सिरमौर के सुप्रसिद्ध दिवंगत साहित्यकार
चिर आनंद
मो.-8219296348
साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…
यों तो बहुत से विद्वानों ने ‘साहित्य’ शब्द को परिभाषित किया है, किंतु हम देखते हैं कि, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की उक्ति है ‘‘विचारों के संचित कोष की अभिव्यक्ति ही साहित्य है।’’ से साहित्य शब्द का पर्याप्त अर्थबोध हो जाता है। शाब्दिक अर्थ के आधार पर कहें तो- ‘‘जिसमें हित की भावना सन्निहित हो’’, वही साहित्य है। भाषा कोई भी हो, साहित्य और समाज दोनों अन्योन्याश्रित होते हैं। जहां साहित्य की उन्नति-अवनति समाज को प्रभावित करती है, वहीं समाज के उत्थान-पतन से साहित्य भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। प्रिय/सुधी पाठकगण! सिरमौर जनपद विविध कला-कौशलों और विषेषतः साहित्यिक गतिविधियों के लिए हिमाचल भर में सुविदित है। किंतु इसे हमारी धृष्टता कहें या घोर कृतघ्नता कि, हम आत्ममुग्ध हुए, अपने साहित्यिक पुरोधाओं को प्रायः भुलाए हुए रहते हैं। अब इसे आश्चर्यजनक संयोग ही कह सकते हैं कि, हमारी इस उपेक्षापूर्ण-अक्षम्य चित्त-वृत्ति का परिमार्जन करने का श्लाघनीय प्रयास ‘दिव्य हिमाचल’ दिवंगत साहित्यकारों को याद करके कर रहा है। इस कड़ी में सिरमौर जनपद के दिवंगत लिखारियों के व्यक्तित्व व कृतित्व को संक्षिप्त रूप से आलोकित करने का प्रयास करेंगे। यहां पर इस सत्य से भी हमें परिचित रहने की आवश्यकता है कि सिरमौर ही नहीं, प्रायः समस्त भारत में मुस्लिम शासकों ने हमारी सनातन भाषा, लिपि व संस्कृति तक का दमन कर एक दीर्घ काल खंड तक हम पर अपने साथ लाई भाषा, लिपि व संस्कृति को भी बलपूर्वक लादे रखा।
पुनः अंग्रेजों के समय में अंग्रेजी के साथ उर्दू का जन्म हुआ और शासन-प्रशासन में इन्हीं भाषाओं का वर्चस्व बना रहा। आज जो सिरमौर जनपद है, वह भी एक रियासत ही थी जहां शासन-प्रशासन में अंग्रेजी-उर्दू का चलन था। अतः सिरमौर के साहित्यकार भी अंग्रेजी या उर्दू में ही अपने विचारों के संचित कोष को मूर्त रूप देते रहे। अंततोगत्वा स्वातंत्र्योत्तर देश में हिंदी को राजभाषा का सम्मान मिलने व पाठ्यक्रम में अनिवार्य होने के कारण, हिंदी में लिखने वालों का उल्लेख तो हम करेंगे ही, साथ ही अंग्रेजी व उर्दू में किए गए मौलिक सृजन को भी प्रस्तुत करना चाहेंगे! यथाः- साहित्य के प्रथम प्रेरक! 1. ‘हिमाचल निर्माता’ डा. परमार (04 अगस्त सन् 1906 – 02 मई सन् 1981)। वस्तुतः सिरमौर में जितने भी लिखने वाले याद आते हैं, वे प्रायः हिमाचल निर्माता डॉक्टर यशवंत सिंह परमार के पश्चात ही उभर कर सामने आते हैं। उन्होंने सर्वप्रथम अपना शोध प्रबंध ‘पोलिएंडरी इन दि हिमालयाज’ नाम से लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रस्तुत किया था, जिस पर उन्हें ‘डॉक्टरेट’ की उपाधि मिली।
