उच्च अध्ययन संस्थान की विकास यात्रा

By: Aug 14th, 2022 12:07 am

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक, डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -27

विमर्श के बिंदु
1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

अशोक शर्मा, मो.-9816074357

सोसायटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के अंतर्गत 06 अक्तूबर 1964 को भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान की सोसयटी का गठन हुआ। भारत के उपराष्ट्रपति डा. ज़ाकिर हुसैन संस्थान की सोसायटी के प्रथम अध्यक्ष बने तथा केन्द्रीय शिक्षा मंत्री एमसी छागला सोसायटी के उपाध्यक्ष तथा गवर्निंग बॉडी के चेयरमैन बने। सोसायटी का सर्वप्रथम उद्देश्य भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान की स्थापना, प्रशासन और उसका प्रबंधन करना था। प्रोफेसर निहाररंजन रे ने 1 जून 1965 को संस्थान के प्रथम निदेशक का कार्यभार संभाला। संस्थान को चलाने के लिए उनके सामने अनेक चुनौतियां थी। एक ओर स्वतंत्रता के बाद 17 वर्षों तक बंद रहे राष्ट्रपति निवास में अध्येयताओं की आवश्यकता के अनुसार अध्ययन कक्ष तथा उनके लिए आवासीय सुविधाएं उपलब्ध करवानी थी तो दूसरी ओर स्थापना के बाद संस्थान का स्वरूप तथा कार्यकलाप निश्चित किए जाने थे। प्रोफेसर रे ने इस पर निर्णय होने से पूर्व प्रिंस्टन इन्स्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी, ईस्ट-वेस्ट सेंटर हवाई तथा ऑल सोल कॉलेज ऑक्सफोर्ड आदि विश्व के उच्च शोध संस्थानों का जायज़ा लेकर जानकरी उपलब्ध की। संस्थान की परिकल्पना ऐसे कठिन समय में की गई जब देश में कुछ अनिश्चितता का वातावरण था। राष्ट्र दो विनाशकारी युद्धों के दौर से मुश्किल से संभल पाया था और साथ ही खाद्य सुरक्षा का भी सामना कर रहा था।

इसकी पूरी शक्ति राष्ट्रीय एकीकरण पर केंद्रित थी। 20 अक्तूबर 1965 को संस्थान के उद्घाटन के अवसर पर भी इस अनिश्चितता की छाया को महसूस किया गया। इस अवसर पर भारत के उपराष्ट्रपति तथा संस्थान की सोसायटी के अध्यक्ष डा. ज़ाकिर हुसैन ने इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए अपने उद्घाटन उद्बोधन में कहा, ‘यह संस्थान एक ऐसे समय में अस्तित्व में आया है जब हम लोगों के जीवन में तनाव और दबाव है। यह हमारी गंभीरता का प्रतीक है कि हम मानवीय मूल्यों को किस प्रकार आंकते हैं तथा उनकी ओर कितना ध्यान देते हैं। यहां तक कि युद्ध के विध्वंस के बीच मनुष्य द्वारा शांति तथा वास्तविक जीवन के भयावह विकर्षणों के वातावरण में सत्य की खोज के प्रति हमारे विश्वास की गंभीरता भी है।’ इस विचार को भारत के राष्ट्रपति प्रोफेसर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपने उद्घाटन भाषण के दौरान विस्तारपूर्वक घोषित किया- ‘संस्कृतियों का सम्मिलन, सभ्यताओं का सम्मिलन तथा विभिन्न दृष्टिकोणों का सम्मिलन हमारे युग की एक महानतम घटना है, जो हमें आभास करवाती है कि हम मात्र एक आस्था से नहीं बंधे हैं, आस्थाओं की भिन्नता का भी सम्मान करते हैं। हमारा प्रयास होना चाहिए कि लोगों में एकजुटता, मित्रता बनी रहे तथा एक ऐसे जगत का निर्माण हो जहां हम प्रसन्नतापर्वूक एकता के साथ रहते हुए मित्रवत जीवन बसर कर सकें। इसलिए आओ अनुभव करें कि बढ़ती हुई परिपक्वता स्वयं अपनी क्षमतानुरूप अन्य दृष्टिकोणों को समझने में सक्षम हो। यही हमारी कोशिश होनी चाहिए। दो संस्कृतियों को पृथक करने वाला लौहावरण टूट गया है। यह अच्छा है कि हमने एक-दूसरे की सभ्यताओं व संस्कृतियों को यथासंभव पहचाना और उसकी आवश्यकता पर बल दिया। यह कमज़ोर आस्था का नहीं, अपितु परिपक्वता का प्रतीक है। यदि मनुष्य दूसरी संस्कृतियों को सहानुभूतिपूर्वक देखने में असमर्थ है तथा उनके साथ सहयोग करने में भी समर्थ नहीं है तो उसके अंदर मानवीय अपरिपक्वता है। हमें सहयोग की आवश्यकता है न कि संघर्ष की। ऐसे कठिन समय में शांति व सहयोग की बात करना एक बहुत ही साहसिक कार्य है। शत्रुता, विरोध व युद्ध की बात करना आसान है। हमें इस दुस्साहस पर लगाम लगानी चाहिए।

