भारत के मूल दर्शन में प्रकृति संरक्षण

प्रकृति व पर्यावरण की पैरवी करने वाले हिमालय के आंचल में बसे हिमाचल के वनों पर गर्मी के मौसम में सबसे बड़ी गर्दिश आगजनी है। चूंकि चीड़ व आग का चोली-दामन का साथ रहा है। पर्यावरण संरक्षण में वनों के साथ जंगली जानवर भी अहम किरदार निभाते हैं। चीड़ के पेड़ों को रुखसत करें…

प्रकृति व पर्यावरण की सुरक्षा के लिए प्रतिवर्ष वैश्विक स्तर पर कई समारोहों का आयोजन होता है ताकि पर्यावरण संरक्षण के प्रति लोगों में जागृति लाई जा सके। ‘विश्व पर्यावरण दिवस’, ‘विश्व वानिकी दिवस’ व ‘विश्व मौसम दिवस’ का संबंध पर्यावरण संरक्षण से ही है। पर्यावरण संरक्षण की जागरूकता के लिए ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ जैसी संस्था ने दिवस मनाने की शुरुआत कुछ ही वर्ष पूर्व की है। भारत में कानूनी तौर पर सन् 1894 में बर्तानिया हुकूमत ने पर्यावरण सुरक्षा की कवायद शुरू की थी। लेकिन आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण भारतीय मूल दर्शन में प्रकृति व पर्यावरण के संतुलन पर पर्याप्त चिंतन मंथन समाहित है। हमारे मनीषियों ने वेदों व अन्य पौराणिक ग्रंथों में पर्यावरण के महत्त्व को बखूबी दर्शाया है। अनादिकाल से भारतवर्ष के इस पावन भूखंड पर मन को वैराग्य का बोध कराने वाले हमारे ऋषि-मुनियों के वैदिक मंत्रोच्चारण व वेद ऋचाओं के मधुर स्वरों की गूंज, पूजा पंडालों व धार्मिक स्थलों में शंखनाद, घंटियों की मधुर ध्वनि तथा धार्मिक अनुष्ठानों में हवन व यज्ञों के आयोजन का संबंध नाकारात्मक ऊर्जा को हटाकर वातावरण की शुद्धता से ही रहा है। पेड़ पौधों के प्रति आस्था, श्रद्धाभाव तथा प्रकृति पूजन की अनवरत संस्कृति हमें अपने पुरखों से विरासत में मिली है। पर्यावरण संरक्षण में सबसे बड़ा योगदान पेड़ों का ही होता है। धरती पर स्वस्थ जीवन का रक्षा कवच व ऑक्सीजन का निशुल्क भंडार भी पेड़ ही है। दो वर्ष तक कोहराम मचाने वाली कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने ऑक्सीजन की अहमियत का एहसास पूरी शिद्दत से करा दिया है। स्मरण रहे ‘मत्स्य पुराण’ में हमारे ऋषियों ने एक वृक्ष की तुलना सौ पुत्रों के समान की है अर्थात सौ पुत्र इनसान की उतनी खिदमत नहीं करते जितनी एक वृक्ष करता है। आधुनिक विज्ञान तस्दीक कर चुका है कि पीपल का वृक्ष ऑक्सीजन का सबसे बड़ा स्रोत है, मगर हमारे ऋषियों ने बरगद व पीपल जैसे कई पेड़ों को देवतुल्य करार देकर लोगों का इन वृक्षों के साथ वैदिक काल से ही जुड़ाव तय कर दिया था, यानी प्रकृति संरक्षण के प्रति हमारे आचार्यों ने अपना वैज्ञानिक दृष्टिकोण हजारों वर्ष पूर्व स्थापित कर दिया था। ‘सनत मुनि’ के विचारों के अनुसार जीवन में शांति के लिए प्रकृति से जुड़ना जरूरी है।

