किपलिंग की कहानियों में शिमला

By: Jun 5th, 2022 12:06 am

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक

डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -17

विमर्श के बिंदु

  1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
  2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
  3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
  4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
  5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
  6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
  7. अतीत के पन्नों में हिमाचल का उल्लेख
  8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
  9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
  10. लालटीन की छत से निर्मल वर्मा की यादें
  11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

डा. कुंवर दिनेश सिंह, मो.-9418626090

जोसेफ रडयार्ड किपलिंग (30 दिसंबर 1865, 18 जनवरी 1936) एक अंग्रेज़ पत्रकार, कवि, कथाकार और उपन्यासकार थे। उनका जन्म भारत में हुआ था और उनका प्रारंभिक लेखन भारत के परिवेश से अत्यधिक प्रेरित और प्रभावित रहा। किपलिंग को मुख्य रूप से उनकी  ‘प्लेन टेल्ज़ फ्राम दि हिल्ज़’ (1888), ‘दि जंगल बुक’ (1894), ‘किम’ (1901) और ‘दि मैन हु वुड बी किंग’ (1888) इत्यादि पुस्तकों के लिए जाना जाता है। 19वीं शताब्दी के अंत में और 20वीं सदी में किपलिंग अंग्रेज़ी के गद्य और पद्य दोनों विधाओं में अति लोकप्रिय लेखकों में से एक थे। 1907 में उन्हें साहित्य में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया और वे अंग्रेज़ी भाषा के पहले लेखक बने जिन्हें यह प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला और वे नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले आज तक के सबसे युवा प्राप्तकर्ता हैं। अन्य सम्मानों में उन्हें ब्रिटिश पोएट लॉरिएटशिप और नाइटहूड की उपाधियां भी प्रदान की गई थीं, लेकिन इन सभी उपाधियों को ग्रहण करने से उन्होंने मना कर दिया था।

किपलिंग को अंग्रेज़ी में लघु कहानी की कला में एक प्रमुख अन्वेषक माना जाता है। विशेषतः उनकी बच्चों के लिए लिखी किताबें बाल साहित्य की कालजयी कृतियां हैं और उनकी बहुमुखी और दैदीप्यमान प्रतिभा को प्रदर्शित करती हैं। रडयार्ड किपलिंग का जन्म 30 दिसंबर 1865 को भारत के बंबई शहर में ऐलिस किपलिंग और जॉन लॉकवुड किपलिंग के यहां जोसेफ रडयार्ड किपलिंग के रूप में हुआ था जो उस समय ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा था। ऐलिस किपलिंग एक कर्मठ महिला थीं। लॉकवुड किपलिंग एक मूर्तिकार और मिट्टी के बर्तनों के डिज़ाइनर थे जो बंबई में स्थापित सर जेजे इंस्टीट्यूट ऑफ एप्लाइड आर्ट में स्थापत्य मूर्तिकला के प्राचार्य और प्रोफेसर थे। यह दम्पति भारत आने से दो साल पहले इंग्लैंड के स्टेफोर्डशायर की रडयार्ड झील के तट पर प्रणय संबंध में बंधे थे और उस झील की सुंदरता से इतना मोहित हुए थे कि उन्होंने अपने पहले जन्मे बच्चे का नाम उस झील के नाम पर ‘रडयार्ड’ रखा। जिस घर में रडयार्ड किपलिंग का जन्म हुआ था, वह अब भी मुंबई में सर जेजे स्कूल ऑफ एप्लाइड आर्ट के परिसर में स्थित है और जिसका इस्तेमाल कई वर्षों के लिए डीन के निवास के रूप में किया गया था। हालांकि कुटीर पर अंकित है कि यही वह जगह है जहां किपलिंग का जन्म हुआ, लेकिन मुंबई के इतिहासकार फोय निसेन बताते हैं कि मूल कुटीर को ध्वस्त कर दिया गया था और उसकी जगह एक नई कुटीर का निर्माण किया गया है जो कई दिनों से खाली है। नवंबर 2007 में यह घोषणा की गई थी कि मुंबई के जेजे स्कूल ऑफ एप्लाइड आर्ट में लेखक किपलिंग के अभूतपूर्व योगदान के लिए स्कूल परिसर में स्थित उनके घर को एक संग्रहालय में परिवर्तित किया जाएगा। स्कूल में उनकी पढ़ाई पूर्ण होने के तुरंत बाद अपने पिता की अनुशंसा पर किपलिंग ने लाहौर के एक स्थानीय समाचार पत्र ‘दि सिविल एंड मिलिटरी गैज़ेट’ के रिपोर्टर और सहायक संपादक के रूप में कार्य किया।