यह संभवतः सिरमौर में किसी भी लेखक/शोधकर्ता विद्यार्थी का प्रथम शोध ग्रंथ है। इसके पश्चात हिमाचल प्रदेश के अस्तित्व में आने और हिमाचल निर्माण में संलग्न रहते हुए भी उन्होंने चार-पांच पुस्तकों के रूप में साहित्य-सृजन किया। इनमें ‘हिमाचल प्रदेश ः एरिया एंड लैंग्वेजिज’ तथा ‘चैट फार स्टेटहुड’ न केवल उत्कृष्ट साहित्यिक रचनाएं हैं, अपितु नव लेखकों के लिए प्रेरणा का कार्य करती हैं। पठनीय और संग्रहणीय तो हैं ही। अतः इन प्रथम युग पुरुष के विषय में इतना ही कहूंगा कि, तेरी माटी से मंडित मैं, भावी इसका कर्णधार। धन्य हुई धरती तुमसे हे-धन्य-धन्य डॉक्टर परमार।। सिरमौर ही क्या ये अखिल हिमाचल, तुमसे प्रेरित हुआ सदा, जो कुछ मेरे आसपास है, झलके उसमें तेरा प्यार।। (चिर आनंद)। 2. अमर स्वतंत्रता सेनानी वैद्य सूूरत सिंह चौहान (22 अक्तूबर सन् 1912 – 30 अक्तूबर सन् 1992)ः भाव सर्जित कर दिए थे कठिन कारावास में। और अंकित हो गए, स्वाधीनता- इतिहास में।। (चिर आनंद)। सिरमौर में सर्वविदित पझौता आंदोलन के नायक रूप में प्रख्यात वैद्यजी पिता श्री देवी सिंह चौहान व माता मुन्नी देवी के घर ः ग्राम टिक्कर कटोगड़ा, पत्रालयः रडुघाटी, तहसील राजगढ़, जिला-सिरमौर में 22 अक्तूबर सन् 1912 को अवतरित हुए। स्वतंत्रता आंदोलन और उसके पश्चात जनसेवा करते हए भी साहित्य सेवा में दत्तचित्त रहे। उन्होंने संस्कृत, हिंदी व पहाड़ी में प्रभूत साहित्य सृजन किया- 1. भर्तृहरि के शतकत्रय का उन्हीं छन्दों में पद्यानुवाद, 2. पझौता आंदोलन पद्य में, 3. पझौता आंदोलन गद्य में (2020 ई. में प्रकाशित- पुत्र श्री जय प्रकाश चौहान द्वारा), 4. ‘पहाड़ी कलाकार संघ-हाब्बन’ की स्थापना। 5. ‘पर्वत बोलें’ पत्रिका का संपादन व प्रकाशन, 6. ‘युवकों में कृषि कार्य के प्रति उपेक्षा वृत्ति’- चर्चित लेखमाला। 7. ‘‘जेल गीत’’ (कारावास में रहते लिखी चर्चित रचना)- हमारी प्यारी जेल ने- अपने वतन के वास्ते। मुसीबत जदों के वास्ते- शैदा हमें बना दिया।।
मालिक तेरे दरबार में बेडि़यों की झंकार ने। तसलों की ठनकार ने, मतवाला हमें बना दिया।। होना ये हिंद आज़ाद है, सोचे क्या फिर जल्लाद ये, डाल कर जेलों में क्या-तूने हमें दबा दिया? आओ सब मिल कर गाइये, माता की जय मनाइए। गरीबों को छाती लगाइये, ‘‘सूरत’’ जिन्हें भुला दिया।। 3. साधूराम रत्न (16-02-1917, 27-06-2008)- कला कोष सौंपा था, लेकिन हम संभाल कर रख न सके। छप्पन भोगों का सरस/विरस रस हम काहे को चख न सके।। (चिर आनंद)। पिता श्री सुंदर लाल रत्न, माता श्रीमती शान्ति देवी, के सुपुत्र सेवानिवृत्त उप पुलिस अधीक्षक जी का जन्म रत्न निवास निकट गुन्नूघाट नाहन मंे हुआ। विधाएं- ग़ज़ल, कविता, कहानी- उर्दू व देवनागरी लिपि में। इस कद्र तू न हो खुश कि, ग़म न फिर बर्दाश्त हो। दिल को रख काबू में ताकि बात हर बर्दाश्त हो।। उसकी जानिब से नहीं, इंकार है दीदार का, दिल में तेरे देखने की, उसका ग़र बर्दाश्त हो।। दिल दुखा न तू किसी का इस जहां में ऐ ‘रत्न’, है यह नाजुक टूट जाएगा, न ग़र बर्दाश्त हो।। 4. राम दयाल नीरज (जन्म 01-06-1920, मृत्यु ः 08-11-2015), लिखने में जितने बन्धन थे सारे बन्धन तोड़ गए। और भावी लिखने वालों को नव परम्परा से जोड़ गए।। (चिर आनंद)। नीरज जी का जन्म ग्राम दाहूं, तहसील रेणुका जी में, श्रीमती हीरो देवी व श्री बालक राम जी के घर में हुआ। किन्तु जन्म के साथ ही उनके ताया जी श्री मंसा राम व ताई बकरालटी देवी ने उन्हें गोद ले लिया था। ‘हिम प्रस्थ’ पत्रिका के सम्पादक पद से सेवानिवृत्त। साहित्य सम्मान सृजन, पत्रकारिता, मिला। सम्पादन में जीवन बिताया-2013 में आजीवन उपलब्धि, सिरमौर की कला, संस्कृति, भाषा, बोली, रीति-रिवाजों के सन्दर्भ में लिखने वालों में पुरोधा नीरज जी हिमाचल में गुरू जी के नाम से प्रख्यात थे। -(शेष भाग निचले कॉलम में)