हमेशा हमारा प्रयास सहयोग, भाईचारा व मित्रता स्थापित करने तथा एक ऐसा जगत् निर्मित करने की ओर अग्रसर होना चाहिए जहां हम सब मिलजुल कर खुशी से मधुर संबंध स्थापित करके मित्रवत जीवन बसर कर सकें। आओ ऐसे में महसूस करें कि यह बढ़ती परिपक्वता स्वयं अपनी समझ की क्षमता के अनुरुप दूसरे दृष्टिकोणों को अभिव्यक्त करे।’ केन्द्रीय शिक्षा मंत्री तथा शासी निकाय के अध्यक्ष श्री एमसी छागला ने तथ्य की महत्ता पर बल देते हुए कहा- ‘जबकि हमारी सुरक्षा व अखंडता संकट में है, फिर भी हम इस प्रकार के विलक्षण संस्थान का उद्घाटन करने के बारे में सोच रह हैं।’ संस्थान को लेकर श्री छागला का कहना था, ‘यह कई प्रकार से एक अद्वितीय संस्थान है। सर्वप्रथम यह एक ऐसे महल में विद्यमान है जो साम्राज्यवाद तथा वायसरीगल वैभव का प्रतीक है, हमें अब यहां अध्येयतावृत्ति व शोध का एक संकेत नजर आ रहा है। दूसरे अर्थ में भी यह एक अनूठा संस्थान है क्योंकि अन्य शिक्षण संस्थानों की भांति न तो यहां कोई पाठ्यक्रम होगा, न अध्ययन कोर्स, न कोई संकाय, न परीक्षाएं और न ही कोई उपाधि प्रदान की जाएगी। हम यहां वास्तविक शोध तथा छात्रवृत्ति के लिए एक ऐसा वातावरण बनाना चाहते हैं, जहां लोग आएं, परस्पर विचार-विमर्श करें तथा ज्ञान रूपी क्षितिज का विस्तार करें।’ संस्थान ऐसे समय में शुरू किया जा रहा था जब विश्व के अनेक हिस्सों में सरकारें बौद्धिक स्वायत्तता को सीमित करने का प्रयास कर रही थीं। इस संदर्भ में यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है कि संस्थान के निदेशक ने अपने राज्य के प्रमुख व अपनी सरकार के अग्रणी सदस्यों के समक्ष बौद्धिक स्वतंत्रता की एक ज़ोरदार वकालत की। प्रोफेसर निहाररंजन रे ने कहा- ‘भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान अपनी तरह का इकलौता संस्थान है। उच्च स्तरीय अध्ययन व शोध की नई दिशा में यह प्रथम प्रयोग है, और यदि हम इसे सफल बनाना चाहते हैं, उसके लिए सृजनात्मक रूप से कहूं तो दो बातों से आश्वस्त होना पड़ेगा: (क) पूर्ण अकादमिक स्वतंत्रता तथा (ख) वित्तीय चिंताओं से सापेक्षिक मुक्ति। उच्च स्तरीय अध्ययन व शोध बाधिक नहीं होना चाहिए तथा एक बुद्धिजीवी व सत्य की खोज करने वाला दूसरों की कृपा का दास बनकर इंतजार नहीं कर सकता। नि:संदेह यह उसके परिश्रम की कीमत नहीं हो सकती।’