इस गैज़ेट के संपादक स्टीफन व्हीलर ने किपलिंग से अत्यधिक श्रम करवाया और इस दौरान उनकी लिखने की क्षमता काफी बढ़ गई थी। सन् 1882 से 1889 के दौरान जब वे गैज़ेट के लिए रिपोर्टर के रूप में कार्य कर रहे थे, किपलिंग शिमला में आकर लगभग पांच वर्ष तक रहे। उन्हें शिमला में रहना बहुत सुखद लगता था। शिमला में उनका निवास था नॉर्थबैंक, जो वर्तमान में काली बाड़ी मंदिर के पीछे फिंगास्क एस्टेट के पास स्थित है। शिमला में रहते हुए किपलिंग ने यहां के जनजीवन को बहुत करीब से देखा और उनके विषय में लिखा। कविता, कहानी, उपन्यास और लेखों के माध्यम से उन्होंने शिमला का विशेष रूप से चित्रण किया है। 1886 में उन्होंने ‘डिपार्टमेंटल डिटीज़ एंड अदर वर्सेज़’ नामक अपनी कविताओं के पहले संग्रह का प्रकाशन करवाया था जिसमें उन्होंने शिमला में रहते हुए अपने अनुभवों को संजोया। उसी वर्ष अख़बार के नए संपादक के. रॉबिन्सन ने किपलिंग को और अधिक रचनात्मक स्वतंत्रता की अनुमति दी और अख़बार के लिए लघु कहानियां लिखने के लिए कहा। कहानी विधा में रडयार्ड किपलिंग की कृतियों में उनकी प्रथम एवं बहुचर्चित पुस्तक ‘प्लेन टेल्ज़ फ्राम दि हिल्ज़’ उनकी 45 लघु कथाओं का संग्रह है जो सन् 1888 में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ था। अपनी युवावस्था में लिखी इस संग्रह की कहानियों को किपलिंग ने नवंबर 1886 से जून 1887 के बीच ‘दि सिविल एंड मिलिटरी गैज़ेट’ के कई अंकों में छपवाया और फिर संग्रह रूप में प्रकाशित करवाया जब वे केवल 23 वर्ष के थे। इस कहानी संग्रह का दूसरा संस्करण 1890 में लंदन से प्रकाशित हुआ और इसी वर्ष यह कृति ‘बेस्टसेलर’ यानी सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तक बन गई थी। इन कहानियों में शिमला नगर के स्थानीय लोगों की जीवनशैली, यहां रह रहे अंग्रेज़ों और उनके तौर-तरीकों के साथ-साथ पहाड़ों के मौसम व प्राकृतिक सौंदर्य और पहाड़ी गांवों के जनजीवन के कई दृश्य मिलते हैं। शिमला के अतिरिक्त सोलन, सुबाथू, नालदेहरा, मशोबरा, कोटगढ़, नारकंडा इत्यादि स्थानों और  वहां के लोगों का उल्लेख भी ख़ूब दिलचस्प ढंग से किया गया है। हालांकि इस संग्रह की सभी कहानियां शिमला पर आधारित अथवा संदर्भित नहीं हैं, लेकिन ब्रिटिशकालीन भारत के जनजीवन एवं पूर्वी और पाश्चात्य जीवनशैलियों के विविध चित्र प्रस्तुत करती हैं तथा शिमला में अंग्रेज़ों के विविध क्रियाकलापों, उनकी ऐशपरस्ती और उनके प्रेम प्रसंगों का उल्लेख भी बड़े रोचक ढंग से करती हैं।

शिमला के इर्द-गिर्द घूमती कहानियां

-(ऊपरी कॉलम का शेष भाग)

