जिला ऊना के दिवंगत साहित्यकार

By: Jul 31st, 2022 12:08 am

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक, डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -25

विमर्श के बिंदु
1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

वीरेंद्र शर्मा ‘वीर’, मो.-7973307129

साहित्य की विभिन्न विधाओं में अपने लेखन के दम पर हिमाचल प्रदेश के अनेक साहित्यकारों ने समय-समय पर लगातार राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक पटल पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है, फिर चाहे वह हिमाचली पहाड़ी भाषा के आदि कवि एवं महान क्रांतिकारी पहाड़ी गांधी बाबा कांशीराम हों या हिंदी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी हों। क्रांतिकारी एवं साहित्यकार पद्मभूषण यशपाल, बाल साहित्यकार पंडित संतराम वत्स्य, डा. मनोहर लाल, पद्मभूषण निर्मल वर्मा, पद्मभूषण विपिन चंद्रा, महाकवि ब्रजराज, गणेश बेदी, हिमाचल निर्माता डा. यशवंत सिंह परमार, हिमाचल प्रदेश के पहले लोक संस्कृति मंत्री, विख्यात नर्तक कलाकार, गज़़लकार एवं साहित्यकार लालचंद प्रार्थी चांद कुल्लुवी, प्रोफेसर नारायण चंद पराशर, महाकवि संसार चंद प्रभाकर, डा. पीयूष गुलेरी आदि-आदि रचनाकारों ने अपनी कलम से धाक जमाई है। इन सबके द्वारा चलाई गई समृद्ध साहित्यिक परंपरा के पथ पर शांता कुमार, डा. सुशील कुमार फुल्ल, डा. गौतम व्यथित, एसआर हरनोट, डॉक्टर नलिनी विभाग नाजली, द्विजेन्द्र द्विज आदि अनेकानेक साहित्यकार आज भी साहित्यिक सरिता के रूप में अनवरत प्रवाहमान हैं। वर्तमान ऊना जिला 1 नवंबर 1966 से पूर्व पंजाब के होशियारपुर जिला की एक तहसील थी। पंजाब के पुनर्गठन के परिणामस्वरूप, समस्त पहाड़ी क्षेत्रों, जिसमें ऊना तहसील भी शामिल थी, को हिमाचल प्रदेश में स्थानांतरित किया गया। 1 सितंबर 1972 तक यह कांगड़ा जिला की एक तहसील रही।

1 सितंबर 1972 को हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के पुनर्गठन के बाद तीन जिले ऊना, हमीरपुर व कांगड़ा अस्तित्व में आए। जिला ऊना के निवासियों ने जहां एक ओर देश की आजादी से पूर्व आजादी की जंग में अविस्मरणीय योगदान दिया है, वहीं आजादी के बाद और विशेषकर ऊना जिला के गठन के बाद व्यापार, शिक्षा, चिकित्सा, खेल, साहित्य आदि सभी क्षेत्रों में उत्कृष्ट योगदान देते हुए विशिष्ट स्थान पाया है। अगर ऊना जिला के साहित्य एवं साहित्यकारों की बात की जाए तो यहां गद्य, पद्य तथा आलेख, संपादन तथा शोध लेखन करने वाले बहुत से लेखक हुए हैं और इन सबमें सबसे पहला जो नाम हम सबके सामने उभर कर सामने आता है, वह है महान क्रांतिकारी, संपादक एवं लेखक ऋषिकेश ल_। ऋषिकेश ल2 जनवरी 1891 को ऊना जिला से धुसाड़ा निवासी शिवदत्त दित्ताराम तथा रुकमणी देवी के घर इनका जन्म हुआ। अभी छोटी कक्षा में ही थे कि अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचारों का इनके मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा। इन्होंने बाल्यकाल में ही अंग्रेजों के खिलाफ आलेख लिखना शुरू कर दिए।

