छात्रों में डिप्रेशन क्यों?

इसी तरह जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में स्थित काउंसलिंग सेंटर की ओर से हर सप्ताह एक वर्कशाप आयोजित किया जाता है, जहां छात्र अपनी समस्याएं खुल कर रख सकते हैं। वहां हाथोंहाथ उनका समाधान करने का प्रयास किया जाता है। आईआईटी दिल्ली ने तो अवसाद के मामलों पर अंकुश लगाने के लिए पाठ्यक्रम में बदलाव करते हुए थ्योरी की बजाय प्रैक्टिकल पर ज्यादा ध्यान देने का फैसला किया है…

हाल ही में पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (आईआईएसईआर) के एक प्रतिभावान छात्र की रहस्यमयी हालत में मौत ने एक बार फिर उच्च शिक्षा प्रणाली और शोध के क्षेत्र में खामियों पर सवाल खड़ा कर दिया है। आईआईएसईआर के शोध छात्र शुभदीप राय की रहस्यमयी हालत में प्रयोगशाला में मौत हो गई थी। 29 साल के राय सॉलिड स्टेट फिजिक्स में सात साल अवधि की पीएचडी कर रहे थे। शोधार्थियों की आत्महत्या या मौत की यह न तो पहली घटना है और न ही आखिरी। शिक्षाविदों का कहना है कि लगातार बढ़ती ऐसी घटनाओं से साफ है कि उच्च शिक्षा और खास तौर पर शोध के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी है। ऐसी घटनाओं की सूची काफी लंबी है। कोलकाता के छात्र ने तो डायरी में अपने गाइड की आलोचना करते हुए लिखा था कि वे किसी तरह का सहयोग नहीं करते और खुद भी कुछ लिखते-पढ़ते नहीं हैं। यह डायरी सामने आने के बाद संस्थान के छात्रों ने दोषी को शीघ्र गिरफ्तार करने की मांग करते हुए प्रदर्शन किया और नारेबाजी की। प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में खासकर शोध छात्रों की बढ़ती मौतों ने एक बार फिर शोध के क्षेत्र में जड़ें जमा चुकी गड़बडि़यों पर सवालिया निशान जरूर लगा दिया है। इसके लिए जिम्मेवारी फिक्स करने का तंत्र विकसित होना चाहिए। नामी शिक्षा संस्थानों में दाखिला मिलना तो महज एक शुरुआत होती है। दाखिले के बाद विस्तृत पाठ्यक्रम, कड़ी प्रतिस्पर्धा, पढ़ाई के साथ दूसरी गतिविधियों में हिस्सा लेने और हर सेमेस्टर में बेहतर प्रदर्शन के दबाव में ज्यादातर छात्र हताशा और अवसाद का शिकार हो जाते हैं। पढ़ाई के बोझ के चलते इन छात्रों में एक ही जगह रहने के बावजूद धीरे-धीरे संवादहीनता की स्थिति पैदा हो जाती है। बेहतर ग्रेड नहीं मिलने की स्थिति में लाखों-करोड़ों की नौकरियां तो दूर, कुछ हजार रुपए की नौकरी भी नहीं मिलती। यही वजह है कि कालेज का पहला साल बीतते ही छात्रों में हीनभावना पैदा होने लगती है जो उनको अवसाद की ओर धकेलती है। इन तमाम दिक्कतों से बचने के लिए कुछ छात्र आत्महत्या का आसान रास्ता चुन लेते हैं, जो कि सरासर गलत है और इसके लिए हमारी कमजोर उच्च शिक्षा प्रणाली जिम्मेवार है।

 भारत में डिप्रेशन के कारण छात्रों की आत्महत्या के मामले नए नहीं हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक हर साल विभिन्न वजहों से हजारों छात्र आत्महत्या कर लेते हैं। अनेक महिला शोध छात्रों का उनके गाइड द्वारा सेक्स शोषण भी जिम्मेवार कारणों में देखा जा रहा है। ऐसे मामलों पर अंकुश लगाने के लिए कभी कोई ठोस पहल नहीं की गई है। कुछ साल पहले आईआईटी खड़गपुर ने मानसिक अवसाद से जूझने वाले छात्रों की काउंसिलिंग के लिए एक केंद्र खोला था। उसकी देखा-देखी कुछ अन्य संस्थानों ने भी ऐसे केंद्र खोले थे। लेकिन उसका खास फायदा नहीं नजर आ रहा है। ऐसी हर घटना के बाद लीपापोती का प्रयास तेज हो जाता है। ज्यादातर मामलों को मानसिक अवसाद की आड़ में दबा दिया जाता है। लेकिन मूल कारणों की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। यही वजह है कि ऐसे मामले थमने की बजाय बढ़ते ही जा रहे हैं। अवसाद यानी कि डिप्रेशन को लेकर अभी तक जितने भी शोध हुए हैं, उनमें ये नहीं बताया जा सका है कि इसकी असल वजह क्या होती है। लेकिन माना जाता है कि इसमें जीवन में घट रही घटनाओं की अहम भूमिका होती है। कई बार यह सवाल हर किसी के मन में आता है कि अवसाद किसे हो सकता है? तो इसका भी कोई संतोषजनक उत्तर आपको नहीं मिल सकता। हाल ही में हुए एक नए शोध में पता चला है कि ऐसे लोग जो अपने लक्ष्य हासिल करने को लेकर निश्चित नहीं हैं, जो लोग अपनी मंजिल के बारे में कन्फ्यूज्ड रहते हैं, इस तरह के लोगों में मनोवैज्ञानिक संकट का सामना करने का खतरा ज्यादा हो सकता है। यह भी सत्य है कि ज्यादातर नामी-गिरामी संस्थानों में दाखिले के कुछ साल बाद ही संस्थान और संबंधित प्रोफेसरों के रुख के कारण शोध छात्र खुद को ठगा हुआ महसूस करने लगते हैं।

