हिमाचल में अंग्रेजी कविता : संक्षिप्त परिचय

By: Sep 18th, 2022 12:05 am

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

डा. डीसी चंबियाल

मो.-8894251702

सन 1983 के उत्तरार्ध में डा. निरंजन मोहन्ती ने मुझे हिमाचल की कविता पर ‘पोइट्री’ नामक अर्धवार्षिक पत्रिका के एक अंक को संपादित करने के लिए आमंत्रित किया। तब पहली बार मैंने हिमाचल की अंग्रेजी कविता के बारे में सोचा। उस समय मुश्किल से तीन-चार लेखक ही हिमाचल में अंग्रेजी में काव्य लेखन करते थे। कालान्तर में जब 1988 में मैंने पोइटक्रिट शीर्ष से अर्धवार्षिक पत्रिका का संपादन और प्रकाशन प्रारम्भ किया, तब कतिपय अन्य लेखकों से सम्पर्क हुआ जो अंग्रेजी में लिख रहेे थे या जिन्होंने लिखना प्रारम्भ किया था। हिमाचल की अंग्रेजी कविता में पहला नाम प्रो.सोम पी. रंचन का आता है। उनकी प्रथम काव्य पुस्तक ‘स्पलिंटर्ड़ मिरर’ 1960 में प्रकाशित हुई थी। उस समय वह अमेरिका में अध्यापन कार्य कर रहे थे।

इसके पश्चात उन्होंने ‘वी अन्ड कोलम्बिया’, ‘क्राइस्ट अन्ड आई’, ‘टु विवेक दॅन आई केम’, ‘मदर शारदा अन्ड आई’, ‘सॉल मेकिंग विद अरविंदो’, ‘अॅन अनाट्मी ऑव इन्डियन सायकी’, ‘न्यू साइट्स ऑन कृष्णा’, ‘सॉल मेकिंग विद पोइमज़’, ‘थ्री पोइमज़’ आदि कई अन्य काव्य संग्रह लिखे। वह एक महत्वपूर्ण विशिष्ट कवि हैं तथा अपनी अलग भाषा शैली से हिमाचल की अंग्रेज़ी कविता में अपनी अलग पहचान बनाए हुए हैं। इनके पश्चात सोलन से सन्त राम का नाम आता है जिन्होंने अंग्रेज़ी भाषा में 1963 से लेखन प्रारम्भ किया था। यह पेशे से पत्रकार हैं। इनकी दो कविताएं – फलक्रम तथा इनक्पेस्ट –  ‘पोइट्री ऑव हिमाचल’ में 1984 में प्रकाशित हुई थीं। महाराज कृष्ण काव की कार्यस्थली हिमाचल रही है। इनका प्रथम काव्य संग्रह ‘अॅन ओएसिस ऑव सॉलिट्यूड’ 1973 में प्रकाशित हुई। इनकी अन्य पुस्तकें ‘लुक क्लोज़ली अॅट ओम’ तथा ‘कुशा ग्रास’ आदि हैं तथा वह हिन्दी तथा अंग्रेज़ी में निरन्तर सृजनरत रहे हैं।  केदार नाथ शर्मा अपनी कविताओं में प्रकृति, राजनीति, जीवन की समस्याओं तथा आधुनिक मनुष्य को उद्वेलित करने वाली समस्याओं के बारे में लिखते हैं। उनका प्रथम काव्य संग्रह ‘द् सॉन्ग ऑव लाइफ’ 1975 में प्रकाशित हुआ। तदनन्तर ‘द व्हिफ’, ‘अवर एंशिअंट ऑर्किड’, ‘रसीम’, ‘पॅराडाइज़ रिटर्ण्ड अंड अदर पोइमज़’, ‘फ्लाइट टु हॅल अन्ड अदर पोइमज़’ तथा ‘लिटल पोइमज फॉर स्माल चिलड्रन’ हैं। अंतिम दो संग्रह गत वर्ष ही प्रकाशित हुए हैं। इनकी पुस्तकों के शीर्षक ही उनके बारे में काफी कुछ कहते हैं। ए. ए. अंज़रानी का परिचय पोइटक्रिट के माध्यम से हुआ। इनका प्रथम काव्य संग्रह ‘द लवर’ 1976 में प्रकाशित हुआ था। इनकी भी 6-7 कविताएं पोइटक्रिट पत्रिका में 1993 में छपी थीं। अपनी पहली पुस्तक में वह प्रेम के देवता कामदेव की प्रशंसा करते प्रतीत होते हैं। मदन लाल कौल, धर्मशाला निवासी, ने सेवानिवृत्ति के कई वर्षों बाद लिखना प्रारम्भ किया। इनकी कविताएं अधिकांशतः श्री साईं बाबा पर अटूट विश्वास से परिपूर्ण हैं और कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

