हॉकी की गोल्डन गाथा में सैन्य किरदार

हॉकी के उस महान जादूगर को सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ देने की मांग देश में एक मुद्दत से उठ रही है। युद्धभूमि से लेकर वैश्विक खेल पटल तक तिरंगा फहराने वाले सैनिकों का सम्मान होना चाहिए। खेल मंत्रालय को इस विषय पर गंभीरता से विचार करना होगा। खेल दिवस पर ध्यान चंद को राष्ट्र शत-शत नमन करता है…

सबसे बड़े खेल महाकुंभ ओलंपिक में भारतीय हॉकी के ‘आठ स्वर्ण पदकों’ की गोल्डन गाथा पर हर हिंदोस्तानी फक्र महसूस करता है। हॉकी खेल के दम पर भारत ने गुलामी के दौर में भी दुनिया पर हुक्मरानी की है। भारत में हॉकी का आगाज बर्तानिया हुकूमत के दौर में भारतीय सेना के खेल मैदानों से हुआ था। सेना ने देश को कई अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी दिए हैं जिनमें हॉकी के सैनिक खिलाडिय़ों की फेहरिस्त भी काफी लंबी है। फौजी खिलाडिय़ों का जिक्र किए बिना खेलों के समीकरण व भारतीय हॉकी का इतिहास अधूरा रहेगा। 29 अगस्त 1905 को हॉकी का मुमताज़ चेहरा ‘मेजर ध्यान चंद’ की पैदाइश हुई थी। हॉकी का पहला अध्याय ध्यान चंद के नाम से ही शुरू होता है। भारतीय हॉकी टीम अंग्रेज सैन्य अधिकारी की कप्तानी में पहली मर्तबा अंतरराष्ट्रीय मैच खेलने सन् 1926 में न्यूजीलैंड के दौरे पर गई थी। उस टीम में सूबेदार ठाकुर सिंह व ध्यान चंद (पंजाब रेजिमेंट) सहित 12 सैनिक खिलाड़ी थे। उस श्रृंखला के 21 में से 18 मैचों में भारत ने जीत दर्ज की थी। मगर हॉकी के अजीम सरताज के खेल हुनर का करिश्मा दुनिया ने सन् 1928 के ‘एम्सटर्डम’ ओलंपिक में देखा जब ध्यान चंद ने पांच मैचों में सर्वाधिक 14 व्यक्तिगत गोल दागकर भारत के लिए पहला स्वर्ण पदक जीतने में नुमाया किरदार अदा किया था।

1932 के ‘लॉस एंजिल्स’ ओलंपिक में ध्यान चंद के साथ उनके भाई कै. रूप सिंह, कर्नल गुरमीत खुल्लर व एस. असलम ने शानदार खेल का मुजाहिरा करके स्वर्ण पदक जीता था। 1936 के ‘बर्लिन’ ओलंपिक में ध्यान चंद की कप्तानी में इन खिलाडिय़ों के अलावा इक्तिदार अली दारा शाह एक उम्दा सैनिक खिलाड़ी टीम में शामिल हुए तथा भारतीय हॉकी ने ओलंपिक में गोल्ड मेडल की हॅट्रिक लगाई थी। दूसरे विश्व युद्ध के कारण 1940 व 1944 के ओलंपिक खेल रद्द हुए थे अन्यथा ध्यान चंद हॉकी में कई और रिकॉर्ड कायम कर देते। आजादी के बाद 1948 के ‘लंदन’ ओलंपिक में नौसेना के ‘नंदी सिंह’ व 1952 के ‘मेलबॉर्न’ ओलंपिक में एएस बख्शी, सूबेदार हरदयाल व रघुबीर भोला जैसे सेना के दिग्गज खिलाडिय़ों ने भारतीय हॉकी के स्वर्णिम सफर को बरकरार रखा था। 1960 के ‘रोम’ ओलंपिक में शांता राम, जसवंत सिंह व कर्नल हरिपाल कौशिक ने भारत को रजत पदक दिलाया था। 1964 के ‘टोक्यो’ ओलंपिक में कैप्टन शंकर लक्ष्मण, वीजे पीटर व कर्नल कौशिक ने गोल्ड मेडल जीतने में मुख्य भूमिका निभाई थी। 1968 के ‘मैक्सिको’ ओलंपिक में कर्नल ‘बलबीर खुल्लर’ व 1972 के ‘म्युनिख’ ओलंपिक में ‘माइकल किंडो’ व हवलदार ‘मैनुअल फ्रैडरिक’ तथा 1980 के ‘मोस्को’ ओलंपिक में ‘स्वर्ण पदक’ जीतने वाली भारतीय हॉकी टीम में सेना के ‘सिल्वेनस डुंगडुंग’ का सराहनीय योगदान रहा था।

