राम, रामचरितमानस और लोक मर्यादा

रामचरितमानस में इन चरित्रों के माध्यम से संपूर्ण प्रश्नों के उत्तर प्राप्त हो जाते हैं…

तुलसीदास प्रकृत्या एक क्रांतदर्शी कवि थे, इस युग दृष्टा ने कालजयी रचना ‘‘रामचरितमानस’’ में अपनी लोक व्यापिनी बुद्धि से व्यापक सहृदयता के साथ काव्य के सभी रसों के सूक्ष्मतम स्वरूपांे को उकेरा है। रामचरितमानस अब तक या यूं कहें कि कि ‘‘न भूतो-न भ्विष्यति’’ की सबसे लोकप्रिय, हृदयग्राही, सुबोध व सुगम्य कृति है, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। लोगों को आज भी यही मिसाल देते सुना जाता है – कि पुत्र हो तो राम सा। रावण, कैकेयी, मन्थरा, ताडि़का –  पहले भी थे और आज भी हैं। इन नकारात्मक शक्तियों के दमन के लिए ही समय-समय पर राम रूपी आदर्श व लोक मर्यादित चरित्र को समाज के बीच स्थापित करने की आवश्यकता रहती है। परंतु इस रचना के पीछे ‘राम’ के मर्यादा पुरुषोत्तम वाले रूप को केन्द्र में रख मानव मात्र को यह संदेश देने का एक सफल प्रयास था कि – ‘‘जहां सुमति तहां संपति नाना, जहां कुमति तहां विपत्ति निदाना’’। देव, मानव, वानर व राक्षस जाति के उत्थान-पतन को चित्रित करती हुई यह कृति इसी भाव को उद्धृत करती है, सर्वोच्च मर्यादाओं की स्थापना का प्रयास करती है। जहां पिता के वचन के पालन हेतु पुत्र राजपाठ छोड़ वन गमन सहर्ष स्वीकार करता है, अपने भ्रातृ धर्म को निभाने लक्ष्मण अपनी पत्नी को घर में रख भाई के साथ वन जाते हैं, सीता अपने पति धर्म को निभाने राज ऐश्वर्य छोड़ वनों के कांटे स्वीकार करती है, भरत राज-काज राम की चरण पादुकाओं के आदेश पर चलाते हैं। विषम परिस्थितियों में भी राम हनुमान के लिए आदर्श स्वामी, प्रजा के लिए नीति-कुशल व न्यायप्रिय राजा तथा सुग्रीव व केवट के आदर्श मित्र रहे। आज हमारे टूटते संयुक्त परिवारांे, भाई जहां भाई का दुश्मन बन गया है, पारिवारिक कलहों से बचने के लिए हम इस कृति से पे्ररणा ले सकते हैं। राम केवल भारतवासियों या हिंदुओं के मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं, बल्कि मानवता के हैं।

तुलसी की ‘रामचरितमानस’ का प्रेरणा स्त्रोत वाल्मीकि रचित ‘रामायण’ थी, जिसका आरंभ ही एक शाप से होता है। जिस रचना का उद्देश्य मर्यादा व आदर्शों के प्रतीक राम का चरित्र प्रस्तुत करना हो, उसका ऐसा आरंभ अनायास नहीं। मर्यादा को खंडित करने वाला सर्वदा दंड का अधिकारी होता है। रामचरितमानस के विविध प्रसंग मर्यादा भंग के कुपरिणाम और उनकी पुनर्प्रतिष्ठा का प्रयत्न है, यह घोषित करने का एक सुअवसर है कि वे ही लोग, जातियां, समाज, देश व राष्ट्र पल्लवित व पुष्पित हुए हैं, जहां ‘सुमति’ यानी सद्भाव/ सकारात्मक सोच रही है। सती का शिव को प्रजापति दक्ष के यज्ञ में जाने का अनावश्यक आग्रह, मंथरा का षड्यंत्र, बाली-सुग्रीव वैमनस्य, शूर्पणखा का कामवश राम-लक्ष्मण से प्रणय निवेदन, रावण का परनारी हरण आदि ऐसे संदर्भ हैं, जो इस अकाट्य सत्य को उद्घाटित करते हैं कि मर्यादाओं का जब-जब हनन हुआ है, पूरे समाज व जाति को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। शायद यही नियति है कि सदा ही सत्य और असत्य, अच्छाई व बुराई तथा धर्म और अधर्म का निरंतर टकराव रहता है, यही टकराव मनुष्य के समक्ष आज भी है, केवल उसका रूप बदला है। इस मानव मात्र के सर्वोत्तम आदर्श हैं – राम! यह आम आदमी को बताया तुलसी की रामचरितमानस ने। जीवन का ऐसा कौन सा क्षेत्र है, जहां रामचरितमानस में वर्णित आदर्शों की आवश्यकता न पड़ती हो। एक सुसंस्कृत, सुशिक्षित व समृद्ध समाज की परिकल्पना है, ‘रामराज्य’, जिसके केन्द्र बिंदु हैं, ‘राम’! इसके मुरीद पूज्य बापू (महात्मा गांधी) भी थे, जो अपने जीवन काल में भारत में राम राज्य की पुनर्स्थापना चाहते थे। राम ‘‘अखिल लोक विश्राम हैं’’। आज भी हम अपनी लोक मर्यादा की भाषा में कहते हैं किः- आराम तो तभी आएगा जब ‘राम’ आएगा। राम ही वह अंतिम छोर है, जहां शांति की तलाश के लिए मानव जा सकता है। ‘‘जो आनंद सिंधु सुखरासि, सीकर तें त्रैलोक सुपासी, सब विधि सब पुर लोक सुखारी, रामचंद मुख चंदु निहारी’’। संतों का आदर करना व राम की विनयशीलता देखिए, धनुष भंग पर परशुराम के क्रोध पर राम कहते हैंः- ‘‘नाथ संभु धनु भंजनिहारा, होइहि कोऊ इक दास तुम्हारा’’ छमहू चूक अनजानत केरि, चहिअ विप्र उरकृपा घनेरी’’। राम के चरित्र को सब का हित करने वाले (चाहे मानव हो या पशु) के रूप में गोस्वामी जी ने उभारा है ‘‘जय सुर, विप्र, धेनु हितकारी, जय मद मोह कोह भ्रम हारी’’।

