हमीरपुर के सुप्रसिद्ध दिवंगत साहित्यकार

By: Jun 12th, 2022 12:10 am

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक

डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -18

विमर्श के बिंदु

  1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
  2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
  3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
  4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
  5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
  6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
  7. अतीत के पन्नों में हिमाचल का उल्लेख
  8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
  9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
  10. लालटीन की छत से निर्मल वर्मा की यादें
  11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

वीरेंद्र शर्मा ‘वीर’, मो.-7973307129

साहित्य सृजन के क्षेत्र में हिमाचल का योगदान आदिकाल से रहा है। भले ही इसका स्वरूप कुछ भी रहा हो, चाहे पारंपरिक लोकगीत, सदियों से गाए जाते रहे देवी-देवताओं के भजन, देव वार्ताएं, दादी-नानी द्वारा सुनाई जाने वाली कहानियां हों या प्राचीन काल से लेकर समय-समय पर विभिन्न ऋषि-मुनियों द्वारा पहले भोजपत्र और बाद में कागज में लिखित प्राचीन पांडुलिपियां। सारे सृजन का विशेष महत्त्व है।

हिमाचल प्रदेश के सुविख्यात साहित्यकारों द्वारा रचित साहित्य विश्व साहित्य के परिदृश्य में हिमाचल का गौरव बढ़ाता है। अगर हिमाचल प्रदेश, विशेषकर जिला हमीरपुर की बात की जाए तो क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल, उनके भाई क्रांतिकारी एवं लेखक धर्मपाल, क्रांतिकारी एवं लेखक इंद्रपाल, पूर्व विधायक, प्रकाशक तथा लेखक के रूप में विख्यात रूप सिंह फूल, भगतराम मुसाफिर इत्यादि हमीरपुर जिला के कुछ ऐसे ही महत्त्वपूर्ण नाम हैं जिनका जिक्र किया जाना परम आवश्यक है।

यशपाल 

तत्कालीन जिला कांगड़ा तथा वर्तमान में गांव रंघाड़, डाकघर भूंपल, उससे पहले टिक्कर भरयाइयां, जिला हमीरपुर निवासी हीरालाल के घर श्रीमती प्रेम देवी की कोख से 3 दिसंबर 1903 को जन्मे हिन्दी साहित्य के प्रेमचंदोत्तर युगीन कथाकार पद्मभूषण यशपाल विद्यार्थी जीवन से ही क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ गए थे। यशपाल के लेखन की प्रमुख विधा उपन्यास है, लेकिन अपने लेखन की शुरुआत उन्होंने कहानियों से ही की थी। 1940 से 1976 तक उनके 16 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं। 17 वां संग्रह मृत्युपर्यन्त प्रकाश में आया जिनमें कुल 206 कहानियां संग्रहीत हैं। इनके तीन एकांकी, 10 निबंध संग्रह, 3 संस्मरण पुस्तकें तथा 8 बड़े व 3 लघु उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। सिंहावलोकन भाग 1, 2 एवं 3  नाम से आत्मकथा लिखी।  विप्लव नामक पत्रिका का सम्पादन भी किया।

यशपाल की प्रमुख रचनाएं इस प्रकार हैं : कहानी संग्रह : तर्क का तूफान, भस्मावृत, धर्मयुद्ध, ज्ञानदास, फूलों का कुर्ता, पिंजरे की उड़ान, तुमने क्यों कहा मैं सुंदर हूं, चिंगारी आदि। उपन्यास : दादा कामरेड, देशद्रोही, पार्टी कामरेड, अमिता, मनुष्य के रूप, झूठा सच, बारह घंटे, दिव्या, तेरी मेरी उसकी बात आदि। निबंध संग्रह : चक्कर क्लब, न्याय का संघर्ष, बात बात में व पत्र-पत्रिकाओं में दर्जनों लेख। यात्रा संस्मरण : राह बीती, लोहे की दीवारों के दोनों ओर आदि। कुछ अनुदित रचनाएं भी मिलती हैं जिनमें जनानी, ड्योढ़ी, पक्का कदम जैसे उपन्यास हैं। साहित्य के लिए दिए गए उनके अमूल्य योगदान हेतु इन्हें पद्मभूषण सम्मान से विभूषित किया गया। यशपाल का देहांत 26 दिसंबर 1976 को लखनऊ में हुआ।