इनकी कविताएं चार पुस्तकों – ‘होम कमिंग’ (1993), ‘द पिलग्रिमिज’ (1994), ‘द क्वेस्ट फॉर पीस’ (1999) तथा ‘गॉड इज़ नाउ हिअ’ (2004) – में संग्रहित हैं। विवेकानन्द, टैगोर, बुद्ध, राम, कृष्ण, गांधी, स्वामी रामतीर्थ, गंगा आदि कविताएं कवि के विस्तृत ज्ञान से परिचित करवाती हैं। लाजपत राय नागपाल (1936), नगरोटा बगवां, ने भी साहित्य सृजन बहुत देर से प्रारम्भ किया। इनकी कविताएं ‘टवाइलाइट’ (1989) नामक पुस्तक में संग्रहित हैं। इनकी कविताओं में जीवन के संघर्ष में कठिनाइयों को सहने के लिए दार्शनिक स्वभाव अपनाने का बोध होता है। कैलाश आहलूवालिया (1937) का मानना है कि कविता जीवन जीने का निश्चल ढंग है। इनकी कविताएं अनेक पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं और हो भी रही हैं। इनके तीन काव्य संग्रह – ‘ओ द एंटहिल मैन’ (2000), ‘आल्टरनेटिव डैस्टिनेसंज़’ (2010) तथा ‘वॉयसिस आर देयर’ (2016) हैं। अपनी कविताओं में वह भूत, भविष्य और अपने भीतर का अवलोकन करते प्रतीत होते हैं। के. सी. पराशर (1941) कुल्लु से भूविज्ञानी हैं। इनकी कविताओं का चिंतन है कि यदि मानव प्रकृति का बहुत अधिक दोहन करता है तो भविष्य में वह उसके ही विनाश का कारण बनेगा। इनके दो काव्य संग्रह – ‘आइकॉन ऑन रॉक’ (2009) तथा ‘द लास्ट फ्लाइट अव मोनाल’ (2016) – हैं। हैटी प्रिम कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर से अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में रिटायर हुईं। उनकी कविताओं में निर्धनता के प्रति सजगता और चिंता रहती है। उनका एक काव्य संग्रह ‘शिफ्ंिटग शैडोज’़ (1991) कलकता से प्रकाशित हुआ है। उनकी कविताओं का प्रभाव पाठक के मन में जीवन पर्यन्त रहने वाला है। बालकृष्ण डोहरू भी पालमपुर से हैं। इनकी कविताएं तीन पुस्तकों – ‘म्यूजिंग्ज़’, ‘प्लंजिज़’ तथा ‘रोज़ ऑन फाई’ – में संग्रहित हैं। इनके लेखन का आरम्भ भी पोइटक्रिट से ही हुआ हैं।

