नेहरू नहीं, अब प्रधानमंत्री संग्रहालय

अब बचा था एक अंतिम प्रश्न, इंडिया गेट की कानोपी का क्या किया जाए? कांग्रेस की सरकार को इस बात का धन्यवाद देना होगा कि कम से कम उसने उसे वहां से हटा दिया था। यदि न भी हटाती और उसे भारत का ही महान सम्राट घोषित कर राजपथ का नामकरण उसके नाम पर जार्ज पंचम कर देती, तब भी कोई सरकार का क्या बिगाड़ लेता? आखिर इसी सरकार ने दिल्ली में दशगुरू परंपरा के नवम गुरू तेग बहादुर जी को शहीद करने वाले औरंगजेब को परोक्ष रूप से भारत का महान सम्राट घोषित करके उसके नाम पर दिल्ली की सड़क का नाम औरंगजेब रोड कर ही दिया था। तब भी उसका किसी ने क्या कर लिया? इतने पर ही बस नहीं, उसको भारत का महान सम्राट बनाने के लिए ही राज्यपाल बीडी पाण्डेय ने एक मोटी किताब लिख दी और उसको दिल्ली सरकार ने ही प्रकाशित किया…

अंग्रेजों ने जब कलिकाता से राजधानी हटाने का निर्णय किया तो उन्होंने दिल्ली को नई राजधानी के लिए चुना। उसका एक कारण शायद यह भी था कि दिल्ली शताब्दियों से हिंदुस्तान की सत्ता का प्रतीक रही है। अब तक अंग्रेज़ों ने हिंदुस्तान के बड़े भूभाग पर कब्जा कर लिया था, इसलिए दिल्ली पर यूनियन जैक फहराना जरूरी था। लेकिन अंग्रेजी हुकूमत के सबसे बड़े प्रतीक वायसराय के रहने के लिए किस स्थान का चयन किया जाए, यह प्रमुख प्रश्न था। वायसराय लाल किला में रह सकते थे, जहां पहले मुगल बादशाह रहते आए थे। उससे भी पहले का पांडवों का किला तो रहने के काबिल बचा ही नहीं था। वह कभी भारतीयों की अपनी सत्ता का प्रतीक था। लेकिन अंग्रेजों ने अपने राज्य के लिए अपने नए प्रतीक गढ़ने का निर्णय किया, इसलिए रायसिना की पहाडि़यों पर कई एकड़ में विशाल वायसराय भवन बनाया। उसके ठीक सामने इंडिया गेट बनाया जिस पर इंग्लैंड के राजा जार्ज पंचम का बुत लगाया। भवन के दक्षिण में एक और विशाल भवन बनाया जो तीन मूर्ति के नाम से जाना जाता था। लेकिन जब ब्रिटिश सत्ता को हिंदुस्तान से जाना पड़ा तो नए हुक्मरानों के सामने प्रश्न उत्पन्न हुआ कि विशाल वायसराय भवन का क्या किया जाए। यह भवन भारत में विदेशी गोरी सत्ता का प्रतीक था। महात्मा गांधी के विचार तो अलग थे, लेकिन निर्णय यही हुआ कि वायसराय भवन में देश के राष्ट्रपति रहेंगे, इसलिए वह राष्ट्रपति निवास हो गया। तीन मूर्ति भवन में देश के प्रधानमंत्री रहेंगे, इस प्रकार वह अघोषित रूप से प्रधानमंत्री निवास हो गया। पंडित जवाहर लाल नेहरू वहां आ गए। रहा प्रश्न इंडिया गेट की कानोपी में सिर तान कर खड़े इंग्लैंड के बादशाह, पत्थर के बने, जार्ज पंचम का, उसको कुछ साल बाद वहां से हटा दिया गया। यह विवाद चलता रहा कि अब वहां किसको बिठाया जाए? विवाद सुलझ नहीं सका, इसलिए कानोपी वर्षों वर्ष खाली रही। लेकिन तीन मूर्ति भवन का मामला कुछ निराला व लीक से हट कर रहा। पंडित नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री बने। लेकिन नेहरू परिवार ने तीन मूर्ति भवन खाली नहीं किया। शायद विनम्रतावश शास्त्री की सरकार ने उन्हें ऐसा करने के लिए कहा भी नहीं। लेकिन नेहरू परिवार को स्वयं ही यह कार्य करना चाहिए था, जो उसने नहीं किया। लेकिन दुर्भाग्य से शास्त्री जी ज्यादा देर रह नहीं सके और उनकी ताशकंद में रहस्यमयी मृत्यु हो गई। कुछ दिन कार्यवाहक प्रधानमंत्री गुलजारी लाल नंदा रहे और उसके बाद नेहरू जी की सुपुत्री ही प्रधानमंत्री बन गईं। प्रधानमंत्री निवास में उन्हें ही रहना था। इसमें कुछ अनुचित नहीं था। लेकिन इंदिरा जी ने अब आश्चर्यजनक रूप से वह भवन खाली कर दिया और प्रधानमंत्री के तौर पर अपने लिए एक अलग भवन आवंटित करवाया। विशाल तीन मूर्ति भवन को किसी को भी आवंटित न कर उसे नेहरू म्यूजि़यम बना दिया गया। तब भी देशवासियों ने समझा कि अब इसमें हर प्रधानमंत्री से संबंधित घटनाओं व अन्य स्मरणीय वस्तुओं को रखा व संग्रहीत किया जाएगा, इस प्रकार देश के प्रधानमंत्रियों से संबंधित ऐतिहासिक धरोहर बन जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