धर्मपाल बंटरा

यशपाल के ही छोटे भाई धर्मपाल बंटरा भी क्रांतिकारी होने के साथ-साथ अपने समय के विख्यात लेखक रहे हैं। यह अलग बात है कि इनका लेखन अपने बड़े भाई यशपाल की तरह अच्छी तरह से सामने नहीं आ पाया। हालांकि समय-समय पर इनके लेख समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे। कुछ कविताएं तथा आलेख अभी भी इनके परिजनों के पास अप्रकाशित रूप में सुरक्षित पड़े हुए हैं।

इंद्रपाल

इंद्रपाल का जन्म 5 अप्रैल 1905 को नादौन के वार्ड नंबर तीन में हुआ था। इनके बचपन का नाम मंगतराम था, इन्होंने लाहौर में मंजि़ल-ए-आज़ादी नामक पुस्तक लिखी तथा अधिकारियों के साथ-साथ आम जनमानस में भी बांटी। इसके अतिरिक्त उन्होंने कुछ और छोटी-छोटी पुस्तकें भी प्रकाशित कीं। आज़ादी के उपरांत जब वे अपने गृह नगर नादौन में आए तो समाज सुधार को लेकर एक पुस्तक लिखी।

वे बहुत अच्छे कातिब थे। इनकी कविताएं तथा नज्में भी खूब पसंद की जाती रहीं, हालांकि वर्तमान में इनके द्वारा रचित चंद नज़्मों को छोड़ कर जोकि अप्रकाशित हैं, इसके अतिरिक्त अन्य साहित्य उपलब्ध नहीं होता। जिस प्रकार यशपाल हिंदी में विप्लव निकाल रहे थे, ठीक उसी छत के नीचे इंद्रपाल विप्लव का ही उर्दू समाचार पत्र के रूप में बागी निकाल रहे थे। जेल के दौरान ही इन्हें पक्षाघात हो गया था। महात्मा गांधी की हत्या के बाद उन्हें गहरा सदमा लगा और 13 अप्रैल 1948 को इन महान क्रांतिकारी ने इस संसार को त्याग दिया।

रूप सिंह फूल

रूप सिंह फूल का जन्म हमीरपुर के गांव बजूरी निवासी लोभी राम जी के घर 10 जून 1908 को हुआ। सर्वप्रथम सन् 1939 में इन्होंने डोगरा समाज सुधार नामक पुस्तक लिखी तथा लाहौर से प्रकाशित करवाई। ये पहाड़ी गांधी बाबा कांशी राम से बहुत प्रभावित थे। उनकी मृत्यु के पश्चात सन् 1943 में लाहौर से डोगरा संदेश नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। कुछ समय बाद सदा के लिए लाहौर छोड़कर धर्मशाला आकर प्रकाशन शुरू कर दिया। सन् 1962 तक सफल संचालन तथा प्रकाशन किया। इसके अतिरिक्त इन्होंने पहाड़ी भाषा में बहुत सी काव्य तथा निबंध पुस्तकें लिखीं, जो कि अनुपलब्ध हैं और उनके परिजनों तक को इनके नाम पता नहीं। महा पंजाब तथा उसके बाद जब हिमाचल का गठन हुआ तो वह लगातार विधायक भी रहे। 22 जून 1979 को उनका देहांत हो गया।

हमीरपुर के दिवंगत साहित्यकारों को नमन

-(ऊपरी कॉलम का शेष भाग)

प्रोफेसर नारायण चंद पराशर

पूर्व शिक्षा मंत्री हिमाचल प्रदेश एवं सांसद, भाषाविद् और लेखक प्रोफेसर नारायण चंद पराशर का जन्म 2 जुलाई 1934 के दिन पंजाब के फिरोजपुर में हमीरपुर जिले की नादौन तहसील के सेरा गांव के निवासी नंद लाल और फूलां देवी के घर में हुआ था। हिंदी, अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त चीनी, जापानी और बंगला, जर्मन, इतालवी, स्पेनिश, तेलुगु, तमिल और पंजाबी, हिमाचली भाषाओं का गूढ़ ज्ञान था। एक भाषाविद् के रूप में वह हिमाचली सांस्कृतिक पहचान को मजबूत करने के उद्देश्य से पहाड़ी भाषा का विकास करना चाहते थे। उन्होंने भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में हिमाचली को भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल करने के लिए एक लोकप्रिय आंदोलन का नेतृत्व किया, जो वर्तमान में भी भारत सरकार के विचाराधीन है। प्रोफेसर नारायण चंद्र पराशर अंग्रेजी, हिंदी और पहाड़ी में एक लेखक थे। संसदीय प्रक्रिया, बौद्ध धर्म और देश के पहाड़ी क्षेत्रों की सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं पर एक समान अधिकार से सोचते थे। उन्होंने अपनी मूल पहाड़ी भाषा में बौद्ध ग्रंथों धम्मपद, बोधिचार्यावतार और सधर्मपुंड्रिकसूत्र (लोटस सूत्र) का भी अनुवाद किया। उन्होंने लंबे समय तक हिमधारा नामक पत्रिका का भी सफल संचालन किया। पहाड़ी गांधी बाबा कांशी राम जी का जीवन वृत्त भी लिखा तथा उनके नाम पर सन् 1984 में डाक टिकट जारी करवाने में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। बोधिचार्यावतार के महत्त्वपूर्ण विश्लेषण के लिए उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया था। 21 फरवरी 2001 को दिल का दौरा पड़ने से उनका देहांत हो गया।