उच्च अध्ययन संस्थान की उपलब्धियां

-(ऊपरी कॉलम का शेष भाग)
उद्घाटन समारोह के दूसरे ही दिन से नौ दिवसीय अकादमिक संगोष्ठी ‘रिलिजन एंड सोसायटी इन इंडिया’ विषय पर आयोजित की गई थी। इसके साथ ही चार प्रोफेसर, दस वरिष्ठ शोध अध्येयताओं तथा तीन कनिष्ठ शोध अध्येयताओं ने संस्थान में अपना शोध कार्य प्रारंभ किया। प्रोफेसर रे की उच्च स्तरीय अकादमिक मान्यता के कारण विविध श्रेणियों के बौद्धिक गुण सम्पन्न विद्वान संस्थान की ओर आकृष्ट हुए। डा. एस. मीनाक्षी सुन्दरम, डा. एनवी बैनर्जी, डा. जान्स हंस क्रूज तथा डा. एस. मकबूल अहमद प्रोफेसर के रूप में संस्थान में पधारे।
डा. एसके नंदी, डा. जयंत कुमार रे, डा. यूसुफ हुसैन खान, डा. जेपीएस ओबरॉय तथा डा. एम. जुबेरी आदि दस वरिष्ठ शोध अध्येयताओं ने अपना शोधकार्य आरंभ किया। डा. मुल्कराज आनंद, प्रोफेसर एस. नुरूल हसन, प्रोफेसर निर्मल कुमार बोस, प्रोफेसर एनए निक्कम तथा प्रोफेसर सुनिति कुमार चटर्जी जैसे ख्याति प्राप्त विद्वानों को विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में आमंत्रित किया गया। संबंधित एमओयू के अनुसार संस्थान के कार्य और अकादमिक गतिविधियों का हर पांच वर्षों में मूल्यांकन होना तय था, किन्तु संस्थान की गवर्निंग बॉडी ने तीन वर्षों के बाद ही इस मूल्यांकन का निर्णय लिया। यह कार्य सीडी देशमुख समिति को सौंपा गया। समिति इस निष्कर्ष पर पहुंची कि विभिन्न विषयों पर शोध करने वाला यह देश का पहला संस्थान है, जहां एक साथ कई अध्येयता, जिन्हें आवासीय सुविधा भी दी जाती है, विभिन्न विषयों पर शोध कर रहे हैं।
समिति ने अपने सुझाव में कहा कि अध्येयताओं की आवासीय व्यवस्था, अकादमिक स्वतंत्रता और संस्थान की स्वायतत्ता सुरक्षित रहनी चाहिए। प्रोफेसर रे का पांच वर्ष का कार्यकाल वर्ष 1970 में समाप्त हुआ। इसके बाद प्रोफेसर वीके गोकक ने निदेशक पद का कार्यभार संभाला। प्रोफेसर गोकक केवल एक वर्ष तक निदेशक रहे, जिसके बाद कुछ समय के लिए संस्थान के वरिष्ठ अध्येयता प्रोफेसर यूसुफ हुसैन खान को कार्यकारी निदेशक बनाया गया। वर्ष 1972 में प्रोफेसर श्यामाचरण दुबे संस्थान के निदेशक बने। उनके पांच वर्ष के कार्यकाल में अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों पर संगोष्ठियां हुई, जिनमें ‘टूवडर््स ए कल्चरल पॉलिसी फॉर इण्डिया’, ‘हायर एजुकेशन, सोशल चेंज एण्ड नेशनल डिवेलपमेंट’ तथा ‘पब्लिक सर्विस एण्ड सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी’ प्रमुख हैं। इस बीच अध्येयताओं की संख्या पचास तक पहुंच गई तथा अध्येयता विजिटिंग फैलोज कहलाने लगे।