शुरुआती पढ़ाई गांव के स्कूल में ही हुई और बाद में यह उच्च शिक्षा के लिए लाहौर चले गए। यहां इनकी मुलाकात सरदार अजीत सिंह, परमानंद, लाला हरदयाल, अंबा प्रसाद, लाल चंद फलक, एमए सूफी आदि से हुई। इन सभी की संगत में आकर ऋषिकेश ने आजादी की जंग में संघर्ष करने के साथ-साथ बड़े ही कड़े शब्दों में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लिखना शुरू कर दिया। इससे नाराज अंग्रेजी हुकूमत ने शुरू-शुरू में तो चेतावनी देकर छोड़ दिया, किंतु जब इन्होंने अंग्रेजों के अत्याचारों के खिलाफ लिखना नहीं छोड़ा तो फलस्वरूप छोटी सी उम्र में ही इन्हें देश निकाला दे दिया गया और इस प्रकार सरदार अजीत सिंह की मदद से वह 45 दिन यात्रा कर ईरान पहुंचे। यहां रहते हुए भी इन्होंने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ बहुत लिखा और ईरान में रहते हुए परवाना नामक समाचार पत्र का संपादन भी किया। कैलिफोर्निया के सैन फ्रांसिस्को जाकर इन्होंने गदर पार्टी मुख्यालय में युगांतर प्रेस की स्थापना की। भारतीय समुदाय को गुलामी की जंजीरें तोडऩे हेतु अपना तथा अपने साथियों द्वारा रचित क्रांतिकारी साहित्य डाक विभाग तथा विभिन्न माध्यमों से समाचार पत्र लगातार भारत में अपने भाई लक्ष्मी प्रसाद ल_ तक भेजते रहे। हालांकि आलेख, ओजस्वी कविताएं आदि उन्होंने खूब लिखे तो बहुत, परंतु अभी उपलब्ध नहीं होता। 24 वर्ष देश निकाला झेलने के बाद 3 फरवरी 1930 को तेहरान में ही इनका देहांत हो गया, जहां उनकी समाधि भी बनाई गई है।
बलदेव मित्र बिजली
बलदेव मित्र बिजली का जन्म 26 जनवरी 1902 को जम्मू-कश्मीर राज्य के बारामूला में माता राम रखी की कोख से वन विभाग में उच्च पदस्थ अधिकारी पंडित राम रत्न लखनपाल के घर हुआ। जहां तक जानकारी प्राप्त होती है, आप छठी और सातवीं कक्षा के विद्यार्थियों के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। सन् 1929 में ऐतिहासिक असेंबली बम कांड के बाद पंजाब स्थित क्रांतिकारी दल की ओर से बलदेव मित्र को एक साप्ताहिक पत्र निकालने का कार्य दिया गया जिसे उन्होंने ‘कडक़’ नाम से प्रकाशित किया। इनकी लेखनी में महात्मा गांधी की अहिंसावादी तथा क्रांतिकारी दो विपरीत विचारधाराओं का अद्भुत संगम था। यह आपकी आग उगलती लेखनी का ही कमाल था कि अंग्रेज सरकार इस आग को ठंडा करने के लिए बलदेव मित्र बिजली को जेल में डाल देती। उस समय का शायद ही कोई समाचार पत्र हो जिसके लिए इन्होंने आलेख, कविता, नज़्म आदि न लिखा हो। इसके अतिरिक्त दिल्ली से हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में प्रकाशित होने वाले बोल्शेविक अखबार का संपादन भी किया। देश की आजादी की लड़ाई के लिए अपने जीवन के 18 स्वर्णिम वर्ष इन्होंने जेल में काटे और ज्ञानी जैल सिंह, यशपाल, इंद्रपाल, धर्मपाल, भगवती चरण वोहरा जैसे क्रांतिकारी इनके परम मित्र रहे। आजादी के बाद भी जालंधर से राही नामक मासिक पत्रिका का लगातार संपादन एवं प्रकाशन करते रहे। देशभक्ति से ओतप्रोत इनके गीत, कविताएं किसी भी व्यक्ति में जोश भरने का दमखम रखतीं। बलदेव मित्र बिजली ने अपने जीवन में लिखा तो बहुत, मुशायरों की भी वे जान रहे, किंतु यह सब पुस्तक आकार नहीं ले सका। उर्दू, अरबी, फारसी मिश्रित भाषा लिपि में इनका कुछ साहित्य अभी भी अप्रकाशित है। इनका परिवार मूलत: पंजाब के टांडा उरमर से संबंधित था, किंतु बाद में ऊना में आकर बस में गया था। 4 सितंबर 1987 को मां भारती का यह लाल उसी की गोद में सदा-सदा के लिए गहन निद्रा में सो गया।

