कालेज तक पसरा आक्रोश

By: May 26th, 2022 12:02 am

शिक्षा के कर्म ने शिक्षक को भी नौकर बना दिया, वरना गुरु की पाठशाला में कभी नैतिकता भी पढ़ती थी। यहां मसला यह नहीं कि समाज के किसी एक वर्ग के कंधे पर नैतिकता सवार कर दी जाए, लेकिन कहीं तो आईने जमीर के भी रहे होंगे। काफी समय से यूजीसी स्केल को लेकर विश्वविद्यालयों के भीतर प्राध्यापकों के सब्र का पैमाना टूट रहा था और अब तो कालेज तक पसरे आक्रोश ने धीरे-धीरे शिक्षा को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। एक मांग जल्लाद भी हो सकती है या इतना विवश कर सकती है कि शिक्षा खुद उन्हीं से माफी मांगे जो इसके पुरोधा हैं या जिनके कारण शिक्षा का श्रृंगार होता है। कालेज शिक्षा को सांकल लगाता एक आंदोलन प्रदेश के 137 सरकारी महाविद्यालयों की मिट्टी पर खड़ा ऐसा आक्रोश भी है, जो सरकारी नीतियों के द्वंद्व में खुद को कुरुक्षेत्र मान लेता है। कालेज शिक्षकों के लिए यह धर्मयुद्ध हो सकता है, लेकिन वहां सारे ताज और तिलक बिखर कर उसी युवा पीढ़ी को दर्द देंगे जिसके कारण समाज, प्रदेश और राष्ट्र अपने भविष्य की पैरवी कर रहे हैं। जाहिर है आंदोलन का रास्ता इतना आसान नहीं होगा जो यूजीसी स्केल की खातिर, सारे विराम शिक्षा के प्रांगण में पैदा हो जाएं या पढ़ाई का माहौल ठहर जाए। कालेज व विश्वविद्यालय के शिक्षक संगठन अपनी वकालत में इन्हीं विसंगतियों की तरफ इशारा करते हैं। कालेज शिक्षकों की मांगों के औचित्य पर प्रश्र इसलिए भी नहीं उठता, क्योंकि वे करियर में व्यक्तिगत उपलब्धियों के लिए उपयुक्त स्थान चाहते हैं।

यानी एमफिल, पीएचडी तथा इसी तरह की सीढिय़ां चढ़ते हुए दक्षता व निपुणता के हस्ताक्षरों को सरकार की तरफ से सम्मानजनक व तर्कपूर्ण स्थान और पगार चाहिए जो अन्य राज्यों के मुकाबले हिमाचल में योग्यता से फिलवक्त किनारा कर रहा है। टकराव के छोर पर खड़े कालेज व विश्वविद्यालय प्राध्यापकों की वाजिब मांगों से इनकार न करते हुए भी, एक अन्य पक्ष के साथ अन्याय होते हुए देखना भी अन्यायपूर्ण होगा। भूख हड़ताल, क्रमिक हड़ताल या किसी अन्य स्वरूप में की गई हड़ताल अगर छात्रों को उनकी शिक्षा से महरूम कराए या पेपर मूल्यांकन की गति को बाधित करे, तो छात्रों की अदालत में शिक्षकों को निर्दोष साबित होना मुश्किल होगा। कई बार ऐसा भी लगता है कि सरकारी ढांचा अपने विकास को जिस रोजगार से जोड़ता है, वह आगे चलकर चौराहे पर खड़ा हो जाता है। हम गुणवत्ता की बात न करें या यह तर्क न दें कि हिमाचल की कुल आबादी के मुताबिक कितने सरकारी कालेज या विश्वविद्यालय होने चाहिएं, फिर भी यह तर्क तो सामने आएगा कि 137 सरकारी कालेजों को सजाते हुए हमने शिक्षा के गुणवत्ता फलक से बहुत कुछ खारिज कर दिया है।

मात्रात्मक विकास की उपलब्धियां हो सकती हैं, लेकिन जब उपयोगिता की बात आती है, तो ऐसा लगता है कि हिमाचल के सारे संस्थान, विभागीय कौशल व प्रगति का सामान कहीं भीतर से खोखला है। खास तौर पर कर्मचारी राज्य बनते-बनते या सरकारी नौकरी का वादा करते-करते, हिमाचल की सरकारों ने ऐसे असमान कॉडर विकसित कर लिए जो वेतन विसंगतियों के अंकगणित में उलझ कर हमेशा एक चुनौती बन जाते हैं। सरकारी क्षेत्र का मानव संसाधन केवल बराबरी मांग रहा है, तो कहीं सार्वजनिक सेवा कॉडर के गुण दोष का विश्लेषण करना होगा। प्रदेश की जनता के समक्ष सरकार का रुतबा सरकारी कर्मचारी एवं अधिकारियों, शिक्षाविदों, डाक्टरों या चिकित्सा कर्मियों के व्यवहार व उनके द्वारा अख्तियार की गई कार्यसंस्कृति में परिलक्षित होता है। ऐसे में प्रदेश की गुणात्मक तरक्की जब किसी आंदोलन की जिरह में फंस जाती है, तो राज्य बनाम सरकार कहीं न कहीं राजनीतिक शरण में हर चुनाव को विकल्प मान लेती है। कालेज प्राध्यापकों के पक्ष में जितनी सियासत इक_ी होगी, उसका परिणाम भी केवल राजनीतिक ही होगा।


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