प्रेम अनुभूति तथा जीवन संबंधी विचार इनकी कविताओं का क्षेत्र है। कृष्णगोपाल का पहला काव्य संग्रह – ‘द लाइव सेंसर’ – 101 कविताओं के साथ 1989 में प्रकाशित हुआ। इनकी कविताओं में बिखरते सामाजिक मूल्यों के साथ-साथ संवेदनशीलता तथा परिपक्वता का परिचय भी होता है। इनमें आदमी के लालच और धन-लोलुपता का भी बोध होता है। पी. सी. के. प्रेम (1945) हिमाचली लेखकों में सबसे अधिक पुस्तकों, लगभग 60, के लेखक हैं। इतिहास, मिथ, धर्म, वेद व पुराण सभी इनके लेखन विधा में आते हैं। वह समय व स्थान, लोगों व उनकी जीवनशैली तथा सामाजिक परिवर्तन के चेतनशील दर्शक हैं। उनकी कविताएं देश और विदेश में समान रूप से संकलित हुई हैं। इनकी काव्य रचनाओं में-प्रथम ‘अमंग द शैडोज़’ (1989), ‘इनिग्माज़ अव आइडैंटिटी’, ‘दोज़ डिस्टैंट हॉराइज़न’, ‘द बर्मुडा ट्रॉयंगल’, ‘ऑरक्ल्ज़ अव द लास्ट डिकेड’, ‘रेनबोज़ अॅट सिक्षटी’, ‘अव दिस एज़ अंड ऑब्स्कयोरिटी अंड अॅदर पोइमज़’, ‘टेलज़ अव हॉफ मेॅन अंड अदर पोइमज़’, ‘कलाज़ अव लाइफ’, ‘ययाती रिटर्नज़ अंड अॅदर पोइमज़’ तथा ‘अंड द टाइम चेजिज़’ (2018)-प्रमुख हैं। वह हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में हिमाचली लेखकों के प्रेरणा-स्रोत हैं। उनकी लेखनी निरन्तर चलती रहती है। वीरेंद्र परमार डाढ-पलमपुर से हैं। यह मानव भविष्य के बारे चिन्तित हैं। इनका मानना है कि जीवन का उद्देश्य प्राप्त करने के लिये श्रद्धा-भाव होना नितांत आवश्यक है। इनके ‘सैंडी शोरज़’, ‘कोलाज़ अव क्वाइट्यूड’, ‘इनविजि़वल शोर्ज़’, ‘द वॉयस डिवाइन’ तथा ‘विदिन अण्ड विदाउट’ (2009) पांच काव्य संग्रह हैं।

-(शेष भाग निचले कॉलम में)

हिमाचल रचित साहित्य -३१

अतिथि संपादक

डा. सुशील कुमार फुल्ल

मो.-9418080088

विमर्श के बिंदु

  1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
  2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
  3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
  4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
  5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
  6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
  7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
  8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
  9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
  10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
  11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

हिमाचल में रचित अंगे्रजी कविता

-(ऊपरी कॉलम का शेष भाग)

ललित एम. शर्मा (1952) धर्मशाला से हैं। यह कविताओं में जीवन के रहस्य के बारे में सोचते हैं। इनकी कविता में जीवन के हर पहलू में क्रप्शन की ओर इंगित किया गया है। इनके विचार में जीवन निराशा और पराजय का सम्मिश्रण है। इनके तीन काव्य संग्रह – ‘मैन विद अ हॉर्न’ (1986), ‘द ब्राउन ट्री’ तथा ‘पर्ल्ज़ अण्ड पैबल्ज़’(2010) – हैं। इनका मानना है कि अच्छी कविता में मनोभावों को झकझोरने वाली ऊष्णता होनी चाहिए। डी. एस. वर्मा हमीरपुर जि़ला के सुजानपुर क्षेत्र से सम्बन्ध रखते हैं। यह इन्डियन एक्सप्रैस में संपादक थे और चण्डीगढ़ में ही स्थायी रूप से बस गए हैं। इनकी प्रथम काव्य कृति ‘इमेजिज़’ 1989 में साहित्य जगत में आई। इनकी रचनाओं में प्रकृति विशेष बिन्दु है परन्तु सृजन रहस्य, पुनरोत्पति तथा विनाश जैसे विचारों पर दार्शनिक धारा सतत् प्रवाहमान है। अन्ततः इन्हें सत्य का आभास होता है और जीवन के संघर्षों, दुखों तथा क्षणिक सुखों के जीवन के पश्चात वह सनातन सत्य में विलीन हो जाना चाहते हैं। उनकी दूसरी काव्य रचना ‘द वॉइज़’ है। सुरेश जरयाल (1957) पालमपुर के सुलाह क्षेत्र से हैं। इनके लेखन की भाषा-शैली साधारण और निर्मल है। वह अपनी रचनाओं में परिचित की तरह बात करते हैं जिसकी चिंता सब के लिए है। उनकी कविताओं में आशा व प्रेम मिलता है। वह सामाजिक समस्याओं को आम आदमी की तरह देखते हैं और आमजन का समाधान खोजते हैं। इनके काव्य संग्रह – ‘चेंजिंग फेसिज़’(1999), ‘सायलैंस अव लव’, ‘रैवरीज़ इन सॉलिट्यूड’ तथा ‘क्वैस्ट अव पोइज़ी’(2002) प्रमुख हैं।

