विश्व के नजरिए में तिब्बत का प्रश्न

भारतीय जनता पार्टी के लिए तो तिब्बत के प्रश्न की एक ही कसौटी है जिसकी घोषणा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर ने 1962 में ही कर दी थी। उन्होंने कहा था कि तिब्बत भारत सरकार की भूल के कारण चीन के फंदे में फंसा है…

चीन की मंशा है कि तिब्बत का प्रश्न इतिहास के पन्नों में सदा के लिए दफन हो जाए और विश्व के लोग मान लें कि तिब्बत चीन का ही हिस्सा है। लेकिन तिब्बत के लोग हैं कि इस प्रश्न को दफन की बात तो दूर, मरने भी नहीं देते। दुनिया के बाक़ी देश तो तिब्बत के प्रश्न को अपनी अंतरराष्ट्रीय राजनीति का हिस्सा मानते हैं। यदि चीन को तंग करना है तो तिब्बत विश्व राजनीति का अनसुलझा प्रश्न है और यदि चीन उनकी राजनीति की शतरंज पर सही मोहरा है तो तिब्बत चीन का हिस्सा है। अमेरिका ने निक्सन के वक्त जब चीन को साधना जरूरी समझा था तब नेपाल के मुस्तांग में चीन से लड़ रहे सात सौ तिब्बती योद्धाओं को अनाथ छोड़ दिया था। यह अलग बात है कि उन तिब्बती योद्धाओं को चीन से लडऩे का प्रशिक्षण भी कोलोरोडो में अमेरिका ने ही दिया था। लेकिन हिन्दुस्तान के लिए तिब्बत का प्रश्न उसकी अतरराष्ट्रीय या राष्ट्रीय राजनीति का हिस्सा नहीं है, बल्कि उसकी उत्तरी सीमा की सुरक्षा से जुड़ा हुआ प्रश्न है। इसका कारण है कि इतिहास में तिब्बत सदा स्वतंत्र देश रहा है। भारत की सीमा तिब्बत से लगती है, चीन से नहीं। अलबत्ता तिब्बत की सीमा भारत और चीन दोनों से लगती है। तिब्बत और चीन के बीच भयंकर युद्ध भी होते रहे हैं। इनमें कभी तिब्बत जीतता रहा है और कभी चीन।

अपने पड़ोसी देशों मंचूरिया, मंगोलिया, तुर्किस्तान और तिब्बत के निरंतर हमलों से दुखी होकर ही चीन के राजाओं ने अपनी सीमा पर दीवार बनाई थी जिसे आज भी दुनिया के सात आश्चर्यों में गिना जाता है। लेकिन भारत और तिब्बत के बीच पड़ोसी होने के बावजूद कभी युद्ध नहीं हुआ। दरअसल भारत और चीन के बीच तिब्बत एक विशाल बफर स्टेट है। भारत में शासक कोई भी रहा हो, सभी मानते थे कि तिब्बत एक स्वतंत्र और अलग देश है। यहां तक कि वे नेहरु जिनके राज्यकाल में तिब्बत का अस्तित्व और भविष्य दांव पर लगा, वे भी मानते थे कि तिब्बत एक अलग आज़ाद देश है। यही कारण था कि 1947 से कुछ महीने पहले उन्होंने दिल्ली के पांडव कि़ला में एशिया के देशों का एक सम्मेलन बुलाया था, जिसमें तिब्बत और चीन दोनों ने हिस्सा लिया था और दोनों देशों के झंडे लहराए गए थे। यह अलग बात है कि बाद में जब कम्युनिस्टों ने चीन पर कब्जा कर लिया और 1950 में चीन ने तिब्बत पर हमला कर दिया तो नेहरु अपनी अंतरराष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षाओं व कल्पनाओं के चलते चीन के पक्ष में खड़े हो गए। कम्युनिस्ट और उनकी लॉबी अभी भी यह मानती है कि यदि भारत दलाईलामा को शरण न देता तो चीन कभी भी भारत पर हमला न करता और दोनों देशों के संबंध मधुर बने रहते।

लेकिन वे भूल जाते हैं कि जब चीन ने तिब्बत और पूर्वी तुर्किस्तान पर, जिसे वह अब शिंजियांग कहता है, कब्जा कर लिया था तो उसे दोनों देशों को जोडऩे के लिए लद्दाख का अक्साईचिन क्षेत्र चाहिए था, जिसे उसने कब्जे में करके तिब्बत और काशगर को जोडऩे वाली सडक़ बना ली थी। उस समय तक भारत ने दलाई लामा को शरण नहीं दी थी। इसलिए चीन के भारत के साथ जो संबंध हैं, उसका दलाईलामा को शरण देने या न देने से कुछ लेना-देना नहीं है। चीन विस्तारवादी देश है और वह भारत के उत्तरी सीमांत पर आंख लगाए बैठा है। वह अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख को अपना क्षेत्र बताता रहता है। चीन की इस दादागिरी से छुटकारा पाने का एक ही उपाय है कि तिब्बत चीन के कब्जे से मुक्त हो जाए। तब अपने आप भारत-चीन सीमा का राग समाप्त हो जाएगा। लेकिन मुख्य प्रश्न यह है कि क्या यह संभव है? या भारत सरकार भी यही हल स्वीकार करती है? जहां तक संभव का प्रश्न है, उसमें सबसे बड़ी आशा की किरण यही है कि तिब्बतियों ने अभी तक 75 साल बाद भी हार स्वीकार नहीं की है। मंचूरिया के लोगों ने मन से अपनी पराजय को स्वीकार कर लिया है और वे हान जाति के महासागर में विलीन हो गए हैं या हो रहे हैं, लेकिन तिब्बत के लोग तिब्बत के भीतर और बाहर निरंतर चीन से लड़ाई लड़ रहे हैं।