ऊना के दिवंगत साहित्यकारों को नमन

-(ऊपरी कॉलम का शेष भाग)
हरिचंद पराशर
जिला कांगड़ा के मूलत: बड्डळठोर गांव के निवासी जोकि बाद में माता चिंतपूर्णी के श्री चरणों में अवस्थित जिला ऊना के गांव धर्मशाला महंता जाकर बस गए तथा तत्कालीन हिंदोस्तान की बलोच रेजिमेंट में बतौर हवलदार रहे पंडित खुशी राम के घर रुहांसो देवी की कोख से 6 लडक़ों और 4 लड़कियों में मंझले बेटे के रूप में हरिचंद का जन्म 7 मार्च 1927 के शुभ दिन हुआ। परिवार की माली हालत पहले से ठीक नहीं थी। इसलिए विलक्षण प्रतिभा होने के तथा दसवीं कक्षा में जिला होशियारपुर में प्रथम स्थान प्राप्त करने के बावजूद हरिचंद उच्च शिक्षा प्राप्त न कर सके। घर की माली हालत सुधारने हेतु उन्हें लाहौर जाकर प्राइवेट नौकरी करनी पड़ी। आजादी के बाद सन 1948 में पंजाब सरकार के भाषा विभाग पटियाला के प्रिंटिंग तथा स्टेशनरी विभाग में नौकरी मिल गई। नौकरी मिलने के साथ जब आर्थिक सुरक्षा भी मिल गई तो इन्होंने पढ़ाई तथा साथ ही साथ लेखन कार्य शुरू कर दिया। अपनी मेहनत के दम पर स्टेशनरी विभाग में क्लर्क की नौकरी से शुरू होकर पहले अनुसंधान एवं अनुवाद अधिकारी तथा बाद में सहायक निदेशक के पद पर आसीन हुए। इस दौरान उन्होंने भाषा विज्ञान पर उस समय लगभग 450 निबंध लिखे। जब भाषा विज्ञान भारत में एक विषय के तौर पर नहीं लिया जाता था, यह सभी निबंध विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। साहित्यिक आलोचना को भी इन्होंने हथियार बनाया।