लघु कहानी ‘लिस्पेथ’ पहली बार 29 नवंबर 1886 को दि सिविल एंड  मिलिटरी गैज़ेट में प्रकाशित हुई थी। पुस्तक के रूप में इसकी पहली उपस्थिति 1888 में ‘प्लेन टेल्स फ्राम द हिल्स’ के पहले भारतीय संस्करण में थी, और बाद में यह उस संग्रह के बाद के संस्करणों में दिखाई दी। यह कहानी पूर्व और पश्चिम की सांस्कृतिक भिन्नता के प्रति किपलिंग के दृष्टिकोण का एक दिलचस्प उदाहरण है। यह कहानी पराधीन भारत में ब्रिटिश सरकार की ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला से सड़क मार्ग से लगभग 55 मील की दूरी पर स्थित कोटगढ़ गांव की पृष्ठभूमि पर आधारित है। कहानी में शिमला के पहाड़ों के मूल निवासियों को ईमानदार, सरल और प्रशंसायोग्य दिखाया गया है, और ईसाइयों को पाखंडी और झूठा बताया गया है। लेखक ने ईसाइयों की श्रेष्ठता की कलई बख़ूबी उतारी है।

किपलिंग यह भी संकेत देते हैं कि उन्होंने यह कहानी ख़ुद लिस्पेथ से सुनी है, जो जब कभी नशे में चूर होती थी, तो अपने पहले प्रेम-संबंध की कहानी की सच्चाई कहने लगती थी। इस कहानी को पढ़कर यह प्रश्न उठना तर्कसंगत है कि आखि़र ईसाई मिशनरियों ने उस लड़की के जीवन में क्या अच्छा किया, क्या परिणति ला दी? इसके विपरीत मिशनरियों की स्वयं की पोल खुली है। कहानी का नैतिक संदेश यह है कि भारत में लड़कियां, वे चाहे किसी भी धर्म की हों, शिक्षित हों या अशिक्षित, अमीर हो या ग़रीब, प्रेम और शादी के प्रति अपने दृष्टिकोण में विनम्रता और लज्जा के भावों से युक्त होती हैं, और शायद ही कभी ऐसा स्वच्छन्द व्यवहार करें जैसा कि किपलिंग ने अपनी कहानी में दर्शाया है। निःसंदेह लिस्पेथ एक सशक्त प्रतीक बन पड़ी है, पहाड़ के लोगों की जो बहुत कोमल, सरलहृदय, सीधे और सच्चे-पक्के लोग हैं और जिन्हें साम्राज्यवादी शक्ति तथा धार्मिक उपदेश भी बदल नहीं सकते हैं। किपलिंग ने अपनी कहानियों में स्त्रियों का चरित्र चित्रण बहुत बारीकी के साथ किया है। स्त्रियां चाहे किसी भी धर्म, जाति अथवा समुदाय से संबंध रखती हों, प्रणय के प्रसंग में बहुत भावुक, कोमल और रहस्यमयी होती हैं। किपलिंग ने स्त्रीमन की गहनता को यथावत उकेरा है।

‘लिस्पेथ’ जहां शिमला की एक भोली-भाली पहाड़ी लड़की की दुःखांतक कहानी है, वहीं एक अन्य कहानी है ‘क्यूपिड्ज़ ऐरोज़’, जिसमें एक अंग्रेज़ी लड़की के प्रणयबद्ध हो जाने का मार्मिक वृत्तांत मिलता है। इस कहानी की प्रमुख पात्र एक बहुत ही सुंदर अंग्रेज़ लड़की, मिस किट्टी बेयटन है, जो एक ग़रीब लेकिन ईमानदार जि़ला और सत्र न्यायाधीश की बेटी है। उसकी मां उसके भविष्य के बारे में बहुत चिंतित है। एक पात्र है बर-सागॉट, जो उच्च दर्जे का एक अमीर आदमी है, शिमला नगर निगम का आयुक्त है, लेकिन देखने में भद्दा और बदसूरत है। कमिश्नर बर्र-सगॉट तीरंदाज़ी में महिलाओं की प्रतिस्पर्धा में एक शानदार पुरस्कार प्रदान करने की घोषणा करता है। जीतने वाली महिला के लिए वह पुरस्कार में हीरों जड़ा एक ब्रेसलेट देने की बात कहता है। और सभी यह बात जानते थे कि यह ब्रेसलेट उसकी ओर से मिस बेयटन के लिए ही एक उपहार है, क्योंकि सब महिला प्रतियोगियों में वही एक बेहतरीन निशानेबाज़ थी। लेकिन किटी बेयटन तो मन ही मन कब्बन नाम के एक युवक से प्रेम करती है। कब्बन घुड़सवार सेना रेजिमेंट में एक कनिष्ठ अधिकारी है। मिस बेयटन ने सबसे आखि़र में शूटिंग की।