हिमाचल रचित साहित्य –15
मो.-9418080088
अतिथि संपादक
डा. सुशील कुमार फुल्ल
विमर्श के बिंदु
- साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
- ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
- रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
- लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
- हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
- हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
- अतीत के पन्नों में हिमाचल का उल्लेख
- हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
- यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
- लालटीन की छत से निर्मल वर्मा की यादें
- चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में
सिरमौर के दिवंगत साहित्यकारों को नमन
-(ऊपरी कॉलम का शेष भाग)
- आदिल सिरमौरी (1918- जन्म, पुण्य तिथि- दिसम्बर 1994), आदिल धड़कता था तेरा दिल ग़ज़ल और अशआर में। दूर से दिखता था मानो नगीना सा हार में।। (चिर आनंद)। माता- पसन्नी देवी, पिता दयाराम – नाहन में जन्म, साहित्य- ग़ज़ल संग्रह-धुनक, एकांकी- अधूरे सपने- स्वतंत्रता आंदोलन में जेल गए। यथा- रंगे महफिल की बेरंगियां देख कर उनकी महफिल से भी लौट आना पड़ा। क्योंकि आदिल मेरा दिल था मजबूर यूं आंख नम थी मगर मुस्कुराना पड़ा।। अपने साकी की नादानियां देखकर जाम खाली था, लेकिन उठाना पड़ा।। 6. स्वतंत्रता सेनानी – हृदय राम (जन्म 11-01-1927, मृत्यु 01-05-2013)। उस दव्य भव्य भाटण में बुधजन कभी-कभी उतराते हंै। भटकें न अटके न कहीं -पद चिन्ह छोड़ कर जाते हैं।। (चिर आनंद)। पिता श्री रामभज शर्मा- ग्राम भाटण, तहसील रेणुका में जन्म, साहित्य (1) भजन माला (2) मानस धर्म (3) गरीबी रेखा (4) हरिजन बंधुओं से (5) मेरी जेल यात्रा (6) आत्म बोधार्थ (7) हिमाचल का निर्माता कौन (8) फीस (कहानी) (9) मां की दुःखी संतान (10) दुःखी मनुमय और भगवान- (नाटक) (11) वास्तविक सुख-समृद्धि का सार (12) श्री लंकेश रावण का आदर्शमय जीवन चरित (13) भ्रष्टाचार कैसे दूर हो। 7. चतर सिंह पंवार (जन्म 02-02-1928, मृत्यु 19-09-2001), सांस्कृतिक लेखनों से रंग जितना जम गया। निवृत्त होने पर वो दरिया मौन होकर थम गया।। (चिर आनंद)। पिता श्री गोपाल सिंह, माता श्रीमती बेलमंती देवी, ग्राम दाड़ो-देवरिया, पच्छाद। सूचना एवं जन संपर्क विभाग में निदेशक पद से सेवानिवृत्त। लेखन- हि. प्र. भाषा एवं संस्कृति पर निरंतर लेखन। सामुदायिक रेडियो, आकाशवाणी व दूरदर्शन केन्द्रों की स्थापना, हिम प्रस्थ, गिरिराज, पंचजगत, श्यामला, विपाशा जैसी पत्रिकाएं स्थापित की। 8. कैलाश भारद्वाज- (जन्म 13-07-1928, मृत्यु 11-10-1991), कण-कण रचे साहित्य का गिरिवर हुआ कैलाश। नाम के अनुरूप ही धरती, पवन, आकाश।। ( चिर आनंद)।