1975 में एकमात्र विश्व कप विजेता भारतीय हॉकी टीम में ब्रिगेडियर हरचरण, एचजेएस चिमनी व डुंगडुंग जैसे सेना के दिग्गज़ खिलाड़ी शामिल थे। 1978 के हॉकी विश्व कप में गोपाल भेगंरा व 1990 के विश्व कप में कै. विजय कूजूर ने अपनी भूमिका निभाई थी। 2012 ‘लंदन’ व 2016 के ‘रियो’ ओलंपिक में हवलदार एससी सुनील ने अहम किरदार निभाया था। इसके अलावा कै. रोमियो जेम्स व सूबेदार ईग्नेश टिर्की हॉकी के बेहतरीन खिलाड़ी रहे हैं। ज्ञात रहे मेजर ध्यान चंद, कर्नल हरिपाल कौशिक व कै. शंकर लक्ष्मण ने लगातार तीन-तीन ओलंपिक खेले थे। ध्यान चंद ने अपनी सैन्य सेवा के दौरान वजीरीस्तान के मोर्चे पर ड्यूटी निभाई थी। 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान अरुणाचल प्रदेश के महाज पर कर्नल हरिपाल कौशिक ने ‘प्रथम सिख’ बटालियन की एक कंपनी का नेतृत्व करके युद्धभूमि में अदम्य साहस का परिचय दिया था। सेना ने उत्कृष्ट सैन्य नेतृत्व के लिए कर्नल कौशिक को ‘वीर चक्र’ से नवाजा था। 1936 के ओलंपिक में भारतीय हॉकी खिलाड़ी इक्तिदार अली दारा शाह विभाजन के बाद 1948 के लंदन ओलंपिक में पाकिस्तान की हॉकी टीम के कप्तान थे। जब तक हॉकी में सेना के खिलाडिय़ों का दबदबा कायम रहा, भारतीय हॉकी की सल्तनत का इकबाल बुलंदी पर ही रहा।

मगर 1976 के ‘मॉट्रियल’ ओलंपिक में हॉकी का आगाज एस्ट्रोटर्फ पर हुआ। हॉकी टीम में सेना के खिलाडिय़ों की भागीदारी कम होना, टीम में विदेशी कोचों की दस्तक तथा खेल संघों पर सियासी सदारत जैसे कई कारणों से ध्यान चंद की खेल विरासत हॉकी की बादशाहत पर गर्दिश के बादल मंडराने शुरू हो गए। क्रिकेट के बढ़ते क्रेज़ ने लोगों का खेलों के प्रति नजरिया ही बदल दिया है। विचारणीय है कि जब हमारे महान खिलाडिय़ों ने ओलंपिक में हॉकी की गोल्डन गाथा लिखी थी, उस दौर में भारत गुरबत से जूझ रहा था। खिलाड़ी तमाम खेल सुविधाओं से महरूम थे, लेकिन वर्तमान में देश में हॉकी के लिए करोड़ों रुपए के एस्ट्रोटर्फ व एथलेटिक के लिए सिंथेटिक ट्रैक बिछ चुके हंै। देशी व विदेशी कोचों से लैस कई खेल होस्टल स्थापित हो चुके हैं, लेकिन इसके बावजूद खेलों के परिणाम सम्मानजनक नहीं हैं। खेलों के बेहतर भविष्य के लिए इन तमाम पहलुओं पर विचार होना चाहिए। बहरहाल बीबीसी ने ध्यान चंद की तुलना अमेरिका के दिग्गज बॉक्सर मोहम्मद अली से की थी। जर्मन का कुख्यात तानाशाह ‘एडोल्फ हिटलर’ भी ध्यान चंद की करिश्माई हॉकी का मुरीद बन चुका था। 1936 के बर्लिन ओलंपिक के दौरान जर्मन अखबार की हेडलाइन ‘ओलंपिक परिसर में अब जादू है’, ध्यान चंद के बेहतरीन खेल की तस्दीक करती है। ओलंपिक पोडियम तक भारतीय हॉकी की स्वर्णिम बुनियाद के मुख्य शिल्पकार मेजर ध्यान चंद ने खिलाड़ी, कोच व चयनकर्ता के रूप में सन् 1926 से लेकर 1964 तक भारतीय हॉकी को अपना अविस्मरणीय योगदान दिया था।

सेना से सेवानिवृत्ति के समय सन् 1956 में सरकार ने मेजर ध्यान चंद को ‘पदम भूषण’ से अलंकृत किया था। मगर हॉकी के उस महान जादूगर को सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ देने की मांग देश में एक मुद्दत से उठ रही है। युद्धभूमि से लेकर वैश्विक खेल पटल तक तिरंगा फहराने वाले सैनिकों का सम्मान होना चाहिए। खेल मंत्रालय को इस विषय पर गंभीरता से विचार करना होगा। खेल दिवस पर ध्यान चंद को राष्ट्र शत-शत नमन करता है।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं


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