लाल किला और गुरु तेग बहादुर

लेकिन लाल कि़ला के ऐन सामने खड़े होकर चुनौती देना, जहां से अधर्म की विषबेल फल-फूल रही थी, वहीं जाकर अधर्म को ललकारना और अपने हर हालत में अन्याय से लड़ते रहने के अपने धर्म का पालन करना कितना मुश्किल था, शायद इसको आज अनुभव करना सम्भव नहीं है। काल महाबली माना जाता है। वह हर युग में धर्म की रक्षा के लिए चुनौती देता है। लेकिन उस चुनौती को स्वीकार लेना हर एक के बूते में नहीं होता। औरंगजेब के युग में भी महाकाल ने यही चुनौती प्रस्तुत की थी। तब दशगुरू परम्परा के नवम गुरू ने यह चुनौती स्वीकार ली थी। यह इतिहास सभी जानते हैं कि किस प्रकार देश भर से विद्वान, जिन्हें उस युग में ब्राह्मण कहा जाता था, कश्मीर के पंडित कृपा राम दत्त के नेतृत्व में हिमालय की तलहटी में आनंदपुर पहुंचे थे। देश और धर्म की रक्षा के लिए लम्बी मंत्रणाएं हुई थीं। और गुरू तेग बहादुर जी काल की चुनौती को स्वीकारने के लिए स्वयं लाल कि़ले की ओर चल पड़े थे। लाल कि़ले के बिल्कुल सामने देश ने औरंगजेब के इस्लाम का अमानवीय रूप भी देखा और अपने धर्म की रक्षा के लिए आत्म बलिदान करते हुए गुरू तेग बहादुर जी और उनके साथियों का देवतुल्य आचरण भी देखा…

यह घटना 1675 की है। दिल्ली का लाल कि़ला उन दिनों भारत में विदेशी सत्ता का केन्द्र था। मध्य एशिया के आक्रमणकारी मुग़लों ने देश पर कब्जा किया हुआ था। उनका दरबार इसी लाल कि़ला में सजता था। उनका बादशाह इसी लाल कि़ला में बैठ कर हिन्दुस्तान पर राज करता था। उस समय यह बादशाह औरंगजेब था जिसे उत्तर-पश्चिम के लोग औरंगा कहते थे। औरंगजेब सारे हिन्दुस्तान को दारुल इस्लाम बनाना चाहता था। दारुल इस्लाम यानी इस्लाम का मुल्क। इसे वह खुदा का हुक्म मानता था। उसका मानना था कि दुनिया में प्रत्येक आदमी के पास दो ही विकल्प हैं, या तो वह मुसलमान बन जाए या फिर मरने के लिए तैयार हो जाए। कम्युनिस्ट टोले के इतिहासकार कहते हैं कि औरंगजेब बहुत ही ईमानदार व पाक साफ था। वह टोपियां तैयार करके उसे बेचता था और उस पैसे से अपना घर का ख़र्चा करता था। ऐसा पाक साफ आदमी कितना धूर्त था कि उसने अपने बाप को जेल में तड़पा तड़पा कर मारा, भाईयों को धोखे से मारा। मरे हुए शवों का भी अपमान किया। वह टोपियां सीलता रहा और राजधर्म भूल गया। धर्म कहता है कि किसी को ग़ुलाम मत बनाओ। उसने और उसके पुरखों ने सदियों से भारत को ग़ुलाम बना कर रखा हुआ था। धर्म कहता है ग़ुलाम देश की प्रजा के अनुसार भी मानवीय व्यवहार करो। उसने प्रजा की बात तो दूर अपने बाप और भाईयों के साथ भी मानवीय व्यवहार नहीं किया था। धर्म कहता है कि ईश्वर एक ही है, लेकिन उसको मानने वाले उसकी अलग-अलग रूपों में अलग-अलग प्रकार से पूजा अर्चना करते हैं। लेकिन वह कहता था कि ईश्वर का वही रूप मान्य होगा जो इस्लाम कहता है और उसकी पूजा यानी इबादत का वही तरीक़ा इस्तेमाल करना होगा जो इस्लाम में मान्य है। इसी को वह दारूल इस्लाम कहता था। उसकी इस राक्षसी इच्छा को पूरा करने के लिए उसके पास फौज थी और इस्लाम की व्याख्या करने के लिए उसके पास सैयदों की पूरी फौज थी जिनके पुरखे अरब देशों और मध्य एशिया से आकर राज दरबार में बस गए थे। ये सैयद अपने आपको हज़रत मोहम्मद के दामाद अली के ख़ानदान के बताते थे। इसलिए ये चाहते थे कि हिन्दुस्तान के लोग इनको सिजदा करें। मुसलमान बन जाएं या फिर मुगल तुर्कों की तलवार का सामना करें।