बख्शी राम ‘मुसाफिर’

बख्शी राम मुसाफिर का जन्म गांव लड़हा, तहसील गलोड़, जिला हमीरपुर में श्री अच्छर राम व श्रीमती बसंती देवी के घर 27 मार्च 1922 को हुआ। ‘पीड़ां दा पटारू’, ‘लुकदी रुणझुण’, ‘लाल परांदू’ (उर्दू व देवनागरी लिपि में लिखा पहाड़ी उपन्यास), ‘घर कुदाळ’ हिमाचली भाषा च एकांकी संग्रह, ‘एक झूठ और’, ‘अधूरे पन्ने’, ‘चौराहे पर’, ‘रूप’ हिंदी उपन्यास,  ‘जि़ंदगी के मोड़ और मंजिल’ (उर्दू उपन्यास), ‘मेरे गीत मेरे मीत’, ‘दिन-दिहाडि़यां’, हमीरपुर जनपद की लोककथाएं पांडुलिपि रूप में ही रह गईं। 27 दिसंबर 2005 को इनका देहांत हुआ।

भगत राम ‘मुसाफिर’

भगत राम मुसाफिर का जन्म 14 नवंबर 1926 को गांव लगमन्वीं तहसील भोरंज जिला हमीरपुर निवासी श्रीमती बोहरी देवी व गुलाबा राम जी के घर हुआ। हिमाचली पहाड़ी भाषा में लेखन इनका पहला प्रेम रहा। एक गीतकार, कवि तथा कहानीकार के रूप में इन्होंने एक अलग ही मुकाम हासिल किया। आकाशवाणी शिमला ने इनके 106 गीतों को रिकॉर्ड किया। इसके अतिरिक्त ‘मेरा छैळ हिमाचल’, ‘बिखरे मोती’, ‘मेरे सुपणे मेरे गीत’, ‘बणी-ठणी गोरी चल्ली’, ‘शिमले दी माल दिक्खा’, ‘सवारी अंदर ड्रैबर बाहर’, ‘चंदो रे चाळे’, ‘क्या जी’, ‘किछ तेरियां किछ मेरियां’, ‘राजा बाणभट’, ‘अपणी धरती-अपणा देस’, ‘माहणु बणा’, ‘चोर कन्हैया’, ‘गीत पहाड़ां रे’ आदि चौदह काव्य पुस्तकें तथा दो कहानियों की पुस्तकें लिखीं। कुछ साहित्य अप्रकाशित भी रह गया। 9 फरवरी 2004 को भगत राम मुसाफिर जी का देहांत हुआ।

रूप शर्मा ‘निर्दोष’

रूप शर्मा निर्दोष जी का जन्म हंसराज शर्मा एवं गीता शर्मा के घर 2 अप्रैल 1945 को हुआ। एक मंझे हुए मंच संचालक, लेखक तथा हिमाचली पहाड़ी भाषा के प्रशंसक के रूप में विशेष पहचान बनाने वाले रूप शर्मा निर्दोष जी की हास्य/व्यंग्य लेखन पर भी खूब पकड़ थी। इनकी पहाड़ी भाषा में काव्य पुस्तक ‘आस परदेसियां दी’ तथा हिंदी कहानियों की पुस्तक ‘रोने वाले रोते रहे’ प्रकाशित हुईं। इसके अतिरिक्त एकांकी/नाटक संग्रह श्नीच, लाला जी, नौईं राह, सत कीड़े रहे। इन्होंने पहाड़ी शब्दों की डिक्शनरी भी लिखी। कुछ ग़ज़ल, नज़्म आदि भी लिखे तथा सुधार हेतु किसी लेखक को दिए जो कि वापस नहीं मिले। कुछ रचनाएं इनकी डायरियों में अप्रकाशित हैं। अपने हास्य व्यंग्य से दर्शकों को लोटपोट कर देने वाले रूप शर्मा निर्दोष जी का देहांत 28 अगस्त 2011 को हुआ।

