चार्वाक के सिद्धांत से मुखातिब सियासत

सुविधा सम्पन्न लोगों को सरकारी योजनाओं का लाभ लेने के लिए खुद को पिछड़ा साबित करना व गरीब बनने की जहनियत से बाहर निकालना होगा। मुल्क के सियासी रहवरों को समझना होगा कि देश की युवा ताकत को लोक लुभावन सियासी वादे, प्रलोभन व मुफ्तखोरी की खैरात नहीं चाहिए…

‘यावज्जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतम् पिवेत, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमन कुतः!’ यह प्रसिद्ध श्लोक नास्तिक शिरोमणि महर्षि ‘चार्वाक’ का है। इसका अर्थ है कि जब तक जियो सुख से जियो, कर्ज लेकर घी पियो, देह के भस्म हो जाने के बाद फिर जन्म कहां होता है। आचार्य चार्वाक के इस सिद्धांत का पालन हमशाया मुल्क पाकिस्तान पूरी शिद्दत से कर रहा है, मगर हमारे देश के राज्यों की सरकारें भी चार्वाक ऋषि के इस सूत्र की ओर मुखातिब हो रही हैं। राज्यों में सरकारें तब्दील होते ही नई हुकूमत को ‘कर्ज’ विरासत में मिलता है यानी देश के लगभग सभी राज्य हजारों करोड़ रुपए के कर्ज में डूबे हैं, मगर चुनावी समर में इक्तदार हासिल करने के लिए तमाम सियासी दल मुफ्तखोरी की सौगातों की घोषणा करने में पीछे नहीं रहते। जबकि मुफ्तखोरी की घोषणाओं का असर सरकारी खजाने पर ही पड़ता है। सियासी दलों द्वारा चुनावों से पूर्व मतदाताओं को मुफ्त के तोहफे व लोकलुभावन वादों पर देश की शीर्ष अदालत केंद्र सरकार व चुनाव आयोग को नोटिस देकर जवाब तलब कर चुकी है। देश के वरिष्ठ नौकरशाह प्रधानमंत्री के साथ मैराथन बैठक में चुनावी सौगातों पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं। मगर देश की सियासत में कुछ वर्ष पूर्व शुरू हुई मुफ्तखोरी की रिवायत पर अब सियासी दलों में प्रतिस्पर्धा बढ़ चुकी है।

 भारत के पड़ोसी मुल्क श्रीलंका में भयंकर आर्थिक संकट इन्हीं मुफ्तखोरी की सौगातों से उपजा है। देश में राजनीतिक, सामाजिक व कॉर्पोरेट क्षेत्र से लेकर खेल व्यवस्थाओं तक सर्वाधिक योगदान युवावर्ग का ही है, मगर वर्तमान समय में देश में चरम पर बेरोजगारी व बेलगाम महंगाई जैसे ज्वलंत मुद्दों के दौर में बेरोजगारी युवावर्ग के लिए सबसे तशवीशनाक मसला बनकर उभरी है। बढ़ती महंगाई से आम उपभोक्ता त्रस्त हो चुका है। हिमाचल प्रदेश देश के उन राज्यों में शुमार करता है जिसकी युवा आबादी का प्रतिशत सबसे अधिक है। प्राकृतिक संसाधनों से लबरेज राज्य की फिजाएं लाखों पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। प्रदेश के धार्मिक स्थल लाखों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र हैं। मगर पर्यटन के अलावा पर्वतीय राज्य में रोजगार के सीमित साधन होने के कारण बेरोजगारी यंग हिमाचल के समक्ष फन फैलाए खड़ी है। राज्य में पंजीकृत बेरोजगार युवाओं का आंकड़ा 8 लाख 73 हजार के पार पहुंच चुका है। रोजगार की तलाश में युवावर्ग राज्य से पलायन को मजबूर है। बेरोजगारी की लगातार बढ़ती समस्या प्रदेश के आर्थिक विकास में भी बाधा बन रही है। यदि बात महंगाई की करें तो राज्य में दो बडे़ सीमेंट उद्योग स्थापित हैं। हिमाचल अपने पड़ोसी राज्यों को भी सीमेंट निर्यात करता है, मगर इसके बावजूद सीमेंट व सरिए के आसमान छू रहे दामों ने गरीबों के आशियाना बनाने के अरमानों पर पानी फेर दिया है। सीमेंट के बढ़ते दामों पर कुछ समय के लिए सूबे की सियासी हरारत जरूर बढ़ती है, मगर धरातल पर नतीजा कुछ नहीं निकलता। ‘नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो’ के अनुसार देश में आत्महत्याओं के बढ़ते आकड़ों के पीछे ज्यादातर बेरोजगारी, नशा व गुरबत के कारण कर्ज का बोझ है। बेरोजगारी से निराशा, अवसाद व तनाव ने नौजवानों के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को भी मुतास्सिर कर दिया है।