ओमेश भारती (1967) पेशे से चिकित्सक हैं। इनकी कविताएं काफी पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। इनकी कविताएं आम आदमी की विचारधारा के विपरीत सोचती हैं। इनका मानना है कि तमिलनाडू की मॅरीना-बीच धार्मिक जात्रा का स्थान और जापान में क्योतो पृथ्वी, मन्दिरों तथा फूलों को सहेजने के बिम्ब हैं। वह चाहते हैं कि आम आदमी राजनीतिक दृष्टि से सचेतक रहे। इनकी एक काव्य रचना, ‘माइ इन्टरैक्शन विद् लाइफ’ 2007 में प्रकाशित हुई थी। हरीश ठाकुर (1967) की कविताओं में जीवन के संघर्षों केे बावजूद आशा निरन्तर बनी रहती है। अपनी प्रकृति से सम्बन्ध रखने वाली कविताओं में वह कोमलता, समरसता, लयमयता व दार्शनिकता के भाव रखते हैं। समसामयिक जीवन की उलझनें उनकी कविताओं में परिलक्षित होती हैं। ‘इन द किंगडम अव द डैड’ (1999), ‘द सन लाइर’, ‘कन्फैशन्ज़’, ‘साइलॅन्ट फ्लोज़ डेन्यूब’ तथा ‘नेचर साम्ज़’ (2011) इनके कुछ प्रमुख काव्य संग्रह हैं। वह शिमला से ‘कॉनिफर कालिंग’ नामक पत्रिका का संपादन व प्रकाशन करते हैं। कंवर दिनेश ठाकुर (1973) की कविता में प्रेम जीवनदायी शक्ति की तरह काम करता है तथा कठिन परिस्थितियों में आदमी की कार्य क्षमता को बल देता है। वह प्रेम, जीवन तथा नव-भोर की आशा के बारे बात करते हैं। इनकी काव्य अनुभूतियां और अनुभव जीवन की विषमताओं की बात करते हैं। इनके ‘रैवरीज़ इनसैसंट’(1993), ‘इम्पलोजन्ज़’, ‘असाइडज़’, ‘थिंकिंग अलाउड’, ‘द थियोफनी’, ‘साउंडिंग्ज़’, ‘लवलाइन’, ‘हाउस अरेस्ट’, ‘टुगेदरः अ पॉइम’ तथा ‘द जंक्चर्ज़ अव साटोरी’’ (2003) मुख्य काव्य संग्रह हैं। सुमन सच्चर (1964) मण्डी से हैं, परन्तु अब पालमपुर के स्थायी निवासी बन गए हैं। इनका एक काव्य संग्रह- ‘फ्लाइट्स इनटु वैक्यूम’- 2000 में प्रकाशित हुआ। वह प्रकृति में मौसम की विविधता को काव्य दृष्टि की अनश्वरता में बयां करते हैं।

जीवन के प्रति इनका आशावादी दृष्टिकोण है तथा वह समाज के निर्बल वर्ग के प्रति सचेत व चिंतित हैं। इनकी कविताएं पोइटक्रिट में छपती रही हैं। प्रियंका वैद्य संप्रति हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफैसर हैं। इनकी प्रथम काव्य पुस्तक ‘व्हेन कुकू सिंगज़ इन हिमालय’ अभी-अभी प्रकाशित हुई है। इनकी कविताओं में हिमाचल और हिमालय की आत्मा प्रतिबिम्बित होती प्रतीत होती है। अभ्युदिता सम्प्रति राजकीय महाविद्यालय नगरोटा बगवां में अंग्रेजी की प्राध्यापक हैं। इनकी कुछ कविताएं पोइटक्रिट में छपी हैं। इसी तरह धर्मशाला से तृप्ता टण्डन, पी. के. शर्मा तथा पालमपुर से द्विजेन्द्र द्विज, अर्जुन कनौजिया, शिवालिक कटोच, अल्का वत्स, इला परमार, पूनम राना, नवनीत शर्मा, अवनीश व सीएना चम्बयाल, तथा शिमला से संजय मैहता और जोगिन्दर नगर से मोहिन्दर सिंह राणा आदि ने भी अंग्रेज़ी कविता सृजन में रुचि दिखाई है। इन सबकी रचनाएं ‘पोइटक्रिट’ में प्रकाशित होती रही हैं। सीएना की कविताएं केरल से प्रकाशित पत्रिका आई. जे. एम. एल. में भी छप चुकी हैं। डा. डी. सी. चंबियाल (1950) वर्तमान के निराशाजनक सामाजिक ढांचे के बारे में सचेत हैं तथा उन लोगों के बारे सोचते हैं जो अपने आपको आमजन के मसीहा मानते हैं, पर वास्तव में उनके हितैषी हैं नहीं। वह अपनी कविता में जीवन को छायाचित्रों और बिम्बों के माध्यम से प्रदर्शित करते हैं;  ऐसे विश्व की रचना करते हैं जिसमें आशा तथा विश्वास हो।

