यशपाल के साहित्य में हिमाचली परिवेश

By: Oct 16th, 2022 12:07 am

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक, डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -35

विमर्श के बिंदु
1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

डा. हेमराज कौशिक, मो.-9418010646

यशपाल प्रेमचंदोत्तर पीढ़ी के अत्यंत सक्षम साहित्य सर्जक हैं। उन्होंने साहित्य की विविध विधाओं कहानी, उपन्यास, निबंध, नाटक, यात्रा वृतांत, संस्मरण और पत्रकारिता आदि पर समान रूप में लेखनी उठाई है। यशपाल के पूर्वज कांगड़ा में बसने से पूर्व हिमाचल प्रदेश के तत्कालीन जिला महासु के अंतर्गत बाघल रियासत अर्की के चंदपुर गांव के निवासी थे। यह जानकारी राजस्व रिकॉर्ड जमाबंदी टीका लुहरयाल मौजा भूंपल, तहसील हमीरपुर, जिला कांगड़ा भूमि खाता में अंकित है। भूमि स्वामी के पते के रूप में साकन चंदपुर, अर्की, जिला महासु का उल्लेख है। यशपाल के दादा भोला का जन्म स्थान टिक्कर भराइयां में नहीं था, परंतु बाद में वे हिमाचल प्रदेश की हमीरपुर तहसील में भोरंज के समीप टिक्कर भराइया में बस गए थे। गांव में उनकी थोड़ी सी जमीन और कच्चा मकान था। यशपाल के पुत्र आनंद ने अपने साक्षात्कार में यह स्पष्ट किया है कि भोला के पुत्र हीरालाल तहसील के हरकारे थे।

वे विभिन्न स्थानों पर घूमते रहते, परंतु मुख्यत: टिक्कर भराइयां तथा भूम्पल में रहते थे। हीरालाल जी फिरोजपुर आते-जाते थे और यशपाल जी की माता प्रेमदेवी भी हिमाचल आती-जाती रहती थीं। भूम्पल में दादी जी की बड़ी बहन कारजो रहती थीं और बच्चे भी उनके पास ठहरते थे। यशपाल जी का जन्म 3 दिसंबर, 1903 को फिरोजपुर छावनी में हुआ था। प्रेमदेवी उस समय फिरोजपुर की कन्या पाठशाला के छात्रावास अनाथालय में अध्यापिका अधीक्षक थीं। यशपाल की माता सहनशील, साहसी और दूरदर्शी थीं। उस ज़माने में उन्होंने आर्थिक स्वावलंबी होकर आर्थिक विपन्नता से मुक्त होने का प्रयत्न किया था। उन्होंने फिरोजपुर के अनाथालय में अध्यापिका का कार्य किया। अध्यापन कार्य के कारण यशपाल की मां फिरोजपुर छावनी में रहती थीं और पिता हीरालाल कांगड़ा में रहा करते थे। वह भी कभी बालक यशपाल के साथ कांगड़ा आती रहती थीं। अध्यापिका की नौकरी करते हुए उनका कांगड़ा में स्थायी रूप में रहना संभव नहीं था, किंतु यशपाल के पिता स्थायी रूप में कांगड़ा में रहते थे। फिरोजपुर छावनी में 3 दिसंबर 1903 को यशपाल का जन्म हुआ और वहीं कुछ वर्षों के अनंतर उनका दूसरा पुत्र धर्मपाल उत्पन्न हुआ। यशपाल का जन्म फिरोजपुर छावनी में हुआ था। अधिक समय उन्होंने मैदानी क्षेत्रों में ही व्यतीत किया, किंतु पहाड़ों का प्राकृतिक सौंदर्य उन्हें सदैव मुग्ध करता रहा। इसीलिए प्रतिवर्ष वे पहाड़ी प्रदेशों में भ्रमण करने के लिए जाया करते थे। वहां के प्राकृतिक सौंदर्य पर वे न केवल मुग्ध हुए अपितु पहाड़ी जीवन को उन्होंने अपनी बहुत सी कहानियों और उपन्यासों में व्यक्त किया है। वे अपने आप को पहाड़ी मानने में सदैव गौरव अनुभव करते थे। कारागृह में रहते हुए भी उन्हें पहाड़ी जीवन से वंचित रहने का दुख अनुभव होता रहा। इसीलिए प्रतिवर्ष वे पहाड़ी प्रदेशों में भ्रमण के लिए जाया करते थे।

