जम्मू-कश्मीर की राजनीति में धमाका

गुलाम नबी के इस नए प्रकरण के कारण भाजपा को और लाभ मिल सकता है। कश्मीर घाटी में राजनीतिक लड़ाई का एक धरातल एटीएम बनाम देसी कश्मीरी मुसलमानों का भी सदा रहता है। कश्मीर घाटी में एटीएम से अभिप्राय अरब, सैयदों, मध्य एशिया के तुर्कों व मुगल मंगोलों से है। ये मुसलमान सदियों से घाटी में रहते आए हैं, लेकिन अभी भी अपने आपको देसी कश्मीरी मुसलमानों से अव्वल दर्जे का मानते हैं। देसी कश्मीरी मुसलमानों को वे पसमांदा ही मानते हैं, चाहे बेचारे देसी मुसलमान अपने नाम के आगे जितने मजऱ्ी शेख लिखते रहें। वैसे तो स्वर्गीय शेख मोहम्मद अब्दुल्ला का कुनबा देसी मुसलमानों में ही आता है, अपने नाम के आगे शेख लिख कर उन्होंने अपने आप को ही धोखा दिया, एटीएम ने उन्हें कभी अपनी बिरादरी का नहीं स्वीकार किया। लेकिन शेख का कुनबा अपने राजनीतिक हितों की शतरंज के चलते देसी कश्मीरी मुसलमानों के साथ खड़ा नहीं हो सका और एटीएम ने उसे कभी अपनी कुल परम्परा के बराबर माना नहीं। पीडीपी तो खुले रूप में ही एटीएम की राजनीतिक तंजीम है। एटीएम आतंकियों के माध्यम से उन पर नियंत्रण रखता है…

सोनिया कांग्रेस का एक और स्तम्भ ढह गया। उसके वरिष्ठ सेनापति गुलाम नबी आज़ाद सचमुच आज़ाद हो गए । उन्होंने कांग्रेस को खुदा हाफिज़़ कह दिया है । लेकिन उन्होंने कांग्रेस व्यक्तिगत कारणों से नहीं छोड़ी बल्कि असली कारण बताते हुए पांच पन्नों की एक चि_ी भी, कांग्रेस की लम्बे अरसे से चली आ रहीं अंतरिम अध्यक्षा सोनिया गांधी को लिखी। चि_ी का कहना है कि कांग्रेस का बंटाधार करने वालों की यदि फेहरिस्त बनाई जाए तो सबसे ऊपर राहुल गांधी का नाम लिखा जाएगा । वैसे बाद में उन्होंने व्यंग्य भी किया कि कांग्रेस अपनी बीमारी का इलाज करवाने जाती है तो डाक्टरों की बजाय वहां के कम्पाऊंडरों से ही दवाई की पंखुडिय़ां लेकर आ जाती है। कहा तो यहां तक भी गया कि कई बार कांग्रेस के बड़े फैसले राहुल गांधी के सुरक्षा कर्मचारी भी ले लेते हैं। अब कांग्रेस में जो कुल मिला कर बचा है, उसने हस्बेमामूल आज़ाद हो गए गुलाम नबी पर शाब्दिक हमला बोलना शुरू कर दिया है। जयराम रमेश ज्यादा ग़ुस्से में हैं। उन्हें अभी भी सोनिया के कुनबे से आशा है कि यदि कुछ मिलेगा तो यहीं से मिलेगा। वे शायद इसलिए भी ख़ुश हैं कि चलो ‘कुछ मिलने’ वाली चीज़ में से हिस्सेदारी मांगने वालों में से एक तो कम हुआ। कपिल सिब्बल की यह आशा कुछ महीने पहले ख़त्म हो गई थी, इसलिए पुराने क्लायंट को छोड़ कर उन्होंने लखनऊ में नया क्लायंट पकड़ लिया । गुलाम नबी के पास ऐसा कोई क्लायंट शायद नहीं था। लेकिन कांग्रेस गुलाम नबी के आज़ाद हो जाने को लेकर अभी भी एक भ्रम में है। उसे शायद पता नहीं था कि गुलाम नबी, आनन्द शर्मा की तरह आसमानी नेता नहीं हैं। गुलाम नबी की जडें़ जम्मू कश्मीर की राजनीति में गहरे जमी हुई हैं।