इनकी ‘ब्रोकन इमेजिज़’(1983), ‘द कार्गोज़ अव द बलीडिंग हार्टज़ अंड अदर पोअम्ज़’, ‘पर्सैपसन्ज़’, ‘जाइरेटिंग हॉक्स अंड सिंकिंग रोडज़’, ‘बिफोर द पैटल्ज़ अन्फोल्ड’, ‘दिस प्रोमाइजि़ंग एज़ अंड अदर पोइम्ज़’, ‘मैलो टोन्ज़’, ‘वर्ड़ज़’, ‘ऑवर अव अंटिपैथी’, ‘रीवर अव हैपिनॅस’ तथा ‘सांग अव लाइट अंड अदर पोइम्ज़’(2018) आदि प्रमुख संग्रह हैं। इनकी कविताएं देश-विदेश में समान रूप से अनेक संग्रहों में संकलित हुई हैं। 1988 से ‘पोइटक्रिट’ शीर्षक से अंतरराष्ट्रीय पत्रिका, जो साहित्यिक आलोचना व समसामयिक कविता को समर्पित है, का निरंतर संपादन कर रहे हैं। आशा है इस संक्षिप्त परिचय से ‘दिव्य हिमाचल’ के पाठक हिमाचल के कुछेक ऐसे रचनाकारों से परिचित होंगे जिन्होंने आंग्ल भाषा को अपने लेखन का माध्यम बनाया है। इस लेख के लिए मैं पी. सी. के. प्रेम की पुस्तक ‘हिस्टरी अव कन्टैम्पोरेरी इन्डियन इंगलिश पोइट्री’ तथा ‘पोइटक्रिट’ पत्रिका का आभारी हूं जहां से इस लेख के लिए सामग्री उपलब्ध हुई है। हिमाचल के जो भी लेखक इस लेख में स्थान नहीं पा सके हैं, वे मेरे संज्ञान में नहीं हैं।

-डा. डीसी चंबियाल

चिंतन : पोरी मेला : संस्कृति का परिचायक

शेर सिंह

मो.-8447037777

-(पिछले अंक का शेष भाग)

यहां इस बिंदु पर इस विशेषता का उल्लेख करना आवश्यक है कि सप्त धाराएं क्या हैं, किसे कहते हैं? इस संबंध में एक लोककथा अथवा किंवदंती बहुत प्रचलित और लोकप्रिय है। किंवदंती यह है कि टिंडणु पुहाल (गड़रिया) द्वारा बालक रूप में महादेव को वन क्षेत्र से अपने कंधे पर उठाकर त्रिलोकनाथ लाने तथा महादेव के साथ सात परियों का आना है। और फिर उन सात परियों का सात जल धाराओं के रूप में बदल जाने का मिथक है। त्रिलोकनाथ का ठाकुर यानी पुराने समय के चंबा एवं कुल्लू के राजाओं द्वारा उनकी ओर से लाहुल के उस क्षेत्र विशेष हेतु नियुक्त किया हुआ शासक, और अब उनके वंशज घोड़े पर शिव-शंकर को बिठाकर उन्हें, उनके सात साथी परियों से मिलने-भेंटने के लिए ले जाते हैं। सप्त धाराओं की परिक्रमा करने के पश्चात महादेव अपने गणों सहित वापस त्रिलोकनाथ लौट आते हैं। मेले में प्रदेश और देश के अन्य भागों से श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं। जैसा उल्लेख किया गया है, मेले का आयोजन शिव-पार्वती के शुभ विवाह से संबंधित पौराणिक एवं लोककथाओं में वर्णित विधि-विधानों के अनुसार किया जाता है । तीन दिन का उत्सव समाप्त होने के पश्चात, उसी सप्ताह के रविवार को, कुछ क्षेत्रों में उसी शुक्रवार को भी, सैंकड़ों की संख्या में लोग नए वस्त्र धारण कर, फूलमालाओं से सजे तथा गाजे-बाजे सहित चंबा जिले के भरमौर में स्थित मणिमहेश की ओर पैदल प्रस्थान करते हैं।