उनकी दलाईलामा में आस्था डगमगाई नहीं है। ध्यान रखना चाहिए तिब्बत में राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता का प्रतीक तिब्बत का भूभाग नहीं है, बल्कि दलाई लामा हैं। तिब्बत के लोग मानते हैं कि जब तक दलाईलामा सुरक्षित हैं तब तक तिब्बत एवं उसकी राष्ट्रीयता सुरक्षित है। यही कारण है कि तिब्बत के भीतर निरंतर विद्रोह होते रहते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि विद्रोह करने वाली युवा पीढ़ी है, जिसने कभी दलाई लामा के दर्शन भी नहीं किए हैं। वे दलाई लामा के नाम पर चीन की सरकार को ललकारते रहते हैं। शायद बहुत कम लोगों को पता होगा कि पिछले पांच साल में डेढ़ सौ से भी ज्यादा तिब्बती युवाओं व भिक्षुओं ने चीन के आधिपत्य का विरोध करते हुए आत्मदाह करके प्राणोत्सर्ग किया है। दुनिया के स्वतंत्रता संग्रामों में यह विलक्षण उदाहरण है। तिब्बत का यह स्वतंत्रता संग्राम अहिंसक है। वे आत्म बलिदान कर रहे हैं, लेकिन चीन के अधिकारियों के खिलाफ बल प्रयोग नहीं कर रहे। चीन चाहता है कि तिब्बत के लोग चीन के खिलाफ बल प्रयोग करें। ज़ाहिर है चीन राज्य सरकार की मशीनरी का प्रयोग कहीं बड़े स्तर पर करके, इसी बहाने से तिब्बती स्वतंत्रता आंदोलन को कुचल सकता है। तिब्बत के पास अहिंसा की ही ताक़त है जिसका मुक़ाबला चीन नहीं कर सकता।

चीन के पास सैनिक बल है जिसका मुक़ाबला तिब्बत नहीं कर सकता। यही कारण है कि तिब्बती अपने बल से चीन के सैनिक बल को आश्चर्यचकित किए हुए हैं। लेकिन भारत सरकार की क्या नीति है? अभी तक भारत सरकार तिब्बत के प्रश्न पर सीधे-सीधे चीन से पंगा लेने से बचती रही है। यही कारण था कि उसने अब तक भारत-तिब्बत सीमा पर आधारभूत संरचना का भी निर्माण नहीं किया था। जबकि इसके विपरीत चीन ने इस सीमा के अपने हिस्से में सैनिक दृष्टि से अकूत धन ख़र्च किया। यहां तक कि उसने अरसा पहले, चीन को तिब्बत से जोडऩे वाली रेलवे लाईन का भी निर्माण कर लिया। अब उस रेलवे लाईन को भारत-तिब्बत सीमा तक लाने की तैयारी कर रहा है। यह भारत सरकार की आधिकारिक नीति थी, ऐसा कांग्रेस सरकार के रक्षा मंत्री ने बाक़ायदा संसद को सूचित किया था। लेकिन 2014 में भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र में सरकार बनने के बाद भारत सरकार की नीति में परिवर्तन हुआ और उसने भारत-तिब्बत सीमा पर आधारभूत संरचना का निर्माण ही नहीं शुरू किया बल्कि सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र में सडक़ों, पुलों और रेल लाईनों का निर्माण शुरू किया।

यह ठीक है कि इसे रुकवाने के लिए पर्यावरण रक्षा के नाम पर कुछ लोग न्यायालय तक भी गए, लेकिन सरकार ने सुरक्षा को लेकर किसी कि़स्म की ढील दिखाने से इंकार कर दिया। चीन जानता है कि भारत की यह परिवर्तित नीति कहीं न कहीं तिब्बत के प्रश्न को भी प्रभावित करती है। भारत सरकार ने लद्दाख को केन्द्र शासित राज्य का दर्जा देते समय भी साफ किया था कि इसके जिस हिस्से पर चीन ने कब्जा किया हुआ है, सरकार उसे छुड़ाने के लिए भी प्रतिबद्ध है। इस बार दलाईलामा के जन्मदिन को भारत सरकार ने जिस प्रकार महत्ता प्रदान की है, उसके संकेत भी चीन से छिपे हुए नहीं हैं। चीन जानता है कि भारत-चीन विवाद से तिब्बत के भीतर रह रहे तिब्बतियों को नैतिक बल मिलता है। भारतीय जनता पार्टी के लिए तो तिब्बत के प्रश्न की एक ही कसौटी है जिसकी घोषणा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर ने 1962 में ही कर दी थी। उन्होंने कहा था कि तिब्बत भारत सरकार की भूल के कारण चीन के फंदे में फंसा है। अब भारत को अपनी इस भूल का प्रायश्चित तिब्बत को आज़ाद करवाकर करना होगा। इस घोषणा को पूरा करने की पहली शर्त है भारत का स्वयं ताक़तवर हो जाना । वर्तमान भारत सरकार उसी दिशा की ओर क़दम बढ़ा रही है। इसके अर्थ तिब्बत भी जानता है और चीन भी।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com


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