यही कारण है कि आज़ाद के साथ राज्य की लगभग सारी कांग्रेस सोनिया कुनबे का साथ छोड़ कर चली गई। यह अलग बात है कि राज्य में कांग्रेस की जडें़ बहुत अरसा पहले ही बहुत हद तक सूख चुकी हैं। लेकिन जितनी अभी भी बची थीं, उनको गुलाम नबी ने आज़ाद कर दिया है। जम्मू कश्मीर में विधान सभा के चुनाव अगले कुछ महीनों में कभी भी हो सकते हैं। गुलाम नबी के पाला बदलने से किसको नफा-नुक़सान हो सकता है, यह सवाल सबसे महत्वपूर्ण है। कांग्रेस को नुक़सान होगा, यह जानने या समझने के लिए बहुत ज्यादा माथापच्ची करने की जरूरत नहीं है। लेकिन लाभ किसको होगा, शुरू में यह चर्चा राजनीतिक गलियारे में हो रही थी कि गुलाम नबी भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो जाएंगे। लेकिन जैसे संकेत मिल रहे हैं उससे नहीं लगता कि वे भाजपा में शामिल होंगे। वैसे भाजपा भी शायद उनको अपने दल में लेने के लिए उतनी इच्छुक नहीं है। आज़ाद ने ऐसे संकेत भी दिए हैं कि वे कैप्टन अमरेन्द्र सिंह की तरह अपनी नई पार्टी बनाएंगे। इसमें कोई शक नहीं कि उस पार्टी से परोक्ष रूप से भारतीय जनता पार्टी को ही लाभ होगा। इस समय शायद गुलाम नबी का एक मात्र उद्देश्य भी कांग्रेस को ज्यादा से ज्यादा नुक़सान पहुंचाना ही है । गुलाम नबी के पक्ष में एक और बात भी है। उनका जम्मू क्षेत्र के अतिरिक्त कश्मीर घाटी में भी ख़ासा प्रभाव है।

वैसे वे जम्मू संभाग के भद्रवाह के रहने वाले हैं लेकिन ऐसा भी कहा जाता है कि कभी उनके पूर्वज भी कश्मीर घाटी से आकर ही भद्रवाह में बस गए थे। इसलिए यदि वे अपनी अलग पार्टी बना लेते हैं तो घाटी में कश्मीर केन्द्रित पांच दल हो जाएंगे। नैशनल कान्फ्रेंस, पीडीपी, अपनी पार्टी, पीपुल्ज कान्फेंस और पांचवीं गुलाम नबी की नई पार्टी। कश्मीर घाटी के मतदाता इन पांच दलों में बंटेंगे तो हो सकता है इस विभाजन के कारण घाटी में से भारतीय जनता पार्टी को भी विधानसभा की चंद सीटें आ जाएं। पिछले साल स्थानीय निकायों के चुनाव में भाजपा ने घाटी में दाखिल होने में सफलता तो पा ही ली थी। गुलाम नबी के इस नए प्रकरण के कारण भाजपा को और लाभ मिल सकता है। कश्मीर घाटी में राजनीतिक लड़ाई का एक धरातल एटीएम बनाम देसी कश्मीरी मुसलमानों का भी सदा रहता है। कश्मीर घाटी में एटीएम से अभिप्राय अरब, सैयदों, मध्य एशिया के तुर्कों व मुगल मंगोलों से है। ये मुसलमान सदियों से घाटी में रहते आए हैं, लेकिन अभी भी अपने आपको देसी कश्मीरी मुसलमानों से अव्वल दर्जे का मानते हैं। देसी कश्मीरी मुसलमानों को वे पसमांदा ही मानते हैं, चाहे बेचारे देसी मुसलमान अपने नाम के आगे जितने मजऱ्ी शेख लिखते रहें। वैसे तो स्वर्गीय शेख मोहम्मद अब्दुल्ला का कुनबा देसी मुसलमानों में ही आता है, अपने नाम के आगे शेख लिख कर उन्होंने अपने आप को ही धोखा दिया, एटीएम ने उन्हें कभी अपनी बिरादरी का नहीं स्वीकार किया।

लेकिन शेख का कुनबा अपने राजनीतिक हितों की शतरंज के चलते देसी कश्मीरी मुसलमानों के साथ खड़ा नहीं हो सका और एटीएम ने उसे कभी अपनी कुल परम्परा के बराबर माना नहीं। पीडीपी तो खुले रूप में ही एटीएम की राजनीतिक तंजीम है। देसी कश्मीरी मुसलमान अपने को अनाथ मानने लगे थे। एटीएम आतंकियों के माध्यम से उन पर नियंत्रण रखता है। कभी उनसे चुनावों का बहिष्कार करवाता है और कभी किसी ख़ास प्रत्याशी के पक्ष में वोट देने का फतवा जारी करवाता है। लेकिन गुलाम नबी आज़ाद देसी कश्मीरी मुसलमानों की श्रेणी में आते हैं। उनके आने से कश्मीर के देसी मुसलमानों को नया रास्ता मिल सकता है। अब देखना होगा कि गुलाम नबी क्या घाटी के देसी कश्मीरी मुसलमानों को भी एटीएम के राजनीतिक शिकंजे से मुक्त करवा सकेंगे। जम्मू-कश्मीर में इन दिनों राजनीतिक गतिविधियां तेज हो गई हैं। केंद्र सरकार जल्द से जल्द वहां चुनाव करवाना चाहती है। कश्मीर की राजनीतिक पार्टियां भी चाहती हैं कि वहां जल्द से जल्द चुनाव हों। कश्मीर के चुनाव में एक मुद्दा यह भी होगा कि राज्य को अपना पूर्व दर्जा वापस मिले। इस बार का चुनाव रोचक होने जा रहा है। हरेक दल में एक-दूसरे से आगे बढऩे की होड़ लगी हुई है। मुकाबला इस बार बहुकोणीय होगा, क्योंकि कश्मीर में काफी ज्यादा राजनीतिक पार्टियां हो चुकी हैं। अमन पसंद लोग दुआ कर रहे हैं कि जम्मू-कश्मीर में शांति के साथ चुनाव संपन्न हो जाएं।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com


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