 हर प्रधानमंत्री का आवास स्थान बदलता रहा और रही बात प्रधानमंत्री संग्रहालय की, नेहरू के बाद किसी भी प्रधानमंत्री के इतिहास को नेहरू म्यूजि़यम में घुसने नहीं दिया। नेहरू से लेकर अब तक देश के चौदह प्रधानमंत्री हुए हैं। यदि नेताजी सुभाष चंद्र बोस को भी इसमें शामिल कर लिया जाए तो यह संख्या पंद्रह बनती है। वे चाहे कुछ दिनों के लिए ही द्वितीय विश्व युद्ध की छाया में भारत के प्रधानमंत्री बने थे। इनमें से पीवी नरसिम्हा राव का तो दुर्भाग्य रहा कि उस समय की कांग्रेस सरकार ने उनके संस्मरणों को नेहरू म्यूजि़यम में स्थान देने की बात तो दूर, उनका दाह संस्कार तक दिल्ली में करने नहीं दिया। उनके रिश्तेदारों को उनके शरीर को तेलंगाना के हैदराबाद में संस्कार के लिए ले जाना पड़ा। अब भारत सरकार ने इतने लंबे अरसे बाद यह निर्णय किया है कि तीन मूर्ति भवन में अब तक के भारत के सभी प्रधानमंत्रियों से संबंधित संग्रहालय विकसित किया जाएगा। नरेंद्र मोदी जी ने कल 13 अप्रैल को भीमराव रामजी अंबेडकर की जयंती और बैसाखी के शुभ अवसर पर इस नेहरू संग्रहालय को उचित विस्तार देते हुए प्रधानमंत्री संग्रहालय का उद्घाटन किया। इस विशाल भवन में इस संग्रहालय में विगत प्रधानमंत्रियों से संबंधित इतिहास के अतिरिक्त पहले से ही विद्यमान विशाल पुस्तकालय भी होगा। आशा की जानी चाहिए कि इसमें विगत प्रधानमंत्रियों से संबंधित साहित्य भी प्रचुर संख्या में उपलब्ध होगा। इस नए स्वरूप में अब इस प्रकल्प का नाम भी नेहरू संग्रहालय न रहकर प्रधानमंत्री संग्रहालय हो गया है। जब तक यह संग्रहालय नेहरू जी के इतिहास व जीवन तक ही सीमित था, तब तक इसका नाम नेहरू संग्रहालय तार्किक था, लेकिन अब जब उसकी अवधारणा व स्वरूप का विस्तार हो गया है, तब उसके नाम का विस्तार भी उचित और अर्थानुकूल ही कहा जाएगा।

 और अब बचा था एक अंतिम प्रश्न, इंडिया गेट की कानोपी का क्या किया जाए? कांग्रेस की सरकार को इस बात का धन्यवाद देना होगा कि कम से कम उसने उसे वहां से हटा दिया था। यदि न भी हटाती और उसे भारत का ही महान सम्राट घोषित कर राजपथ का नामकरण  उसके नाम पर जार्ज पंचम कर देती, तब भी कोई सरकार का क्या बिगाड़ लेता? आखिर इसी सरकार ने दिल्ली में दशगुरू परंपरा के नवम गुरू तेग बहादुर जी को शहीद करने वाले औरंगजेब को परोक्ष रूप से भारत का महान सम्राट घोषित करके उसके नाम पर दिल्ली की सड़क का नाम औरंगजेब रोड कर ही दिया था। तब भी उसका किसी ने क्या कर लिया? इतने पर ही बस नहीं, उसको भारत का महान सम्राट बनाने के लिए ही ओडीशा में कांग्रेस सरकार की ओर से नियुक्त राज्यपाल बीडी पाण्डेय ने एक मोटी किताब लिख दी और उसको दिल्ली सरकार ने ही प्रकाशित किया। तब भी उसका किसी ने क्या बिगाड़ लिया? इसलिए कांग्रेस सरकार का धन्यवाद करना चाहिए कि उसने इंडिया गेट से जार्ज पंचम को हटा दिया, लेकिन वह किसी को वहां बिठाने के लिए तैयार नहीं हुई। पूरे स्वतंत्रता संग्राम से कोई मिला नहीं होगा। नेता जी सुभाष चंद्र बोस को सरकार वहां बिठाना नहीं चाहती होगी, क्योंकि उससे कम्युनिस्ट नाराज हो जाते। कुछ मास पहले नरेंद्र मोदी जी ने उस खाली पड़ी कानोपी पर नेताजी को प्रतिष्ठित करके इतिहास के रिक्त स्थान को पूरा कर दिया था। अब प्रधानमंत्री संग्रहालय की स्थापना करके उन प्रधानमंत्रियों के योगदान को भी संभाल लिया है जिनको ‘दो गज ज़मीं भी न मिली कूचा-ए-यार में’। मेरा अभिप्राय एक बार फिर पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव से ही है।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


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