जन्म कनखल- हरिद्वार में हुआ। साहित्यिक व्यक्तित्व- अंग्रेजी के प्राध्यापक के रूप में नाहन में अध्यापन, सृजन- दिवाली के दीप-कहानी-संग्रह, बचन का मोल-कहानी संग्रह, मीठा जहर- उपन्यास, अंतरिक्ष की खोज (विज्ञान कथा), विंध गए सो मोती-भाग-1, रह गए सो सीप भाग-2, यज्ञ प्रिया नाटक, प्रिज़नर ऑफ जेण्डा- उपन्यास का अनुवाद, टेम्पटेशन (हंगेरियन), मदर (इतालवी) और ग्रेण्ड होटल (जर्मनी) का हिंदी में अनुवाद। मेघदूत (कालिदास) का पद्यानुवाद, विक्रमोर्वशीय व उत्तर रामचरित का रेडियो रूपांतरण। संपादन- वाणी, रजनी, हमकलाधर पत्रिकाओं का सम्पादन, ‘कलाधारा’ नामक संस्था की स्थापना। शोध कार्य- सूरदास के भ्रमर गीत में निर्गुण व सगुण विवाद का अध्ययन। डा. भारद्वाज जी निजी व सांस्कृतिक-अध्यात्मिक जीवन में भी क्रांतिकारी विचारों के स्वामी रहे हैं। उन्होंने तथाकथित जातिगत बंधनों को नकारते हुए ‘कंवर’ (राज) परिवार की सुकन्या हेमलता देवी जी से विवाह किया! इतना ही नहीं, अपनी दो सुपुत्रियों-अपर्णा व सुपर्णा के जन्म के पश्चात, उस समय में भी ‘‘बेटी ही बेटा है’’-का संदेश देते हुए परिवार नियोजित कर समाज में एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया। 9. पहाड़ी मृणाल आचार्य चंद्रमणि वशिष्ठ (28-06-1931, 07- 06-2009), स्वनामधन्य कुछ नाम हैं, कारणरूप शरीर के मानो। हिंदी और पहाड़ी के अच्छेे हैं पुरोधा तुम जानो।। (चिर आनंद)। पिता श्री सावन राम, माता श्रीमती कालटी के घर नाहन में जन्म। जिला लोक संपर्क अधिकारी के पद से स्वेच्छापूर्वक त्यागपत्र दिया व स्वतंत्र लेखन तथा जनसेवा करते रहे।
विधाएं- निबंध, नाटक, जीवनी, कविता, ग़ज़ल- ग़ज़ल पहाड़ी में व संपादन कार्य भी किया और अनेक पुस्तकों की समीक्षाएं की। चिरानंद की काव्य पुस्तक ‘त्रिवेणी’ की समीक्षात्मक टिप्पणी उनके द्वारा की गई समीक्षा का उत्कृष्ट उदाहरण है। संपादन- महाराजा राजेंद्र प्रकाश व राष्ट्र गौरव डा. यशवंत सिंह परमार नामक रचना का किया। नाटक व रेडियो नाटक- कच्चे धागों का खेल, बींची, परशुराम का कुठार, एक सफर एक डगर, जब तिनके बिखर गए, सुनहले कलश, जिंदगी मेरेे महबूब की। कहानियां- देवता देख रहा है आदि (दो दर्जन), निबंध- रेणुका तीर्थ की विकास यात्रा आदि (एक दर्जन)। ग़ज़ल संग्रह- रफ़ता-ऱफता संवर रही है जि़ंदगी। कविता संग्रह- आपकी तो बात ही और है। अनुवाद- श्रीमद्भगवद गीता का पहाड़ी में पद्यानुवाद। संस्मरण- ‘चमत्कार ही चमत्कार’। अभिनय- अनेकों बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार प्राप्त। ‘सिरमौर कला संगम’ के संस्थापक अध्यक्ष 28 जून 1958 से लगातार, अपने जन्म दिवस पर स्थापित। कारण शरीर से आज भी अध्यक्ष हैं। षट् कलाओं के साथ-साथ जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट कार्य करने वाली भारत भर की विभूतियों को सम्मानित करने वाली संस्था है।
-चिर आनंद
-(शेष भाग अगले अंक में)
पुस्तक समीक्षा : जीवन से सराबोर कहानियां