साहित्य की विवेचनात्मक प्रकृति व दूरदर्शी सोच, भारतीय और पश्चिमी साहित्य के पक्ष-विपक्ष, तुलनात्मक अध्ययन, भाषा और साहित्य पर चिंतन, साहित्य और धर्म पर निबंध, अनुवादक : सीमा पर समस्याएं, प्रयोगवाद : दार्शनिक परिप्रेक्ष्य, बौद्ध धर्म और भक्ति, गुरु नानक देव जी का महत्त्व, टैगोर के निबंध, भाषा की शुरुआत, भाषा का जन्म, भाषा का विकास, भाषा : मानवता की जननी, भाषाविज्ञान : कुछ आधुनिक उपलब्धियां, भाषायी विकास का मनोवैज्ञानिक आधार, पश्चिमी भाषाविज्ञान का विकास, भाषा के विकास के चरण, भाषा की प्रकृति, कार्यप्रणाली व्याकरण और वर्णनात्मक भाषाविज्ञान, हिमाचली भाषा, पंजली संस्कृति, पंजली संस्कृति और भाषा, तेलुगु भाषा और साहित्य : एक अध्ययन, साहित्यिक सिद्धांत की आलोचना पर निबंध, साहित्यिक उत्पत्ति का लोकप्रिय सिद्धांत, साहित्य में व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति, साहित्य का अभिव्यक्तिवादी सिद्धांत, साहित्य में स्वयं का समाजीकरण, रास सिद्धांत और उनकी शैली का महत्त्व, साहित्य और धर्म पर निबंध, नानक सिंह की ललिता और गुरबख्श सिंह की होलिना बगैरा उनके लिखे कुछ विषयों पर निबंध हैं जो पुराने रसालों में मिल जाते हैं।
पंजाब में रहते हुए जहां उन्होंने पंजाबी भाषा के लिए बहुत गहरा काम किया और जब पंजाब के पुनर्गठन के बाद हिमाचल प्रदेश वर्तमान स्वरूप में अस्तित्व में आया तो भाषा एवं संस्कृति विभाग में बतौर सहायक निदेशक हिमाचल आए और भाषा एवं संस्कृति विभाग, हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी के क्रियाकलापों की न केवल सफलतापूर्वक रूपरेखा बनाई, अपितु बहुत सी पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी शुरू किया ताकि हिमाचल प्रदेश के साहित्यकारों को एक मंच मिल सके। हालांकि इनकी एक पुस्तक भाव ज्योति प्रकाशित हुई है, बावजूद इसके इनके सैकड़ों आलेख हैं जो कि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए, पुस्तकाकार नहीं ले सके जिनका सहेजा जाना परम आवश्यक है। 16 जनवरी 1980 को उनका देहांत हो गया।
ईश्वर दुखिया
जिला ऊना के गांव सुकडिय़ाल (उस समय जिला कांगड़ा), तहसील बंगाणा, हिमाचल प्रदेश में माता का नाम श्रीमती दुर्गा देवी के गर्भ से पिता श्री भगत राम शर्मा के घर 13.11.1941 को ईश्वर दुखिया जी का जन्म हुआ। स्कूली शिक्षा साईं दास पब्लिक स्कूल जालंधर तथा कॉलेज शिक्षा गवर्नमेंट कॉलेज पठानकोट में हुई। पढ़ाई के दौरान पंजाब अंडर 19 टीम के खिलाड़ी रहे। कॉलेज में ओजस्वी वक्ता के रूप में ख्यात रहे तो कविता में विशेष रुचि बचपन से हो गई थी। बाद में अध्यापन में आए और समाज सेवा से जुड़ाव हुआ तो बहुत सी समाज सेवी संस्थाओं से संबद्ध होते चले गए। हिमोत्कर्ष साहित्य एवं जनकल्याण परिषद के संस्थापक आजीवन सदस्य रहे, मानव सेवा कल्याण सभा का गठन किया। सनातन संस्कृत कॉलेज डोहगी बंगाणा जिला ऊना के संस्थापक उपाध्यक्ष रहे। 1968 से 1990 तक हिमाचल टीचजऱ् यूनियन के महासचिव व उपाध्यक्ष रहे। 1986 में श्रेष्ठ शिक्षक सम्मान से अलंकृत हुए। अखिल भारतीय सामाजिक संस्था कल्याण संघ के प्रादेशिक अध्यक्ष और राष्ट्रीय महासचिव के रूप में समाज सेवा में रत रहे। जहां एक ओर जीवन भर अध्यापक के रूप में अनेक निर्धन बच्चों की फीस, वर्दी और पुस्तकें आदि अपने वेतन से देते रहे, वहीं अखिल भारतीय साहित्य परिषद के ऊना जिला के अध्यक्ष के रूप में सक्रिय भूमिका निभाई। लंबे समय तक हिमाचली साहित्य तथा साहित्यिक मंच की शान रहे ईश्वर दुखिया की काव्य पुस्तक फुल्लां ते सिक्खा (पहाड़ी में) रौशन गलियारे : हिंदी कविता प्रकाशित हुईं। इसके अतिरिक्त शीघ्र ही एक वृहद काव्य संग्रह प्रकाश्य, जिसके प्रकाशन की जिम्मेवारी उनके अनुज एवं विख्यात साहित्यकार कुलदीप शर्मा उठा रहे हैं। हिमाचल प्रदेश के जाने-माने कवि, शिक्षाविद और प्रखर विचारक, श्रेष्ठ शिक्षक सम्मान से अलंकृत श्री ईश्वर दुखिया का देहांत 20 फरवरी 2021 को हुआ।

-वीरेंद्र शर्मा ‘वीर’
-(शेष भाग अगले अंक में)

पुस्तक समीक्षा : बहुआयामी संवेदना का बहुरंगी फलक

आरआर रत्तन गत् चार दशकों से काव्य सृजन कर रहे हैं और छिहत्तर वर्ष (जन्म 9 अगस्त 1946) की उम्र में भी उनकी रचनात्मकता जारी है। वह हिमाचल प्रदेश के सोलन जिला के अंतर्गत चंडी से संबंध रखते हैं। वे मूल रूप में हिंदी और पहाड़ी दोनों में समान रूप में लिखते हैं। ‘जीवन के रंग’ शीर्षक से उनका सौ कविताओं का संग्रह प्रकाश में आया है जिसमें उनकी सृजन यात्रा के पड़ाव अनुभव किए जा सकते हैं। युवा काल से ही अपने समय और समाज की विसंगतियां उन्हें कचोटती रही हैं जो कविता के रूप में समय-समय पर प्रस्फुटित होती रही हैं। युवा काल से लेकर जीवन के उत्तरार्ध तक उनकी संवेदना भूमि का वैविध्य कविताओं के फलक में व्याप्त है। इनमें मुख्य रूप में देश, समाज, परिवार, पर्यावरण और प्रकृति की चिंता है। पुस्तक की भूमिका में वे स्पष्ट करते हैं : ‘जीवन के रंग’ का मूल उद्देश्य जन जागरण द्वारा समाज एवं राष्ट्र का उत्थान, प्रकृति की मूल संरचना का संरक्षण एवं मानवीय संबंधों में ईश्वरीय प्रदत प्रेम, एकता, सदाचार आदि को पूर्ववत् स्थापित करने का आह्वान करना है। कवि आरआर रत्तन की कविताओं से गुजऱते हुए देश प्रेम, देश भक्ति, प्रकृति प्रेम, मानव मात्र के प्रति प्रेम का अनुभव होता है। उन्होंने ‘जीवन के रंग’ काव्य संग्रह की सौ कविताओं में अपनी रचनात्मकता के माध्यम से जीवन के विविध आयामों का स्पर्श किया है। आरआर रत्तन अपनी कविताओं में मानवीय संबंधों के प्रति आस्था प्रकट करते हैं। आज के जीवन की यांत्रिकता में संबंधों में बेग़ानापन भी आया है, परंतु कवि का आशावादी स्वर मुखर है। रत्तन की कविताओं में उनका दार्शनिक रूप भी मुखरित हुआ है।