विनोद कुमार मेहरा

विनोद कुमार मेहरा का जन्म 5 अप्रैल 1940 को गांव जंगलू तहसील नादौन जिला हमीरपुर में हुआ। बेहद शांत स्वभाव के स्वामी विनोद मेहरा ने श्रम मंत्रालय भारत सरकार में कार्य करते हुए भी साहित्य की बहुत सी विधाओं में लेखन कार्य किया। ‘आत्मचिंतन’ तथा ‘तरंग लहरी’ इनकी दो काव्य पुस्तकें हैं। गीता का सरल सार करते हुए ‘गीता और मानव’ पुस्तक लिखी। आज के मसीहा तथा हमारी शिक्षा प्रणाली इनकी अन्य पुस्तकें हैं। लंबी बीमारी के चलते फरवरी 2022 में दिल्ली में इनका देहांत हो गया।

डीडी गुलज़ार ‘नदौणवी’

देवीदास उर्फ डीडी गुलजा़र का जन्म अवस्थी मोहल्ला नादौन निवासी पंडित दसौंधी राम के घर 30 अप्रैल 1929 को हुआ। शुरुआती पढ़ाई लाहौर में ही हुई, इसलिए उन पर भी क्रांतिकारियों का प्रभाव पड़ा। सर्वप्रथम इंडोनेशिया डे पर उन्होंने नेता जी सुभाष चंद्र बोस पर कविता पढ़ी। ये अनेक क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल भी रहे। तुकबंदी करके कविता लिखना तो स्कूल से ही शुरू कर दिया था, किंतु ग़ज़ल की बारीकियां डॉक्टर शबाब ललित तथा गुलशन नादौणवी से सीखीं। उस समय की लगभग हर पत्र-पत्रिका में इनका साहित्य प्रकाशित हुआ। पहाड़ी, उर्दू, पंजाबी में इन्होंने खूब साहित्य लेखन किया। पुराने समय में हर शादी का एक जरूरी हिस्सा सेहरा और शिक्षा 1000 से अधिक संख्या में लिखीं। घर की जिम्मेदारियों तथा गरीबी के चलते यह अपनी रचनाओं को प्रकाशित नहीं करवा सके। 26 जनवरी 2011 को इनका देहांत हो गया

 -वीरेंद्र शर्मा ‘वीर’

-(शेष भाग अगले अंक में)

अपने वजूद में : गज़ल का वजूद लिए नवनीत

अपने वजूद में गज़ल का वजूद लिए नवनीत शर्मा ‘झील में सोने का सिक्का’ निकाल रहे हैं या अपना सिक्का गज़ल पर आजमा रहे हैं, यह 99 ़गज़लों के ताजातरीन संग्रह के मंथन में हर पाठक का निष्कर्ष होगा, जब शब्दों की गवाही कुछ यूं बयान होगी, ‘खुश्क आंखों के आसपास कहीं- दिल ने इक झील सी बना ली है।’ भारतीय ज्ञानपीठ के प्रकाशन में आए इस ़गज़ल संग्रह में शायर की उलझनें हैं, प्र्रश्न हैं और दिल में चुभते, जो सीने में दुबके हैं। शायरी में बारीक संवेदनाओं को कातते हुए, ‘ऐेसे चिडि़या नज़र उठाती है- बाज़ की आंख सकपकाती है।’ या शायरी के पंख खोलते हुए, ‘दिल के मलबे में ढूंढता था जिसे- वो हुआ है अयां ़गज़ल की तरफ’, नवनीत शर्मा अपनी विशिष्ट शैली, क्राफ्ट, उद्बोधन, प्रयोग और धारा का प्रवाह करते हुए आगे बढ़ जाते हैं। कुल 99 ़गज़लें अपनी बुनावट में काफिलों का शृंगार करती हैं और यहीं कहीं पदचाप है उन सन्नाटों की भी जहां से वर्षों पहले कोई गुज़रा होगा। परिवेश की वर्जनाओं में अति और आनंद के बीच शायरी का मुकाम चुनना किसी शायर का जिंदगी से साक्षात्कार हो सकता है, लेकिन यहां कई पन्ने निगाहों में पलटे भी यूं कि आंसुओं ने इबारत लिख दी, ‘कौनसा बुत है खुदा कौन खुदा है बुत-सा- ये सवालात कभी हल नहीं होने वाले।’ ़गज़ल यहां झरोखों सरीखी है- कभी नाराज़गी चुनती, तो कभी कहीं गहरे में आसन जमाए हुए, ‘अब किसी बांध की है खामोशी- जिस जगह कहकहों का झरना था।’ संग्रह में कुछ बेहतरीन ़गज़लें हर दिल से कुछ कहती हुई उतर जाती हैं।