बल्लभ डोभाल एक बेहद मंजे हुए कथाकार हैं। कुछ समय पूर्व ही श्रीसाहित्य प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित होकर आया है उनकी कहानियों का संकलन ‘मेरी चयनित कहानियां’। इससे पूर्व उनके पांच उपन्यास, दस कहानी संग्रह, तीन यात्रा संस्मरण, दो नाटक, दो बाल उपन्यास, तीन बाल कहानी संग्रह तथा कुछ अन्य पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। 24 कहानियों का यह संकलन अपनी पहली ही कहानी ‘कही अनकही’ से पाठक को बांध लेता है। वे जीवन के यथार्थ को कहीं से भी उठाकर कहानी बना देने में सक्षम और सिद्धहस्त हैं। कहानी भी ऐसी कि आप पढ़कर ठगे-से रह जाएं। जीवन से सराबोर ये कहानियां आपके अनुभव को तो विस्तार देती ही हैं, संवेदना के तंतुओं को भी कभी धीरे से, कभी हौले से कुछ इस तरह झंकृत कर जाती हैं कि मन कहीं आह्लादित तो कहीं गहरे तक संवेदित हो उठता है। ज्यादातर कहानियां ऐसी हैं कि उन अनुभवों से आप कदाचित कभी गुजरे ही न हों। इन कहानियों के लेखक लिए राजा खुगशाल ने अपनी भूमिका में ठीक ही लोक संवेदना के अप्रतिम कथाकार नाम दिया है। भूमिका यह उल्लेख करना नहीं भूलती है कि ‘बल्लभ डोभाल एक समर्पित रचनाकार हैं। मुक्त जीवन जीते हुए उन्होंने लेखन की शर्त पर समझौते नहीं किए। प्रसिद्धि, पुरस्कारों तथा प्रलोभनों के पीछ वे नहीं भागे। उन्होंने हिमालय के दुर्गम क्षेत्रों की साहसिक यात्राएं की हैं। उनकी स्वच्छंद और घुमंतू प्रवृत्ति का असर उनके लेखन पर भी पड़ा है।’ 1970 के आसपास प्रकाशित अपने पहले कहानी संग्रह ‘घाटियों के घेरे’ के बाद से डोभाल जी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आलोच्य चयनित कहानियों में बल्लभ डोभाल के हस्तलाघव का पता इस बात से चलता है कि कभी ऐसा लगता ही नहीं कि वे कहानी लिख रहे हैं। अपितु यह अनुभव होता है कि कहानी के पात्र और घटनाक्रम किसी सम्मोहन में बंधकर स्वयं कोई अनूठी संरचना तैयार कर रहे हैं।
यदि प्रभाव की बात की जाए तो जिस तरह कोई जादूगर अपनी जादू की छड़ी के इशारे भर से अपने तमाम सारे उपकरणों को मनचाहे ढंग से संचालित करके दर्शकों को अवाक कर देता है, डोभाल जी अपनी कहानियों में कुछ-कुछ वैसा ही करते नजर आते हैं। विगत 30 मार्च 2022 को अपने जीवन के 92 बसंत देख चुके डोभाल जी की मानसिक सक्रियता आज भी हैरान करती है। वे जीवन में बहुत बिंदास किस्म के इनसान रहे हैं। कहीं बंधकर और ठहरकर रहना उन्हें रास नहीं आया। जीवन की ही तरह उनका लेखन भी कभी बंधा नहीं, कहीं ठहरा नहीं। उनका बेबाकपन उनकी कहानियों में भी दिखाई देता है, और उनकी बातचीत में भी। धर्म किस तरह अपराधियों के छुपने की शरण स्थली ही नहीं, अपितु अलग तरह की सड़ांध का कंेद्र बन जाता है, यह उनकी कहानी ‘जय जगदीश हरे’ में बहुत रोचक ढंग से आया है। अपराध, राजनीति और पुलिस का गठजोड़ ‘चुनाव उत्सव’ में दिखाई देता है तो राजनीति का खोखलापन ‘कोढ़-खाज’ कहानी में नजर आ जाएगा। राष्ट्रपिता की दुर्दशा एवं पीड़ा स्वयं गांधी के ही शब्दों में सुनिए, जब ‘कलिकथा’ कहानी में कथाकार फैंटेसी का प्रयोग करते हुए करंसी नोट पर छपे गांधी के साथ संवादरत होता है- ‘पढ़-लिखकर क्या मिलेगा बेटा।…वो तेरे बस का नहीं। चुनाव लड़ जा। नेता बन गया तो फिर…दूसरों को आपस में लड़ाने की बात है, सब सिखा दूंगा। शाम को उधर चला आ…झुग्गी डलवा दूं तेरी। फिलहाल पच्चीस गज किसके बाप की है।’ (पृष्ठ-36)। बल्लभ डोभाल की कुछ कहानियों के नायक बिल्कुल अजीब तरह के लोग हैं। जैसे ‘चुनाव उत्सव’ का फंगरूमियां एक बहुत शातिर दिमाग अपराधी है तो ‘जय जगदीश हरे’ का शंकर एक ऐसा अपराधी है जो साधु के भेष में रहकर लोगों को श्रद्धा और भक्ति का ज्ञान देता है। उनकी कहानियों की शुरुआत बहुत सामान्य ढंग से होती है। ऐसा लगता ही नहीं कि लेखक कहानी ही कहने जा रहा है।