वे जीवन को एक दार्शनिक के रूप में देखते हैं। वे जीवन के संघर्ष को महत्त्व प्रदान करते हैं और भाग्यवादिता को निरर्थक मानते हैं। कवि की वैचारिक उर्धवता भी उनकी कविताओं में लक्षित हुई है। उनकी कविताएं कवि के आत्म और बाह्य संघर्ष की प्रतिश्रुति है। कवि ने जीवन के अनेक अनुभवों, सुख-दुख, हर्ष-विषाद को नितांत सहजता से अभिव्यंजित किया है। कवि में प्रबल जिजीविषा और आशावाद का स्वर है। उनकी कविताएं आशावाद, सकारात्मक सोच, जीवन जिजीविषा और सकारात्मकता का उद्घोष करती हंै। उनकी कविताओं का स्वर जीवन चेतना से अनुप्राणित है। उनकी कविताओं की संवेदना धीरे-धीरे पकती हुई समय और समाज की स्थितियों और विडंबनाओं को प्रस्तुत करती है और सामाजिक विरोधाभास का साक्षात्कार करती है। वे सारी निषेधात्मक स्थितियों में भी जीवन संघर्ष में आस्था रखते हैं। मन के सहज संवेगों की सहज शब्दों में अभिव्यक्ति उनकी रचनात्मकता में परिलक्षित होती है। आरआर रत्तन बहु आयामी रचनाकार हैं। उन्होंने एक ओर राष्ट्र धर्म, राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रभक्ति, राष्ट्र के लिए उत्सर्ग भावना से ओतप्रोत कविताएं सृजित की हैं, दूसरी ओर दलितों, वंचितों, जातिभेद और सामाजिक विषमता का प्रत्याख्यान करते हुए सामाजिक समता और मानवतावादी मूल्यों की प्रतिष्ठा करने वाली कविताओं का सृजन किया है। वह मानवमात्र से कर्म करने का आह्वान करते हैं और विषमताओं और रूढिय़ों की रिक्ततता को अनावृत करते हैं और किसान व मजदूर की पीड़ा और उसके महत्त्व को रेखांकित करते हैं। आरआर रत्तन के इस काव्य संग्रह में बहुत सी कविताएं देश भक्ति और राष्ट्र प्रेम से ओतप्रोत हैं।