अन्य शोध संस्थानों- भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद, भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद तथा भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के सहयोग से ‘द सोर्स बुक ऑन इण्डियन सिविलाइजेशन’, ‘ट्राइबल हेरिटेज ऑफ इण्डिया’ तथा ‘आर्कियॉलोजी ऑफ रामायणा साइट्स’ जैसी महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं पर कार्य आरंभ हुआ। उधर देशमुख समिति की सिफारिशों के अनुरूप संस्थान में स्थायी रूप से शोधकार्य करने हेतु कोर फैलोशिप आरंभ की गई, जिसमें छह जाने-माने विद्वानों को लंबे अरसे की शोध परियोजनाओं पर कार्य करने हेतु नियुक्त किया गया। प्रकाशन पर भी विशेष ध्यान दिया गया। पहले दस वर्षों में संस्थान के प्रकाशनों की संख्या 75 तक पहुंच गई थी। संस्थान के शुरू के वर्षों में त्रैमासिक पत्रिका ‘बुलेटिन ऑफ इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी’ का प्रकाशन होता रहा, जिसमें संस्थान में आयोजित सभी अकादमिक गतिविधियों का ब्यौरा होता था। इसका स्थान 1974 में ‘आई. आई. ए. एस. न्यूज़ लैटर’ ने लिया। प्रकाशन की सुचारू बिक्री के लिए एक पुस्तक वितरक का चयन किया गया, जिसकी देश भर में प्रमुख नगरों में पांच शाखाएं थी। संस्थान के प्रकाशनों की राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा होने लगी, जिससे इन प्रकाशनों की प्रकाशन जगत् में विशेष पहचान बन सकी। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान के इतिहास में समय-समय पर कई उतार-चढ़ाव आए।
प्रोफेसर दुबे का कार्यकाल 1977 में समाप्त हुआ तथा संस्थान के वरिष्ठ कोर अध्येयता प्रोफेसर बीबी लाल को संस्थाान का कार्यकारी निदेशक नियुक्त किया गया। उस समय केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार का गठन हुआ था। नई सरकार ने संस्थान के एमओयू के अनुच्छेद 5 के अंतर्गत संस्थान के कार्य व अकादमिक गतिविधियों का मूल्यांकन करवाने का निर्णय लिया। इस कार्य के लिए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री प्रोफेसर एके दासगुप्ता की अध्यक्षता में समिति का गठन किया गया। समिति के अन्य सदस्य पुरातत्त्वविद् प्रोफेसर एचडी संकालिया तथा चण्डीगढ़ के कमिश्नर श्री टीएन चतुर्वेदी थे। दासगुप्ता समिति ने यह महसूस किया कि संस्थान जिस उद्देश्य से स्थापित किया गया था, उसे साकार नहीं कर पा रहा है तथा अधिकत्तर अध्येयता अपनी शोध परियोजना को संस्थान द्वारा प्रदत अध्येयतावृत्ति अवधि में पूरा नहीं कर पाए। अत: संस्थान को जारी रखने के लिए कोई ठोस आधार नहीं है।
दासगुप्ता समिति की रिपोर्ट को यदि ध्यान से देखा जाए तो ऐसा लगता है कि यह रिपोर्ट दासगुप्ता समिति की नहीं अपितु एके दासगुप्ता की स्वयं की रिपोर्ट है, जिसे किसी पूर्वाग्रह के तहत लिखा गया है। वास्तव में समिति के सदस्यों की परस्पर एक साथ एक भी बैठक नहीं हुई थी। प्रोफेसर एचडी संकालिया ने किसी भी बैठक में भाग नहीं लिया। शायद वह अस्वस्थ होने के कारण ऐसा नहीं कर पाए थे।

-अशोक शर्मा
-(शेष भाग अगले अंक में)