‘माना ये दीवार जिंदा है अभी’, ‘बहुत मुंहजोर था लहजा हमारा’, काम आसान नहीं खुद का ही कातिल होना, वो तुम थे जिसको तुमने ठहरने नहीं दिया, तब आसां दीदार उसका हो जाता है, माना ये रात उसने बनाई हुई तो है व एक मेेरे ही तो घर जाना आदि रचनाएं स्थायी रूप से अंकित हो जाती हैं। अपनी शायरी को गली-कूचे से भीड़ के बीच, कभी रिश्तों के सूखे टीले पर या फिर सुकून से नतीजा होने तक ले जाने की महारत में, ‘जि़ंदगी के करीब लाता है- तेरी बस्ती में तेरा घर होना।’ ़गज़ल के अपने परिदृश्य और विस्तार क्रम हैं और इस बानगी में, ‘एक मेरे ही तो घर जाना है’ तथा ‘पी जाती है जज़्बों को दानाई भी’ सुबह की नहाई दूब चलती हुई ़गज़लें हैं। ़गज़लों के माध्यम से विषयों की विविधता, दुविधा और भंवर से गुजरते शब्द कुछ यूं कहने लगते हैं, ‘किसी को यह भरोसा भी क्या खुद पर हो नहीं सकता- कि आईना तो हो सकता हूं पत्थर हो नहीं सकता।’ नवनीत शर्मा की ़गज़लों ने अपने शब्दों की सहजता-सरलता, विचारों की शालीनता, लेकिन खुरदरी तहों पर अपने पांवों पर जख्म ढोए हैं, ‘तपती हुई धरती को मेरे छालों ने सींचा- कुछ काम तो आया है चलो बावलापन भी।’                         

-निर्मल असो

गज़ल संग्रह : झील में सोने का सिक्का

गज़लकार : नवनीत शर्मा

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली

मूल्य : 240 रुपए

पुस्तक समीक्षा : एक इतिहास : उम्दा कविता संग्रह

कवि विक्रम गथानिया का कविता संग्रह ‘मैं एक इतिहास हूं’ एक उम्दा रचना है। गथानिया के इस कविता संग्रह में 64 कविताएं संकलित हैं, जिनमें भावों एवं विचारों की विविधता पूरे मनोयोग से गुंफित मिलती है। कवि संवेदनशील प्राणी होता है, उसी के अनुरूप प्रस्तुत संग्रह में अन्याय के प्रति उसका आक्रोश उफान की तरह यत्र-तत्र बिखरा पड़ा है।

किन्हीं स्थलों पर कवि दार्शनिक हो उठता है और वैचारिक घुड़दौड़ में शब्द पीछे छूट जाते हैं, कभी-कभार बराबर सरपट दौड़ने मेें फीके पड़ जाते हैं। ऐसा होने पर भी लेखक की व्यंग्यमयी भृकुटि कविता को विद्रूप होने से बचा लेती है तथा अपनी सार्थकता दर्ज करवाती है। आलोच्य कृति की अनेक कविताओं में गांव पसरा हुआ है।

ऐसी कविताओं में खेत-खलिहानों की बात, ग्रामीणों की सादगी की चर्चा, रिमझिम बारिश आने पर बच्चों द्वारा गाए जाने वाले मेघ गीतों की छाप लेखक की सहज मानसिकता को परिभाषित करती है, साथ ही गांव और शहर के अंतर्विरोधों को भी परिभाषित करती है। संकल्प पब्लिकेशन, बिलासपुर, छत्तीसगढ़ से प्रकाशित इस कविता संग्रह की कीमत 175 रुपए है। ‘जीवन क्या है’ नामक कविता का भाव है कि जीवन कुछ करने का नाम है, अन्यथा इसमें शैतान का राज होता है। शीर्षक कविता ‘एक इतिहास’ का भाव है कि मैं एक इतिहास हूं, जिसे पढ़ नहीं पाता, आज का नया मानव।

इस काव्य संकलन के अलावा गथानिया ने तुम्हारे होने का पता, इस नए वक्त में, मैं उन्हें देखता हूं और एटीएम के अंदर औरत की रचना भी की है। इनका कहानी संकलन है गांव की एक शाम। साथ ही इनके उपन्यास हैं अपहरण व परख। बहरहाल, आशा है कि आलोच्य कविता संग्रह पाठकों को अवश्य पसंद आएगा।

-फीचर डेस्क


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