यहां मणिमहेश को ही शिव का स्थायी निवास माना जाता है। पोरी के पश्चात सैंकड़ों की संख्या में लोगों का अलग-अलग जत्था अथवा समूह मणिमहेश को शिव-पार्वती के विवाह में शामिल बाराती-घराती के रूप में जाते हैं। त्रिलोकनाथ से मणिमहेश जाने का पैदल रास्ता जोबरंग, खोड़देऊ पद्धर, कुगती जोत, आलियांस और अंतिम पड़ाव मणिमहेश रहता है। यात्रा का पहला पड़ाव खोड़देऊ पद्धर है। इस क्षेत्र में खोड़देऊ या खोड़देव भगवान शिव-पार्वती के ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय स्वामी को कहा जाता है। खोड़देव पद्धर के ऊपर केलंग बजीर का मंदिर है। लाहुल और चंबा में कार्तिकेय स्वामी को ही केलंग बजीर कहा जाता है। यह जत्था समुद्र तल से 16800 फीट ऊंचे कुगती जोत होते हुए विभिन्न पड़ावों पर रुकते, रात्रि विश्राम करते हुए पांच दिन की कठिन पैदल यात्रा के पश्चात छठे दिन मणिमहेश पहुंचता है। मणिमहेश चंबा जिला के भरमौर में स्थित है। मणिमहेश पहुंचकर पवित्र जल कुंड में स्नान-ध्यान कर, अपने साथ लाए त्रिशूल, डमरू इत्यादि को भगवान शिव शंकर को अर्पित-समर्पित करते हुए मंदिर में चढ़ाते हैं। गौरी कुंड में केवल महिलाएं ही स्नान करती हैं। लेकिन डल झील में महिला-पुरुष सभी स्नान करते हैं। यहां का पूरा परिवेश शिवमय है।

यहां आने वाले श्रद्धालु अथवा स्थानीय लोग शिव भक्ति में इतने डूब जाते हैं कि गूर-चेलों के अतिरिक्त कुछ दूसरे लोग भी अपने भीतर शिव स्वरूप प्रवेश होना मानकर, भगवान का ‘खेल’ खेलना शुरू कर देते हैं। कैलाश पर्वत पर भोलेनाथ शेषमणि के रूप में विराजमान हैं। भगवान शिव लोगों को मणि के रूप में दर्शन देते हैं। इसलिए इस धार्मिक स्थल का नाम मणिमहेश पड़ा। भगवान शिव अथवा महेश के मुकुट पर आभूषण मणि का प्रतीक है। झील या जलकुंड के सामने मणिमहेश कैलाश शिखर पर मणि का दिव्य दर्शन आधी रात से प्रातः ब्रहृम मुहूर्त तक ही होता है। यह अलौकिक एवं दुर्लभ दृश्य केवल कुछ क्षणों तक ही दिखता है। कुछ सौभाग्यशाली लोग ही इस नजारे को देख पाते हैं। जिसे भी इस चमकते मणि का दर्शन हो जाता है, वह भाव विभोर हो उठता है। दिव्य दर्शन पाने वाले ऐसे श्रद्धालु अपने भाग्य को प्रबल मानते हुए अपना यहां आना सार्थक होना समझते हैं। इसे मांगी गई मनौतियां-मन्नतें पूर्ण होने का शुभ संकेत मानकर शिव शक्ति पर अटूट विश्वास से भर जाते हैं।