पुस्तक समीक्षा : रसानुभूति करवाती कविताओं का गुलदस्ता

‘संवेदना की वीथियों में’ एक साझा काव्य संग्रह है जिसमें हिमाचल के साथ ही देश-विदेश के 109 कवियों की चुनिंदा कविताएं संकलित हैं। डा. विजय कुमार पुरी इसके संपादक हैं, जबकि डा. श्रीप्रकाश यादव सह संपादक हैं। निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, आगरा से प्रकाशित यह कविता संग्रह 700 रुपए मूल्य का है जिसे 456 पृष्ठों में प्रकाशित किया गया है। संपादकीय में डा. विजय कुमार पुरी लिखते हैं, ‘वर्तमान काव्य या समकालीन कविताओं की सामान्य प्रवृत्तियां अलगाव, विघटन, छटपटाहट, बेचैनी, उग्रता, संघर्ष, आशा-निराशा हैं, पर इस काव्य संग्रह में एक सामान्य-सा लक्षण ‘संवेदना’ को देखा जो प्रेम और संघर्ष के बीच मनुष्यता को बरकरार रखने और कविता की जीवंतता को कायम रखन में महती भूमिका निभाती है। जब तक यह संवेदना है, तब तक कविता है, तभी तो जीवन में उत्सव और उल्लास है। हालांकि, इस काव्य संग्रह में देश प्रेम, सामाजिक टकराहट, वर्ग संघर्ष और बहुवादी संस्कृति की झलक भी मिलती है, जो विविधता में एकता को कविता में संपुष्टि प्रदान करता है। इस संग्रह में शामिल कवियों में भारतीयता की सुंदर छवि परिलक्षित होती है। सभी कवि भारत के विभिन्न संभागों से संबद्ध हैं। बेशक कुछ रचनाकार विदेश में भी रह रहे हैं, पर उन सभी कवियों में अपनी मिट्टी के प्रति अगाध प्रेम है, चाहे वे पहाड़ी हों, चाहे मैदानी, चाहे वनांचली हों, चाहे सागर तटीय। इन सभी ने लगभग हिंदी कविता के विगत बीस साल के मुख्य लक्षणों को समझा है और अपने लेखन कर्म में उन्हें समाहित किया है। 21वीं सदी के प्रथम दो दशकों में जो भी सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक परिवर्तन हुए हैं, उन्हें भोगा, बूझा और लिखा है। यह कविता संग्रह एक नए पैटर्न की मिसाल है, जो वर्तमान युग बोध से अनुप्राणित है। वास्तव में इस काव्य संकलन का मुख्य प्रयोजन यह रहा है कि ‘संवेदना की वीथियों में’ नामक शीर्षक के अंतर्गत काव्य नामक ‘सूर्य’ समस्त चराचर जीव-जगत के लिए कल्याणमयी संवेदना लिए हुए कवियों की रचनाधर्मिता रूपी वीथिका में विचरण करते हुए ऐसे काव्य संसार से साक्षात्कार हो जिसमें सहृदय सुधी पाठकवृंद ब्रह्मानंद सहोदर- रसात्मकता तक पहुंच कर अभिभूत हो सकें।’ इस काव्य संग्रह के कवि हमारे समाज को जागरूक करने में पूरी शिद्दत से तैयार हैं। समाज के लिए नई संभावनाओं के द्वार खोलने वाले हैं। कवियों की रचनाओं के साथ ही कवियों का विस्तृत परिचय भी दिया गया है जिससे उनके बारे में जानने को बहुत कुछ मिलता है।