उसका पहला ही शॉट ठीक निशाने पर, बुल्ज़ आई पर लगा और बर्र-सगॉट मुस्कुराने लगता है। किट्टी ने उसकी भद्दी मुस्कान को देखा। उसने अपने बाएं मोर्चे को देखा, कब्बन को कुछ इशारा किया, और बड़े कौशल के साथ शूटिंग जारी रखी, लेकिन जान-बूझकर ज़्यादा स्कोर हासिल नहीं किया। और एक बदसूरत-सी दिखने वाली नाटी लड़की स्पर्धा के पुरस्कार की विजेता बन जाती है। और मिस किट्टी बेयटन अपनी मम्मा के साथ जाने के बजाय युवक-प्रेमी कब्बन के साथ वहां से निकल जाती है। यह कहानी बड़ी कुशलता के साथ यह दर्शाती है कि एक स्त्री प्रेम के लिए किस प्रकार सामाजिक पद-प्रतिष्ठा एवं धन-दौलत के प्रलोभन का परित्याग तो करती ही है, साथ में अपने अहं को भी विस्मृत कर देती है तथा प्रेम को सर्वोपरि रखकर प्रेमी का साथ चुनती है। इस कहानी में शिमला नगर में स्थित अनाडेल मैदान का उल्लेख हुआ है जहां ब्रिटिश राज के समय कई क्रीड़ाओं, प्रतिस्पर्धाओं और मेलों का आयोजन किया जाता था। इसी प्रकार शिमला की पृष्ठभूमि पर आधारित एक अन्य कहानी है ‘दि अदर मैन’। यह कहानी सबसे पहले ‘दि सिविल एंड मिलिटरी गैज़ेट’ के 13 नवंबर 1886 के अंक में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी में प्रमुख स्त्री पात्र है मिस गौरी, जिसे उसके माता-पिता ने  कर्नल श्रेडरलिंग से शादी करने के लिए मजबूर कर दिया था जो आयु में उससे काफी बड़ा था और फेफड़ों के रोग से ग्रसित था। लेकिन मिस गौरी तो किसी दूसरे आदमी (अन्य पुरुष) से प्रेम करती थी जिसका स्थानांतरण शिमला से दूर एक ऐसे स्थान पर हो जाता है जो उसके स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त नहीं है। उसका स्वास्थ्य भी ख़राब रहता है, विशेषकर बुख़ार और हृदय के रोग से पीडि़त है। अब वह श्रीमती श्रेडरलिंग हो गई है, और वह भी किसी न किसी संक्रमण की शिकार बनी रहती है। श्रेडरलिंग को अब वह बदसूरत लगने लगती है। एक दिन वह अपनी रेजिमेंट में वापस लौटने के लिए श्रीमती श्रेडरलिंग को शिमला में ही छोड़ कर चल देता है। कथाकार को संकेत मिलता है कि वह ‘दूसरा आदमी’ बहुत बीमार होने के कारण शिमला आ रहा है। श्रीमती श्रेडरलिंग मॉल में शाम के समय उनका इंतज़ार कर रही हैं क्योंकि उसका टांगा आ रहा है और फिर अचानक उसे देखकर वह चिल्लाने लगती हैं। लंबी यात्रा की वजह से वह दूसरा आदमी मार्ग में दम तोड़ देता है। दो वर्षों के बाद श्रीमती श्रेडरलिंग की भी मृत्यु हो जाती है। यह कहानी भी प्रेम की पराकाष्ठा को बताती है, लेकिन इसका अंत बहुत दुःखद है। किंतु एक बात स्पष्ट की गई है कि स्त्री के लिए प्रेम ही उसका अस्तित्व होता है, वह प्रेम के लिए ही जीती है और प्रेम के लिए मर भी जाती है। इस कहानी में भी तात्कालिक शिमला के मॉल रोड और अन्य स्थलों का उल्लेख बार-बार हुआ है, जो वर्तमान पाठक को शहर की धरोहर से अनायास ही जोड़ता है।