 देश में शिक्षण संस्थानों में जड़ें जमा चुकी इन गड़बडि़यों के कारण ही हर साल भारी तादाद में शोध छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों का रुख करते हैं, लेकिन सबके पास इतना सामर्थ्य नहीं होता। नतीजतन उनके पास देश में ही शोध करने का विकल्प बचता है। मौजूदा प्रणाली में खासकर उच्च शिक्षा और शोध करने वाले छात्रों पर कई किस्म के दबाव होते हैं। लेकिन तमाम संबंधित पक्ष इस दबाव को नजरअंदाज कर देते हैं। संबंधित छात्र पर भी इसका असर नजर आने लगता है। लेकिन वह आगे बढ़ने की जिद में काम करता रहता है। ऐसे में वह कब मानसिक अवसाद की गिरफ्त में आ जाता है, इसका पता भी उसे देरी से चलता है। शिक्षाविदों का कहना है कि सरकार को तमाम शिक्षण संस्थानों में खासकर शोध के क्षेत्र में कायम गड़बडि़यों को दूर करने की दिशा में ठोस पहल करनी होगी। ऐसा नहीं होने की स्थिति में देश से प्रतिभाओं का पलायन और तेज होने का अंदेशा है। डिप्रेशन की समस्या का शिकार हमारे स्कूल छात्र भी हैं। एक ताजा अध्ययन में भारतीय शोधकर्ताओं ने पाया है कि स्कूल जाने वाले 13 से 18 वर्ष के अधिकतर किशोर अवसाद (डिप्रेशन) का शिकार बन रहे हैं। कुछ समय पहले चंडीगढ़ स्थित स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ और स्नातकोत्तर चिकित्सा शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययन में ये तथ्य उभरकर आए हैं। शोधकर्ताओं ने पाया है कि लगभग 40 प्रतिशत किशोर किसी न किसी रूप में अवसाद के शिकार हैं। इनमें 7.6 प्रतिशत किशोर गहरे अवसाद से पीडि़त हैं। जबकि 32.5 प्रतिशत किशोरों में अवसाद संबंधी अन्य विकार देखे गए हैं। करीब 30 प्रतिशत किशोर अवसाद के न्यूनतम स्तर और 15.5 प्रतिशत किशोर अवसाद के मध्यम स्तर से प्रभावित हैं। 3.7 प्रतिशत किशोरों में अवसाद का स्तर गंभीर स्थिति में पहुंच चुका है।

 वहीं 1.1 प्रतिशत किशोर अत्यधिक गंभीर अवसाद से ग्रस्त पाए गए हैं। चंडीगढ़ के आठ सरकारी एवं निजी स्कूलों में पढ़ने वाले 542 किशोर छात्रों को सर्वेक्षण में शामिल किया गया था। अवसाद का मूल्यांकन करने के लिए कई कारक अध्ययन में शामिल किए गए हैं, जिनमें माता-पिता की शिक्षा एवं व्यवसाय, घर तथा स्कूल में किशोरों के प्रति रवैया, सामाजिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि, यौन व्यवहार और इंटरनेट उपयोग प्रमुख हैं। डिप्रेशन की समस्या से देश के दूसरे नामी-गिरामी कालेजों के छात्र भी जूझ रहे हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय ने तो इस समस्या पर अंकुश लगाने के लिए काउंसिलिंग के लिए एक माइंड बॉडी सेंटर खोला है। इसके अलावा दो साल पहले एक हेल्पलाइन नंबर भी शुरू किया गया है। इसी तरह जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में स्थित काउंसलिंग सेंटर की ओर से हर सप्ताह एक वर्कशाप आयोजित किया जाता है, जहां छात्र अपनी समस्याएं खुल कर रख सकते हैं। वहां हाथोंहाथ उनका समाधान करने का प्रयास किया जाता है। आईआईटी दिल्ली ने तो अवसाद के मामलों पर अंकुश लगाने के लिए पाठ्यक्रम में बदलाव करते हुए थ्योरी की बजाय प्रैक्टिकल पर ज्यादा ध्यान देने का फैसला किया है। क्या अन्य कॉलेज और विश्वविद्यलय इस दिशा में छात्र हित के लिए कदम उठा रहे हैं? ऐसे सभी संस्थानों में काउंसिलिंग सेल स्थापित होने चाहिए जो कि न के बराबर हैं। यह काम सरकारी आदेशों से संभव हो सकेगा।

डा. वरिंदर भाटिया

कालेज प्रिंसीपल

ईमेल : hellobhatiaji@gmail.com


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