हर कविता किसी न किसी उद्देश्य से लिखी गई है। उदाहरण के रूप में पवन पखरोलवी की एक कविता के अंश देखिए, ‘ओ कवि! फिर कुछ ऐसी तान सुना दो/जीवन के मरुथल में…तुम रंगीन बहारें ला दो, ओ कवि! फिर../आज अंधेरा लूट रहा है, जन-जीवन फिर टूट रहा है/स्वार्थमय यह विश्व बना है, आशा का अंचल रक्त सना है/उषा की लाली से लेकर, मन में अभिनव उर्मि विचरा दो/ओ कवि, फिर…।’ डा. हरेराम सिंह की कविता भी रोचक है, ‘कभी आते थे मुझे बहुत गुस्से/पर अब नहीं आते/यह भी नहीं कि सब कुछ सुधर गया/ठीक-ठाक हो गया/कोई किसी का शोषण नहीं करता/न कोई किसी को मारता है/ऐसा मैं नहीं कहता/हां, ऐसा रोज हो रहा है/हत्या, बलात्कार, राहजनी/और बहुत कुछ/पर मेरे गुस्से को क्या हो गया है/कि मुझे गुस्सा होता ही नहीं/क्या मैं पहले से अधिक/समझदार हो गया हूं/या टूट चुका हूं/पर, आप ही बताइए/कभी गुस्सा नहीं करना चाहिए/सब कुछ चुपचाप सह जाना चाहिए/कुछ समझदार तो कहते हैं/चुपचाप रहकर काम निकाल लो/क्या युग की यही डिमांड है?’ इसी तरह संग्रह की अन्य कविताएं भी पाठकों को पसंद आएंगी, ऐसा विश्वास है।

-फीचर डेस्क

समकालीन विषयों पर रचित कविताएं

पंचरुखी से संबद्ध हिमाचल के साहित्यकार आनंद स्वरूप धीमान का काव्य संग्रह ‘आशा किरण’ प्रकाशित हुआ है। 117 पृष्ठों में रचित इस काव्य संग्रह में 73 कविताएं संकलित हैं। कुणाल प्रिंटिंग प्रैस पब्लिशिंग कंपनी, धर्मशाला से प्रकाशित इस काव्य संग्रह की कीमत 300 रुपए है। काव्य संग्रह की कई कविताएं भावना प्रधान हैं, जबकि समकालीन विषयों को भी कविता का रूप दिया गया है। कविताओं में विभिन्न भावों की अभिव्यंजना हुई है। कविताएं मानव को प्रेरणा देने वाली हैं।

मां नामक कविता में सवाल उठाते हुए कहा गया है : ‘गर किसी ने मां की सेवा न की/समय रहते उसको गर रोटी न दी/तो वह क्यों मंदिर मस्जिद जाए/भक्ति में जितना मर्जी जुट जाए/पहले अपने आपको समझाए/क्यों समझे तुम्हें पराया, जिसको तुमने अपनाया।’ इसी तरह सेल्फी नामक कविता में दुख प्रकट करते हुए कहा गया है : ‘लाइक डिस्लाइक आज एक दौर बन गया/अमूमन हर युवा इस गंभीर स्थिति में प्रवेश कर गया/ज्यादातर को देखिए ऐसा जीवन जी रहे हैं/छोटा या बड़ा हो युवा बूढ़ा हो हर कोई प्रभावित हो रहे हैं/सेल्फी के चक्कर में युवा मौत को गले लगा रहे हैं।’ मोबाइल नामक कविता में इस संचार यंत्र को इस तरह परिभाषित किया गया है : ‘अमूमन आज के दौर में सबके हाथ में रहता हूं/रोज अमृत बेला सुबह सवेरे नींद से जगाता हूं/रखा हो अगर अलार्म तो सही समय पर बजाता हूं/बुरा न मानो मैं मोबाइल कहलाता हूं।’ इसी तरह ‘कोरोना कहर’ नामक कविता में इस महामारी की विभीषका इन शब्दों में प्रकट हुई है : ‘दुनिया के ताकतवर देशों को हिलाकर रख दिया/हर किसी को लॉकडाऊन मजबूर अंदर रहने को कर दिया/कोरोना कहर ने सामाजिक मेल-मिलाप तबाह कर दिया/कुदरत ने देखो कैसे हर किसी को बेबस कमजोर कर दिया।’ ‘चंबा और चौगान’ नामक कविता में हिमाचली संस्कृति की अभिव्यंजना हुई है। काव्य संग्रह की हर कविता पाठक को प्रभावित करती है। आशा है यह कविता संग्रह पाठकों को पसंद आएगा।

-फीचर डेस्क


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