 हमारे वैदिक साहित्य की रचना भी प्रकृति की गोद में हुई थी। वन हमारे ऋषियों की भक्ति व अनुसंधान का केन्द्र रहे हैं। हमारे देश में आज भी वनवासी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करके प्रकृति संरक्षण में अहम योगदान देने वाली कई जनजातियां मौजूद हैं। मगर विडंबना है कि वर्तमान का शिक्षित समाज पर्यावरण संरक्षण में अपने ऋषियों द्वारा रचित साहित्य में मौजूद ज्ञान से अनभिज्ञ है। मीडिया व शिक्षित वर्ग को पर्यावरण सुरक्षा पर एक भाषण देकर सुर्खियां बटोरने वाली स्वीडिश नागरिक ‘ग्रेटा थुनबर्ग’ ही पर्यावरण सेलीब्रिटी लगती है। पश्चिमी संस्कृति के खुमार में हम भूल जाते हैं कि हमारे हिमाचल प्रदेश के जल, जंगल व जमीन को बचाने में पूरा जीवन जद्दोजहद करने वाली महान पर्यावरणविद ‘किंकरी देवी’ भी हुई। हिमाचल में पर्यावरण की रक्षा का अलख जगाने वाली किंकरी देवी को सन् 1995 में चीन के बीजिंग में आयोजित विश्व महिला सम्मेलन का शुभारंभ करने का सम्मान हासिल हुआ था। सिरमौर जिला से ताल्लुक रखने वाली किंकरी देवी को भारत सरकार ने सन् 1999 में ‘झांसी की रानी लक्ष्मीबाई स्त्री शक्ति’ राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सरफराज किया था। मगर पर्यावरण पर ज्ञान देने वाली ग्रेटा थुनबर्ग को समझना होगा कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से भूमंडल का लगातार बढ़ता तापमान तथा विश्व में करोड़ों लोगों को मौत की नींद सुलाने वाले जहरीले प्रदूषण की सौगात विकसित देशों की देन है। अंग्रेजी झाड़ने वाले यूरोपीय देश व पश्चिमी तहजीब की शिक्षा प्राप्त किया हुआ वर्ग जिसे विकास का नाम देता है, वह वास्तव में प्राकृतिक संसाधनों पर आत्मघाती विनाश साबित हो रहा है। नतीजतन विकास व पर्यावरण परस्पर टकराव का मुद्दा बन चुके हैं। गौर रहे आवाम का स्वस्थ व खुशहाल रहना भी विकास का ही पैमाना है। ग्लोबल वार्मिंग की बढ़ती समस्या से निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर कई इजलास हो चुके हंै जिसमें सन् 1997 में जापान में आयोजित ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ भी शामिल है। कार्बन उत्सर्जन में विश्व के सबसे बडे़ देशों में शुमार अमेरिका का उस क्योटो प्रोटोकॉल में रवैया गैर जिम्मेदाराना ही रहा था।

अतः पश्चिमी व यूरोपीय देशों को प्रकृति संरक्षण का संदेश देने वाली भारत की गौरवशाली संस्कृति तथा प्रकृति हितैषी भारतीय वैदिक साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। हमारे पुरखे पर्यावरण संरक्षण के प्रबल समर्थक व प्रकृति के उपासक थे। भारत में अनादिकाल से आंवला नवमी, छठ पूजा, तुलसी पूजन, हरियाली अमावस्था व बट सावित्री जैसे पर्व व त्योहारों का मनाया जाना तथा विवाह संस्कारों में पीपल जैसे मुकद्दस पेड़ों की परिक्रमा का मकसद प्रकृति के प्रति आदर भाव व आभार व्यक्त करने से रहा है। सनातन संस्कृति में पेड़ पौधों को जल अर्पण करना प्रकृति संरक्षण का सूत्र है। लेकिन देवभूमि के पहाड़ों को माफियाओं से बचाने में जज्बा दिखाकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मान हासिल कर चुकी प्रख्यात पर्यावरणकर्ता किंकरी देवी के हिमाचल में प्रतिवर्ष वन संपदा का दावानल की भेंट चढ़ना तशवीशनाक मसला है। प्रकृति व पर्यावरण की पैरवी करने वाले हिमालय के आंचल में बसे हिमाचल के वनों पर गर्मी के मौसम में सबसे बड़ी गर्दिश आगजनी है। चूंकि चीड़ व आग का चोली-दामन का साथ रहा है। पर्यावरण संरक्षण में वनों के साथ जंगली जानवर भी अहम किरदार निभाते हैं। लिहाजा चीड़ के पेड़ों को जंगलों से रुखसत करके अन्य किस्म के पेड़ों को तरजीह देनी हेगी। दुर्लभ प्रजाति के जंगली परिंदों की हिफाजत तथा वन आवरण बढ़ाने के दावे तभी पुख्ता होंगे। पर्यावरण व वन मंत्रालय की सदारत कर रहे हुक्मरानों तथा संबंधित विभागों के अहलकारों को इस मुद्दे पर गौर फरमाना होगा। प्रकृति का खामोश पैगाम यह है कि प्रकृति संतुलन मांगती है। लाजिमी है कि प्रकृति के साथ जीने के लिए पेड़ों व वनों को आबाद रखा जाए। प्राण रक्षक प्रकृति व पर्यावरण के संरक्षण के लिए महान पर्यावरणकर्ता किंकरी देवी जैसा साहस व जज्बा दिखाने की जरूरत है।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं


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