-डा. कुंवर दिनेश सिंह

‘हाशिए वाली जगह’ से ऊपर उठते कवि

‘हाशिए वाली जगह’ संग्रह में भविष्य के कुछ संघर्ष चित्रित हो रहे हैं, तो खुद कविता अपने हाशियों के बाहर उन्मुक्त भाव लिए विचरण कर रही है। कुछ नए बिंदु और बिंब उभर कर सामने आ रहे हैं, तो कुछ भ्रम तोड़ती कविताएं निश्छल उड़ान भरती हुईं, संपादक गणेश गनी की मुंडेर पर आकर दाना चुग रही हैं। हिमाचल के 38 युवा कवियों को सभी जिलों से लाकर गणेश गनी, प्रदेश की काव्यात्मकता का प्रवाह दिखाना चाहते हैं, इसलिए वह कहते हैं, ‘कविताएं जानती हैं- कि वो अधूरी हैं, इसलिए हमेशा हाशिएवाली जगह- इंतजार में रहती हैं! किसी नए कवि के जन्म के बार- सोचते हुए!!’ दरअसल ‘हाशिए वाली जगह’ संग्रह अपने भीतर भविष्य के कवि और कविता की ऐसी तफतीश है, जहां मनोभाव, हर उतार-चढ़ाव, परिवेश की गांठें, संस्कृति की ऊर्जा, पहाड़ी जीवन की वर्जनाएं, विसंगतियां, उमंगें, प्रकृति की कृतियां और रिश्तों की नई भाषाएं मुखातिब हैं। राजेश सारस्वत ‘जब चढ़ रहे थे- पहाड़! रुकने का नाम नहीं था!! स्वेद उनके माथे पर नहीं था- जो चढ़ रहे थे पहाड़, विकास का!!!’ या रेखा गक्खड़ रश्मि, ‘सुनो! मैं उड़ना चाहती हूं- जैसे उड़ती है चिडि़या!! मैं बहना चाहती हूं जैसे बहती है नदी!!! खो जाना चाहती हूं- जैसे आसमान में दूर उड़ता परिंदा, खो जाता है आसमान में ही!!!!’, परिवेश को अलंकृत करते हैं। संग्रह में ताजगी इसकी प्रस्तुति के अलावा युवाओं के मन-मस्तिष्क के चिंतन से उपजे प्रश्नों के गंुबद हैं और जहां अंशमन कुठियाला, पारस चौहान और मुकेश कुमार की कविताएं समवेत हैं। पारस जैसा युवा मन ही पूछ सकता है, ‘मेरे आंसु भी भर लोगे क्या? मेरी रातें अब तक तन्हा हैं- उन रातों को भर दोगे क्या?’ दिव्यांगना चौहान के भीतर की क्रांति पूछती है, ‘आंगन में बिछी हरी पत्तियो! उस पंछी का पता बता दो, जो अंबर से आशा लाकर- तुम्हारे परों पर रंग देता था।’ पूर्वा शर्मा की कविता जब अपनी गहराई से बात करती है, ‘हर हर्फ की गुफ्तगू से- सिले हुए लफ्जों- के दरम्यान जो खामोशी है, कहती है बहुत कुछ- करती है पन्ने पुराने।’ या कैलाश गौतम की आशावादी कविताएं अपने भीतर, ‘नित हठधर्मिता से हो क्षुब्ध- और, स्वाभिमान ज्वालामुखी हो! ठीक उसी क्षण, गीता हो जाना’ जैसे अर्थ खोज लाती हैं। इंदु भारद्वाज की कविताओं के भीतर का नारी विमर्श ठाठें मारता है तब, ‘भीतर नमी बचाए रखने की कोशिश में- वे ओढ़ लेती हैं, पेड़ों की छालों का खुरदरापना। समंदर को दबा देती हैं- बर्फ की तहों के नीचे!!’, जैसा संवाद सृष्टि से होता है। इस संग्रह की शर्तें कुछ कवि-कवयित्रियों को अवसर ही नहीं देतीं, बल्कि कविता का कैनवास विस्तृत करते हुए रचना प्रक्रिया, प्रारूप, भाषायी अनुराग व सृजन संस्कृति को भी नए आयाम तक ले जाती हैं। हिमाचल से कविता की अनुगूंज का संग्रह करते हुए यह प्रकाशन बलवंत नीब, राजेश सारस्वत, प्रत्यूष शर्मा, दिव्यांगना चौहान, पूर्वा शर्मा, शिवा पंचकरण, कमलेश वर्मा, कार्तिक शर्मा, शुभम नेगी व दिलीप वशिष्ठ इत्यादि नामों को नई संभावनाओं के अक्स में परोसता है। ये कवि जीवन के संघर्ष को माप रहे हैं, संवेदना के मर्म में गोता खा रहे हैं। एक ऐसा कवि समुदाय इस संग्रह के मार्फत पनप रहा है जो कहीं डूब कर लिख रहा है। यहां युवा बह रहे हैं, तो कविता मानो अपनी ही किश्ती पर सवार नए साहिल से दोस्ती करती हुई, एक नया मंच खड़ा कर देती है।