बेरोजगारी का आलम यह कि देश के उच्च शिक्षा प्राप्त लाखों योग्य युवाओं की आधी जिंदगी अखबारों व इंटरनेट के विज्ञापनों में नौकरियां ढूंढकर, साइबर कैफे में फीस व फार्म भरते तथा अपनी डिग्रियों की फोटोस्टेट कॉपी कराते निकल जाती है। मात्र कुछ सरकारी पदों के लिए लाखों युवा आवेदन कर देते हैं, लेकिन देश में आरक्षण जैसी व्यवस्था के चलते प्रतिभाओं को काबिलियत के अनुरूप रोजगार नसीब नहीं होता। नतीजतन बेरोजगारी के अजाब से उत्पन्न चिंता व आक्रोश के नकारात्मक प्रभाव से शिक्षित वर्ग के कई युवा डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं। कई क्राइम की दुनिया का रास्ता अख्तियार कर लेते हैं। हालांकि युवाओं को रोजगार मुहैया कराने के लिए केंद्र सरकार ने वर्ष 2015 से ‘प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना’ तथा सन् 2016 से ‘स्टार्टअप’ अभियान भी चलाया है, मगर देश में आबादी के साथ बेरोजगारी व महंगाई भी उसी रफ्तार से बढ़ रही है। ‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी’ की रिपोर्ट के अनुसार बेरोजगारी का आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है। लेकिन हमारे देश की सियासत मुफ्तखोरी व मजहब के इर्द-गिर्द घूम रही है। प्रथम व द्वितीय श्रेणी के अहलकार सस्ते राशन के लिए सरकारी डिपुओं की लाईन में लगे होते हैं। बेरोजगार युवाओं की फौज का हुजूम हाथों में अपनी डिग्रियां पकड़कर ‘रोजगार कार्यालयों’ के बाहर लंबी कतारों में खड़ा होता है। देश में ‘वोकल फॉर लोकल’ का नारा दिया जा रहा है, जबकि देश के अर्थतंत्र की रीढ़ लाखों गौधन आश्रयहीन होकर सड़कों पर अपना भाग्य तराश रहा है। खेत-खलिहान वीरानगी की जद में जाकर बदहाली के आंसू बहाकर अपने अतीत को कोस रहे हैं।

 अपने वोट की ताकत से सियासी रहनुमाओं को जम्हूरियत की बुलंदी पर पहुंचाने वाली लोकतंत्र की प्रबल ताकत देश के किसान, मजदूर व बेरोजगार युवा खुद सड़कों पर आने को मजबूर हैं, मगर बात भारत को ‘विश्व गुरू’ व ‘आर्थिक महाशक्ति’ बनाने की होती है। ‘मेक इन इंडिया’, ‘डिजिटल इंडिया’ व ‘आत्मनिर्भर भारत’ के दावे किए जाते हैं। यदि आजादी के 75 वर्षों बाद देश का शिक्षित युवा वर्ग बेरोजगारी के सैलाब में फंसा है, किसान व मजदूर वर्ग गुरबत से नहीं उबर रहे, तो इस विफलता का दोष जम्हूरियत के नाम पर दशकों से हुक्मरानी कर रहे देश व राज्यों के सियासी नेतृत्व को ही जाता है। बहरहाल इससे पहले कि मुफ्तखोरी की सौगातें अर्थतंत्र का तवाजुन बिगाड़ कर देश को कंगाली की कगार पर ले जाए, ऐसी घोषणाओं पर रोक लगनी चाहिए। सुविधा सम्पन्न लोगों को सरकारी योजनाओं का लाभ लेने के लिए खुद को पिछड़ा साबित करना व गरीब बनने की जहनियत से बाहर निकालना होगा। मुल्क के सियासी रहवरों को समझना होगा कि देश की युवा ताकत को लोक लुभावन सियासी वादे, प्रलोभन व मुफ्तखोरी की खैरात नहीं चाहिए। देश के भविष्य ऊर्जावन युवावेग को आत्मनिर्भर बनाने के लिए रोजगार के साधन तराशने होंगे। बढ़ती महंगाई व बेरोजगारी ही चुनावी मुद्दे बनने चाहिए।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं


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