सेना की राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय निर्भरता-1

पिछले कुछ दिनों से राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो घटनाएं हो रही हैं उनमें मुख्यत: श्रीलंका की आर्थिक व्यवस्था के डावांडोल होने पर राजनीतिक उथल-पुथल में राष्ट्रपति द्वारा सभी दलों के नेताओं को कैबिनेट में शामिल करके प्रधानमंत्री बदलने का निर्णय भी राजनीतिक तथा आर्थिक अस्थिरता पर लगाम नहीं लगा पाया है। हमारे दूसरे पड़ोसी पाकिस्तान में चीजें राजनीतिक अस्थिरता से शुरू हुई और प्रधानमंत्री बदलने के बाद भी किसी भी तरह के सकारात्मक परिणाम देखने को नहीं मिल रहे हैं और जिस तरह की आर्थिक व्यवस्था और हालात पाकिस्तान में अभी बने हुए हैं उससे ऐसे नहीं लगता कि नए प्रधानमंत्री ज्यादा देर अपने पद पर रह पाएंगे। रूस और यूक्रेन का युद्ध चिंगम या रबड़ की तरह खींचते ही जा रहा है तथा समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा। बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सामरिक मामलों के जानकार जो अपने वक्त्व्य में इस युद्ध द्वारा मात्र 24 से 36 घंटे में ही यूक्रेन की समाप्ति का आह्वान कर रहे थे, आज हर कोई सकते में है कि जिस तरह से यूक्रेन के कॉमेडियन राष्ट्रपति ने अपने निजी सपनों और हठ को देश के ऊपर रखकर अपने देशवासियों के हितों की परवाह किए बिना युद्ध को कायम रखकर, यूक्रेन को सदियों पीछे धकेल दिया उसी तरह दूसरी तरफ 90 के शुरुआती दशक में विघटन का दंश झेलने के बाद अपने अपमान और लज्जा का बदला लेने के लिए अमेरिका और नाटो राष्ट्रों को उनकी जगह दिखाने के लिए पूरी तरह से आश्वस्त रूसी राष्ट्रपति पुतिन की सोच में भी किसी तरह की कोई कूटनीति या राजनीति न होकर मात्र बदला लेने की ठान दिख रही है।

इस पूरे घटनाक्रम में जिसको सबसे ज्यादा फायदा हुआ है वह है चीन, जिसने बड़ी चालाकी और होशियारी से यूरेशिया की सबसे बड़ी ताकत रूस को युद्ध में धकेल कर चीन से 19 कर दिया तथा दूसरी तरफ अमेरिकन और यूरोपियन महाद्वीपों में अब तक अमेरिका और उसके साथी देशों के चल रहे दबदबे को भी कहीं न कहीं घात लगा दी है। इस दौरान भारत असमंजस की स्थिति में कभी अमेरिका तो कभी रूस की तरफ मन बनाता रहा, पर अंतत: दोनों से दूर रहने का उसका फैसला कितना सही है यह भविष्य ही बता पाएगा। इतिहास गवाह है कि जो भी देश युद्ध में गया है चाहे वह जीते या हारे, उसमें सबसे ज्यादा नुकसान उस देश की अपनी संपत्ति तथा नागरिकों का होता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दोस्ती का राग अलापने वाले सभी देश युद्धग्रस्त राष्ट्र को जरूरत के हिसाब से हथियार तथा बाकी आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई नगद पैसे न लेकर उधार करके, उसको अपना कर्जदार बना देते हैं और हथियार बिक्री से अपना व्यवसाय बढ़ाते हैं। मेरा मानना है कि हर राष्ट्र को यह सोचना होगा कि अगर कल को युद्ध की स्थिति आती भी है तो जो देश युद्ध के लिए जा रहा है वह अपने दोस्तों से हथियार मिलने के आश्वासन से युद्ध में न जाए बल्कि अपने देश की सेना, आम जनता तथा अर्थव्यवस्था को बचाए रखने के लिए स्वदेशी चीजों का ज्यादा से ज्यादा निर्माण करके दूसरे देशों पर कम से कम निर्भर हो। इस कड़ी में सबसे महत्वपूर्ण बात जो हमें अपने देश में युद्ध स्तर पर लागू करनी चाहिए, हथियारों के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता है। आज विश्व के हर देश की जरूरत आत्मरक्षा के लिए हथियारों का एक सशक्त भंडार है और अगर यह भंडार स्वदेशी हथियारों का हो तो विश्व का कोई भी देश न ही उस पर जबरदस्ती युद्ध थोपेगा और न ही उसे युद्ध के लिए प्रोत्साहित करेगा, क्योंकि इन तथाकथित दोस्त देशों के पास अगर युद्ध ग्रस्त देश के लिए हथियार बेचने का कोई भी मौका नहीं होगा तो वहां से वे अपना फोकस अपने आप ही हटा लेंगे। -क्रमश:

कर्नल (रि.) मनीष

स्वतंत्र लेखक


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