यह युवा कवियों के प्रश्रय का मंच है। यह सरकारी फांस से हटकर सामाजिक उत्प्रेरणा का मंच है। निष्पक्ष, निर्लिप्त और उम्मीदों भरे संग्रह का संपादन करके गणेश गनी खुद कविता की जड़ों की सिंचाई कर रहे हैं। कुल्लू के हिमतरु प्रकाशन को यह साधुवाद दिया जा सकता है कि उसने कई नन्हीं कलमों को मुख्यधारा से जोड़ा है।

-निर्मल असो

कविता संग्रह : हाशिये वाली जगह

संपादक : गणेश गनी

प्रकाशक : हिमतरु प्रकाशन, कुल्लू

मूल्य : 250 रुपए

पुस्तक समीक्षा  : समुद्र के जरिए स्त्री का गौरव गान

इंडियन इकोनोमिक सर्विस के वरिष्ठ अधिकारी पूर्णचंद्र बोध का पहला काव्य संग्रह ‘एक और प्रशांत’ प्रकाशित हुआ है। इसमें 119 पृष्ठों पर 51 लघु कविताएं संकलित हैं। कविताओं को तीन भागों, नामतः अभिव्यक्ति, विरक्ति तथा प्रकृति में बांटा गया है। प्रकाशक शिल्पायन, दिल्ली से प्रकाशित यह काव्य संग्रह 300 रुपए मूल्य का है। एक और प्रशांत पूर्णचंद बोध के जीवन की उन महत्त्वपूर्ण यात्राओं, अनुभवों तथा व्यक्तिगत जीवन के असंख्य जीवंत दृश्यों का संग्रह है। उन्होंने जीवन के हर पहलू को बहुत नजदीक से देखा है, पहाड़ को जिया है, समझा है।

इस संग्रह की हर कविता पाठक के दिल को छूकर गुजरती है और सोचने को मजबूर करती है, चाहे वह प्रकृति के बारे में हो, समाज के बारे में हो या आपसी रिश्तों पर हो। कविताओं में विविध भावों की अभिव्यक्ति हुई है। लेखक ने अंग्रेजी में भी कविताएं तथा अन्य विधाएं लिखी हैं। शीर्षक कविता ‘एक और प्रशांत’ में कवि समुद्र को संबोधित करते हुए कहता है कि इस दुनिया में एक और प्रशांत भी है। यहां कवि ने स्त्री की तुलना समुद्र से की है। जैसा विशाल समुद्र है, जितना ज्वारभाटा वह समेटे है, ऐसी ही विशालता हर घर में मौजूद स्त्री के मन की भी है। समुद्र से महिला की तुलना उसके गौरव को दर्शाती है। कल्पना के जरिए महिला का सामाजिक महत्त्व बताया गया है। आशा है पाठकों को यह काव्य संग्रह पसंद आएगा। -फीचर डेस्क


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