के आसपास (मोटे तौर पर 40 अरब अमेरिकी डॉलर) रहा है, जिसकी पर्याप्त से अधिक भरपाई कहीं ज्यादा विदेशी पूंजी प्रवाह से हो गई। दमदार प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और स्टॉक मार्केट में सकारात्मक विदेशी संस्थागत निवेशकों के पोर्टफोलियो निवेश का इसमें हाथ रहा। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ता चला गया। लेकिन इस वित्तीय वर्ष में समीकरण बदल गया है। विदेशी निवेशक अमेरिकी ट्रेजरी बॉन्डों में सुरक्षित शरणस्थली तलाश रहे हैं। अमेरिकी फेडरल रिजर्व अैर ओईसीडी देशों के अन्य केंद्रीय बैंकों द्वारा अपनी आसान पूंजी की नीति को धीरे-धीरे वापस लेने से स्थिति और गंभीर हो गई है। याद कीजिए, लगभग शून्य ब्याज दरों पर यह आसान पूंजी 2020-21 में भारत के टेक (तकनीक) और ग्रीन एनर्जी (हरित ऊर्जा) क्षेत्र की ओर बड़े पैमाने पर मुखातिब थी, जो विदेशी मुद्रा भंडार में बड़ी वृद्धि कर रहा था। इन सुहाने दिनों का अंत हो गया है। अगर मौजूदा रुझानों के हिसाब से देखें, तो 2022-23 में पूंजी के आगमन में तेज गिरावट आएगी और व्यापार घाटा लगभग दोगुना हो जाएगा। ऊंची ऊर्जा और वस्तु (कमोडिटी) कीमतों के कारण भारत का आयात निर्यात की तुलना में ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है, जिससे व्यापार घाटा बढ़ रहा है। मार्च में इसने 18.5 अरब अमेरिकी डॉलर के शीर्ष को छू लिया। वार्षिक तौर पर इसके 210 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच जाने की संभावना है। अगर विदेश में रह रहे भारतीयों द्वारा हर साल लगभग 90 अरब डॉलर के रेमिटेंस को आकलन में शामिल करते हुए कहा जाए, तो चालू खाते का घाटा 120 अरब डॉलर के अभूतपूर्व शिखर तक या जीडीपी के 3.5-4 प्रतिशत तक पहुंच सकता है।

 भुगतान संतुलन के बने रहने के लिए भारत को इस पैमाने के पूंजी निवेश की दरकार होगी। ऐसी स्थिति में जब ज्यादातर बड़े केंद्रीय बैंक आसान पूंजी को वापस ले रहे हैं, क्या अगले दस महीनों में ऐसा हो पाना मुमकिन है? ज्यादातर अर्थशास्त्रियों का आकलन है कि भुगतान संतुलन नकारात्मक रहेगा। उदाहरण के लिए अगर अपने चालू खाते के घाटे को पाटने के लिए भारत को 120 अरब डॉलर की जरूरत होती है, लेकिन शुद्ध पूंजी निवेश के तौर पर इसे सिर्फ 50 अरब डॉलर की ही प्राप्ति होती है, तो बचे हुए 70 अरब डॉलर के भुगतान के लिए आरबीआई के खजाने से पैसे लेने के अलावा और कोई चारा नहीं होगा। ऐसा निश्चित लगता है कि अगले 11 महीनों में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार और नीचे आएगा। समस्या यह है कि ऐसा नकारात्मक माहौल बनने से पूंजी का पलायन और भी तेज हो सकता है। मिसाल के लिए, भुगतान संतुलन के घाटे को पूरा करने के बाद भी आरबीआई के पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार हो सकता है, लेकिन इसके बावजूद मुद्रा कमजोर हो सकती है और इसे समर्थन देने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार में हाथ डालना पड़ सकता है। इन हालात में विश्वास दरक सकता है और जोखिम के दूसरे कारक खतरनाक नजर आने लग सकते हैं। मिसाल के लिए रेसिडुअल मैच्योरिटी आधार पर भारत का लघु आवधिक विदेशी कर्ज (जिनमें अगले 12 महीने में देय होने वाली दीर्घावधिक कर्ज और एक साल से कम समय में देय छोटे मियाद वाले कर्ज की देनदारियां शामिल हैं) जून 2021 के अंत में भारत के विदेशी मुद्रा भंडार का 41.8 फीसदी था।

 यानी जून 2022 तक 250 अरब डॉलर के छोटे मियाद वाले कर्ज का भुगतान किया जाना है। इस बात की संभावना है कि जून 2022 तक देय होने वाले कुछ लघु कर्ज, अगर उन्हें आगे बढ़ाया जाना संभव न हुआ, का भुगतान विदेशी मुद्रा भंडार से किया जाएगा। सामान्य तौर पर इस तरह के कई कर्जों को आगे बढ़ा दिया जाता है, लेकिन यूक्रेन संकट के बाद हालात को सामान्य कतई नहीं कहा जा सकता है। यह नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है। ध्यान हो कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को ‘जटिल नीतिगत दुविधाओं’ का सामना करना पड़ सकता है, जो नीतियों का जटिल मकड़जाल खड़ा कर सकती हैं। एक साफ दुविधा यह है कि अगर विदेशी मोर्चा दबाव में आता है और अनिवार्य आयातों में कमी करने की जरूरत आन पड़ती है तो भी ऐसा करने की एक सीमा है, क्योंकि गरीब और कमजोर आबादी का ख्याल रखना जरूरी है। श्रीलंका, पेरू, नेपाल, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि में हम यह देख रहे हैं। कोई भी देश, खासकर जो मध्य आय वाले वर्ग में हैं, वे इससे पूरी तरह से सुरक्षित नहीं हैं। भारत की बुनियाद बेहतर नजर आती है, लेकिन भुगतान संतुलन की स्थिति पर नजर रखना जरूरी है। पड़ोसी देशों के आर्थिक संकट को ध्यान में रखते हुए हमें भुगतान संकट के प्रबंध के लिए मुस्तैद रहना होगा।

डा. वरिंदर भाटिया

कालेज प्रिंसीपल

ईमेल : hellobhatiaji@gmail.com


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