मणमहेश से वापसी पर यहां के पवित्र जलकुंड से जल को पात्रों में भर कर साथ लाते हैं। अपने-अपने घरों में वापस पहुंचने पर पूरे गांव अथवा आसपास के गांवों के लिए अपने घर में जातर/जादर का आयोजन करते हैं। जातर/जादर का मुख्य प्रयोजन यह होता है कि देवों के देव महादेव उनसे प्रसन्न हुए हैं। वे पवित्र मणिमहेश की कठिन यात्रा के पश्चात सकुशल अपने घर/परिवार में लौट आए हैं। उन्हें इच्छित फल मिलने का पूर्ण विश्वास होता है। बिगड़े काम बन जाते हैं। घर में शुभता-पवित्रता का अहसास होता है। मन में सात्विक एवं सकारात्मक विचार पैदा होते हैं। पोरी मेला भगवान शिव और माता पार्वती को समर्पित है। मेले-उत्सव सामाजिक, सार्वजनिक खुशियों के अभिन्न अंग हैं। त्रिलोकनाथ के ठाकुर वंश के उत्तराधिकारियों द्वारा पोरी मेले की अगुवाई पीढ़ी दर पीढ़ी की जा रही है। गर्मियों में भरमौर के गद्दी अपनी भेड़-बकरियां लेकर लाहुल को आते हैं। इन्हें शिव के बाराती माना जाता है।

पुस्तक समीक्षा : वेद पढ़ने की सीख देती किताब

गुलेर से संबंधित हिमाचल के प्रसिद्ध लेखक डा. आशुतोष गुलेरी ‘निःशब्द’ इस बार आध्यात्मिक विषय पर ‘नारायण उवाच’ पुस्तक लेकर आए हैं। इस पुस्तक में पुरुषसूक्त का वैज्ञानिक विश्लेषण एवं विवेचन हुआ है। प्रकाशक कौटिल्य बुक्स, नई दिल्ली से प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य 260 रुपए है। आध्यात्मिक प्रश्नों को खंगालती पुस्तक 112 पृष्ठों में समेटी गई है। लेखक का मत है कि इस प्रयास से केवल इतनी आशा है कि पाठकों को वेद पढ़ने की प्रेरणा मिले तथा धर्म से आगे बढ़कर वेदों में समाहित वैज्ञानिक दृष्टिकोण को खंगालने की दिशा में सार्थक प्रयास संभव हों। भारतीय दर्शन शास्त्र, आयुर्वेद, वेद-वेदांग के अध्ययन की छाप डा. आशुतोष के लेखन में स्पष्ट अनुभव की जा सकती है। पुस्तक की विषय-वस्तु उस अध्ययन की पुष्टि मात्र है। वेदों की ऋचाओं में छिपे वास्तविक ज्ञान के बृहद परिदृश्यों में से पुरुष-सूक्त का वैज्ञानिक विश्लेषण एवं विवेचन करके उसे विमर्श के रूप में प्रस्तुत करना निश्चित ही सराहनीय है।

भविष्य में यह पुस्तक संदर्भ गं्रथ सिद्ध होगी, ऐसा विश्वास है। विवेचन एवं विश्लेषण के विषयों में व्यापक विविधता है। सहस्रशीर्ष पुरुष, अन्न-रोहित पुरुष, त्रिपाद पुरुष, क्रमित पुरुष, विराट, कर्म यज्ञ, सिद्ध पुरुष, सर्वहुत यज्ञ तथा वेद जैसे विषयों को पुस्तक में जगह मिली है। इसके अलावा अभ्युदय, जिज्ञासा, वर्णाश्रयी पुरुष, व्याप्त पुरुष, लोकांतर पुरुष, पशु पुरुष तथा धर्म पर भी चिंतन हुआ है। वेदों को ब्रह्मांड के समस्त ज्ञान का अक्षय भंडार माना जाता है। इसी प्रकार वेदों की वैज्ञानिकता को भी निर्विवाद कहा गया है, लेकिन क्या कहने मात्र से वेदों की वैज्ञानिकता सिद्ध हो सकती है? यह प्रश्न एक लंबे समय से जिज्ञासा बनकर लेखक के मस्तिष्क पटल पर दौड़ता रहा। यदि  वेद वैज्ञानिक हैं तो उन्हें धर्म से जोड़कर देखने का दुराग्रह भी वैज्ञानिक है क्या? ऐसे अनेक प्रश्नों ने वेद पढ़ने की जिज्ञासा उत्पन्न की और इसी जिज्ञासा से निकलकर यह पुस्तक पाठकों के समक्ष है। आशा है पाठकों के अनेक आध्यात्मिक प्रश्नों को यह पुस्तक सुलझाएगी।

-फीचर डेस्क


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