 एक आदर्श भाई के रूप में भरत के प्रति अपने प्रेम को प्रकट करते हुए राम कहते हैंः- ‘‘भरत सरिस प्रिय को जग माहिं, इहईं सगुन फल दूसर नाहि’’। लोक मर्यादा कहती है कि प्रसन्नता में कभी वचन न दो और क्रोध में प्रण न करो। राजा दशरथ ने देवासुर संग्राम में कैकेयी द्वारा उनकी विपत्ति में की गई सहायता की खुशी में वचन दे दिए और जिसका दुष्परिणाम उन्हें राम के वनगमन के रूप में देखना पड़ा। किसी के जरा से भी किए गए एहसान को सज्जन कभी खाली नहीं रखते, बल्कि बदले में इतना लौटा देते हैं, जिसकी एहसान करने वाले ने कभी कल्पना भी न की हो। नाव उतराई के कवेट प्रसंग को ही लेंः-‘‘मनि मुंदरी मन मुदित उतारी, कहेऊ कृपाल लेऊ उतराई’’। राम एक ऐसे चरित्र के रूप में रामचरितमानस में चित्रित किए गए हैं, जिनके बिना जीने का आनंद नहीं। वह दीन, दुःखी व जरूरतमंदों के संबल हैंः- ‘‘हा रघुनंदन प्रान  परीते, तुम्ह बिन जिअत बहुत दिन बीते, देखे बिनु रघुनाथ पद, जिय की जरनि न जाए’’। काम, क्रोध, लोभ, मोह से त्रस्त हृदयों के लिए  राम रूपी शीतलता एक औषधि की तरह है। लंका विजय के समय भालू, बंदर आदि की सहायता लेना, इस बात का द्योतक है कि राम ने अपनी प्रभुता सिद्ध करने का नहीं, अपितु छोटे से छोटे जीव को भी साथ लेकर एक लक्ष्य को साधने का प्रयास किया, ताकि अधर्म व अन्याय रूपी रावण को समाज से हटाया जा सके व मानवीय मूल्यों की स्थापना हो। विभीषण ने भले ही अपने भाई को किसी कारण से त्यागा हो और जब वह शरण मांगने राम के पास गया तो उन्हें शत्रुपक्ष के इस व्यक्ति को शरणागति देने से रोका गया, परंतु राम ने किसी की परवाह न करते हुए अपनी विशालता व सद्हृदयता का परिचय दियाः- ‘‘जौं नर होई चराचर द्रोही, आवै सभय सरन तकि मोहि, तजि मद मोह कपट छल नाना, करहुं सद्य तेहि साधु समाना।’’ राम ने अपने सच्चरित्र  से विभीषण को भी पारस बना दिया। सेवक को उचित सम्मान देने का महान गुण राम ने दिखाया। हनुमान मिलन पर रघुनाथ ने उन्हें हृदय से लगाया व लक्ष्मण से भी अधिक स्नेह दिया। रामचरितमानस में इन चरित्रों के माध्यम से जीवन दर्शन के संपूर्ण प्रश्नों के उत्तर प्राप्त हो जाते हैं। इन्हीं दर्शाए गए आदर्शों व मूल्यों का परिणाम है कि प्रतिदिन गांव-गांव, घर-घर, पंसारी की दुकान से लेकर बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं तक राम नाम पर एक सी श्रद्धा है।

संजय शर्मा

लेखक शिमला से हैं


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