डोभाल जी की कहानियां कहानी के बंधे-बधाए प्रारूप की मोहताज नहीं हैं। उनमें विशेष प्रकार का अल्हड़पन है। वे कहीं से भी शुरू होकर कहीं भी समाप्त हो सकती हैं। कहानी का चरम कहानी के अंत में आए ही, यह आवश्यक नहीं। वह चरम पूरी कहानी में टुकड़े-टुकड़े फैला भी हो सकता है। अपनी कहानियों मेें वे चौंकाने का प्रयास करते नहीं दिखाई देते। डोभाल जी की भाषा बिल्कुल अलग तरह के आस्वाद की भाषा है। व्यंग्य के साथ ही चुटीलापन और विनोदप्रियता भी उनकी भाषा की विशेषता है। डोभाल जी अपनी अधिकांश कहानियों में अनिवार्य रूप से उपस्थित रहते हैं। इस वजह से उनकी कहानियां सच्चे यथार्थ की कहानियां लगती हैं। व्यंग्य में डोभाल जी का कोई सानी नहीं है। अधिकांश कहानियों में व्यंग्य की धार दिखाई ही दे जाती है। कुल मिलाकर कहें तो डोभाल जी एक सफल कहानीकार हैं। तभी तो उनकी कहानियों के पाठकों की संख्या काफी ज्यादा है। उनकी कहानियों की विशेषताओं को एक आलेख में समेटना संभव नहीं है, फिर भी इन पंक्तियों के माध्यम से कुछ विशेषताओं का उल्लेख यहां हुआ है। भगवान उन्हें दीर्घायु करें।
-कमलेश भट्ट कमल
हिमाचल की पृष्ठभूमि पर रचित उपन्यास
दीनदयाल वर्मा का उपन्यास ‘जंगली क्वार्टर’ हिमाचल की पृष्ठभूमि पर रचित एक दिलचस्प औपन्यासिक कृति है। उपन्यास में लेखक ने बड़े रोचक ढंग से एक सितारे को सूत्रधार के रूप में रखकर आम परिवार के साधारण बालक को नायक के रूप में प्रस्तुत करते हुए मानवीय संवेदनाओं का हृदयस्पर्शी वर्णन किया है। इस उपन्यास में 1950 से 2022 तक के काल खंड को चित्रित करते हुए साठ के दशक के सरकारी विद्यालयों से लेकर सरकारी कार्यालयों, राजनीति, चुनाव, पर्यावरण, बालिका शिक्षा इत्यादि से पाठकों को रूबरू कराते हुए समाज में व्याप्त जातपात, अंधविश्वास जैसी सामाजिक बुराइयों पर सहज और सरल शब्दों में कठोर कुठाराघात किया गया है। दीनदयाल वर्मा प्रकृति प्रेमी हैं और अपनी रचनाओं में प्रकृति का वर्णन बहुत ही संुदरता से करते हैं।
इस उपन्यास मेंे भी पर्यावरण संरक्षण का संदेश बखूबी दिया गया है। मन की गहराइयों को छू लेने वाली प्रेम कथा का इसमें वर्णन तो है ही, अंधविश्वास में जकड़े समाज को सटीक एवं सरल शब्दों में जागरूक करने का प्रयास भी इसमें है। उपन्यास की कथा जमीन से जुड़ी हुई, सामाजिक सरोकारों से ओत-प्रोत जीवन की संवेदनाओं को व्यक्त करती है। उपन्यास बारह भागों में विभाजित है। सचमुच पूरा उपन्यास अत्यंत रोचक बन पड़ा है। यह उपन्यास पाठकों को आनंदित व प्रभावित करने के साथ मन पर अमिट छाप छोड़ने में सक्षम है। उपन्यास पठनीय व संग्रहणीय है। रश्मि प्रकाशन नाहन से प्रकाशित इस उपन्यास की कीमत 850 रुपए है।
-नीति अग्रवाल, गुन्नुघाट, नाहन
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