देश रक्षा, हिंद के जवान, फूल गुलाब का हिंदुस्तान, देश प्रेम, हमारा देश, जीवन से मूल्यवान देश, देश भक्त, नौजवान और भारत, देश का नेता, देश और जीवन, भारत माता, देश भक्ति, मेरा देश, देश प्रेमी, तिरंगा, राखी, जागो हिंदुस्तानी, मातृभूमि आदि अनेक कविताएं इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। कवि आरआर रत्तन ने दुख-सुख, नफरत, उत्साह, हिम्मत, अहिंसा, मीठी बोली, मीठा बोलो, जवानी, सपना, सोच, विचार आदि अनेक भावों पर कविताओं का सृजन किया है। कवि दुख और सुख की परतों को मनुष्य के जीवन की मन:स्थितियों के साथ संबद्ध करके देखते हैं, यथा ‘दुख की मिट्टी में जीवन तपता है/आता है जीवन में निखार/ज्ञानी भोगे दुख सदा अज्ञानी मांगे बहार। बस में मन नहीं जिसका/और बुद्धि में अहंकार/काम क्रोध की ओढ़ी सालनी/दुख है उसके पास खड़ा।’ वे सुख की क्षणिकता और मृगतृष्णा को भी रेखांकित करते हैं। कवि यह स्पष्ट करते हैं कि धनाढ्य वर्ग को सुख की एषणा में भटकते देखा है। कवि रत्तन ने हाथ, सवेरा, यह कैसी आजादी है, प्रबोध, सपना आदि अनेक कविताओं का सृजन किया है। उनकी काव्य की संवेदना बहुरंगी और वैविध्यपूर्ण है। आरआर रत्तन की काव्य वस्तु पाठक का ध्यान आकर्षित करती है और कुछ कविताएं ठहर कर सोचने के लिए भी विवश करती हैं। कवि अपने समय और समाज का चित्रण करते हुए निरंतर पाठक से संवाद करता है। परंतु बहुत सी कविताओं में कवि स्वर लाउड है। कविता में महीन बुनावट अपेक्षित है। फिर भी कवि का वस्तुस्थिति में परिवर्तन लाने के लिए आशावादी और सकारात्मक स्वर है। सारी निषेधात्मक परिस्थितियों के मध्य में वे जीवन संघर्ष में विश्वास करते हैं। प्रकाशक साहित्य संस्थान, गाजियाबाद से प्रकाशित इस कविता संग्रह का मूल्य 300 रुपए है।

-डा. हेमराज कौशिक

सेना के अनुभव बताती पुस्तक

बिलासपुर (हिमाचल प्रदेश) निवासी कर्नल जसवंत सिंह चंदेल (विशिष्ट सेवा मेडल विजेता) की पुस्तक ‘कांगटू से बॉडीगार्ड हाऊस तक’ प्रकाशित हुई है। इसमें कांगटू वो जगह है जहां लेखक का जन्म हुआ तथा बॉडीगार्ड हाऊस वह स्थान है जहां अब सेना से रिटायरमेंट के बाद लेखक बस गए हैं। इस तरह यह लेखक के जन्म से लेकर सार्वजनिक सेवा से रिटायर हो जाने के बाद तक की कहानी है। इसमें बाल्यकाल, सेना में नौकरी, साहित्य सृजन तथा सामाजिक सेवा से जुड़े लेखक के अनुभवों और यादों को समेटा गया है। इन क्षेत्रों में रुचि रखने वालों के लिए इस किताब में बहुत कुछ है और वे कर्नल चंदेल के अनुभवों से लाभ उठा सकते हैं। यह किताब 136 पृष्ठों में, विशेषकर, सैन्य अनुभवों का लेखा-जोखा है। कर्नल चंदेल खुद कहते हैं कि यह वह रास्ता है जो मैंने तय किया है। रास्ते की तफसील से कोई लंबाई-चौड़ाई नहीं है, बस चलता गया और कहीं-कहीं पैरों के निशान छोड़ता गया। इस किताब में कुछ छिलके हैं और कुछ अटपटी यादें हैं। सेना, साहित्य व सामाजिक क्षेत्र में लेखक के योगदान को इस पुस्तक में जगह दी गई है।

सेना में रहकर कर्नल चंदेल जहां हथियार थामकर दुश्मन का बखूबी सामना करते हैं, वहीं समय आने पर हथियार उठाने वाले ये हाथ कोमल होकर कविता भी करने लगते हैं। पुस्तक में काफी सारे रोचक चित्र भी दिए गए हैं, जो किताब की अहमियत को बढ़ा देते हैं। प्रकाशक स्वयं लेखक ही हैं तथा प्रथम संस्करण में किताब की एक हजार प्रतियां छापी गई हैं। किताब की कीमत को लेकर लेखक खामोश हैं। मंजुषा सहायता केंद्र कलोल के संस्थापक के रूप में कर्नल चंदेल की सामाजिक गतिविधियां भी उल्लेखनीय हैं जिन्हें पुस्तक में स्थान दिया गया है। बुजुर्ग हो चुके कर्नल चंदेल उम्र के इस पड़ाव में भी साहित्य व समाज सेवा के क्षेत्र में सक्रिय हैं। वे इसी तरह सेवा करते रहें, इसके लिए उनकी लंबी आयु की कामना करते हैं। आशा है कि यह पुस्तक पाठकों को अवश्य ही पसंद आएगी।

-फीचर डेस्क


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App