 इतना ही नहीं, जो हिंदू इनके भय से मुसलमान हो भी गए थे, उनको भी ये अपने मुक़ाबले तुच्छ मानते थे और उन भारतीय मुसलमानों के साथ भी ये सैयद दूसरे दर्जे का व्यवहार ही करते थे। सारा देश क्रोध के मारे उबल रहा था। अन्याय का विरोध करना प्रत्येक प्राणी का धर्म है, इतनी बात तो हिन्दुस्तान का हर प्राणी जानता था। लेकिन औरंगजेब के समय में अपने इस धर्म  का पालन करना मृत्यु को गले लगाना था। यह इतिहास का ऐसा काल था जब अपने धर्म की रक्षा के लिए खड़े हो जाना यानी मौत से साक्षात्कार करना ही था। इसलिए पूरे हिन्दुस्तान में ऊपर से सन्नाटा था और भीतर कोलाहल था। दिल्ली का लाल कि़ला मुग़लों के अधर्म का केन्द्र बना हुआ था। ऐसा नहीं कि उसे चुनौती नहीं मिल रही थी। दक्षिण में शिवाजी महाराज ने उसकी नाक में दम कर रखा था। पूर्व में असम सेना के सेनापति लचित बडफूकन ने औरंगजेब की सेना को धूल चटा दी थी। लेकिन लाल कि़ला के ऐन सामने खड़े होकर चुनौती देना, जहां से अधर्म की विषबेल फल-फूल रही थी, वहीं जाकर अधर्म को ललकारना और अपने हर हालत में अन्याय से लड़ते रहने के अपने धर्म का पालन करना कितना मुश्किल था, शायद इसको आज अनुभव करना सम्भव नहीं है। काल महाबली माना जाता है। वह हर युग में धर्म की रक्षा के लिए चुनौती देता है। लेकिन उस चुनौती को स्वीकार लेना हर एक के बूते में नहीं होता। औरंगजेब के युग में भी महाकाल ने यही चुनौती प्रस्तुत की थी। तब दशगुरू परम्परा के नवम गुरू ने यह चुनौती स्वीकार ली थी। यह इतिहास सभी जानते हैं कि किस प्रकार देश भर से विद्वान, जिन्हें उस युग में ब्राह्मण कहा जाता था, कश्मीर के पंडित कृपा राम दत्त के नेतृत्व में हिमालय की तलहटी में आनंदपुर पहुंचे थे । देश और धर्म की रक्षा के लिए लम्बी मंत्रणाएं हुई थीं। और गुरू तेग बहादुर जी  काल की चुनौती को स्वीकारने के लिए स्वयं लाल कि़ले की ओर चल पड़े थे।

 लाल कि़ले के बिल्कुल सामने देश ने औरंगजेब के इस्लाम का अमानवीय रूप भी देखा और अपने धर्म की रक्षा के लिए आत्म बलिदान करते हुए गुरू तेग बहादुर जी और उनके साथियों का देवतुल्य आचरण भी देखा। यह अधर्म और धर्म की लड़ाई थी। कहा भी गया है, जहां धर्म है वहीं विजय है। गुरू तेग बहादुर जी के सुपुत्र श्री गोविन्द सिंह जी ने स्वयं अपने पिता के बलिदान के बारे में कहा था, सुरलोक में जय जयकार हुई और मृत्युलोक में हाहाकार मच गया। यह धर्म के लिए किया गया ‘साका’ था। तिलक और जनेऊ इसमें प्रतीक बन गए थे। आज इतने साल बीत गए। जो उस समय लाल कि़ले का बादशाह था, उसका आज कोई नामलेवा नहीं बचा। उसकी कब्र पर दीया जलाने वाला कोई नहीं बचा। लेकिन जो उस संकट काल में हिन्दुस्तान का सच्चा पातशाह था, आज भी उसके सिजदे में करोड़ों गर्दनें झुकती हैं। वह हिन्द की चादर बन गया, धर्म का रक्षक बन गया, इसलिए अमर हो गया। लेकिन आज उसी लाल कि़ले से, जिसमें से कभी तेग बहादुर जी के बंध का फरमान जारी हुआ था, गुरू तेग बहादुर जी की अमर वाणी गूंजेगी। जो लाल कि़ला औरंगजेब के कारण अपवित्र हो गया था, आज वह गुरू तेग बहादुर जी की वाणी से पवित्र हो जाएगा। सही अर्थों में वह आज से हिन्दुस्तान का कि़ला होगा, आज तक तो वह मुग़लों का ही कि़ला था। गुरू तेग बहादुर जी की पावन स्मृति को नमन्। लाल किले का महत्त्व अब और भी बढ़ जाएगा क्योंकि यह गुरू तेग बहादुर जी की वाणी से पवित्र हो जाएगा। लाल किला भारतीय गौरव का प्रतीक है। इसीलिए गुरू तेग बहादुर ने मुगलों से लोहा लिया। लाल किले को मुगलों से आजाद कराना जरूरी था। इसे आजाद कराने की हिम्मत केवल गुरू तेग बहादुर जैसे राष्ट्र भक्तों में ही थी। उन जैसे राष्ट्र भक्तों के कारण ही आज हम आजाद हैं और आजादी की सांस ले रहे हैं।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


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