इस काल में पत्नी प्रकाशवती पाल को लिखे एक पत्र में यशपाल ने हिमाचल के अपने पहाड़ों के प्रति प्रेम को व्यक्त किया है : ‘प्रिय! मैं पहाड़ी हूं परंतु मेरा पहाड़ मुझ से छूट गया है। वह मेरा सुंदर पहाड़, वह मेरा पहाड़, जो पृथ्वी से ऊंचा, स्वर्ग के समीप प्रकृति की शोभा, शान है, वह पहाड़, मेरा धन मुझसे छूट गया। स्वप्नमय निंद्रा में कल्पना मय जागरण में मेरा वह पहाड़ प्रतिक्षण मेरी आंखों के सामने रहता है। मेरा पहाड़, मैं तेरे एक-एक पत्ते को आंखों में लगा लूं। तू कितना सुंदर है। कितना रम्य, कितना मोहक। कितने ही रूप नित्य रच तेरी गोद में लीला कर सुख लूटता है। तू इतना बड़ा है, पर मेरा मन चाहता है तुझे समेटकर आंखों में भर लूं।’ पहाड़ों के प्रति अनन्य प्रेम के कारण ही उनकी रचनाओं में शिमला, कुल्लू, चम्बा, मंसूरी, नैनीताल, कश्मीर घाटी, कांगड़ा, पालमपुर, धौलाधार की घाटियों का मनोरम चित्रण है। यशपाल का जन्म पंजाब के सपाट प्रदेश में हुआ और जीवन पर्यंत मैदानी क्षेत्र में रहे। लखनऊ उनका साहित्यिक कार्यक्षेत्र रहा। इसके बावजूद यशपाल अपने को पहाड़ी कहने में गर्व का अनुभव करते रहे। यशपाल के मन में पहाड़ों के प्रति विशेष अनुराग था। संभवत: अपने रक्त में विद्यमान आनुवंशिक प्रभाव के कारण ही पहाड़ी पर्वतों के प्रति उनका विशिष्ट आकर्षण रहा होगा।

पर्वतीय क्षेत्रों के प्रति अनुरक्ति के कारण ही वे अल्मोड़ा, मंसूरी, कांगड़ा आदि पर्वतीय स्थानों में जाकर रहा करते थे। वे अपने जीवन के उत्तरार्ध में स्वास्थ्य सुधार के लिए पर्वतीय प्रदेशों, पहाड़ी नगरों में रहने के लिए आते रहे। पर्वतीय क्षेत्रों के प्रति प्रबल आकर्षण के कारण ही उनके कथा साहित्य के पात्र कभी अपने मामा, मौसी बहन, सहेली आदि के पास पहाड़ी प्रदेश हिमाचल में आते जाते हुए दिखाई देते हैं। कथा साहित्य से लेकर विचार प्रधान कृतियों तक में यशपाल के पर्वतीय परिवेश के आकर्षण को अनुभव किया जा सकता है। उनकी तीस प्रतिशत कहानियों में पर्वतीय परिवेश मुखर हुआ है। मनुष्य के रूप, मेरी तेरी उसकी बात, झूठा सच आदि औपन्यासिक कृतियों में भी पर्वतीय परिवेश का चित्रण हुआ है। ‘मनुष्य के रूप’ में तो परिवर्ती परिवेश का सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिदृश्य अपनी समस्याओं के साथ सामने आया है। पूंजीवादी समाज में आर्थिक वैषम्य में पिसते निम्न मध्य वर्ग, विशेषत: नारी से जुड़ी समस्याओं और स्थितियों को लेखक ने पर्वतीय परिवेश के संदर्भ में सामने लाया है। सोमा और धनसिंह के संदर्भ में लेखक ने कांगड़ा जनजीवन का यथार्थ चित्रण किया है। बैजनाथ, धर्मशाला, कांगड़ा का प्राकृतिक सौंदर्य, स्थानीय भाषा की रंगत, सामाजिक जीवन से जुड़ी आस्थाएं, विश्वास, सामाजिक विकृतियां, जाति विधान की जकड़ बंदी, पुरुष प्रधान समाज में नारी की स्थिति आदि हिमाचल के पर्वतीय परिवेश को जीवंत रूप में प्रस्तुत करती है। पर्वतीय क्षेत्र में विवाह के विविध रूप नारी विक्रय, सास ससुर का बहू के प्रति दृष्टिकोण, समाज में विधवा के प्रति दृष्टि ‘मनुष्य के रूप’ में हिमाचल के पर्वतीय परिवेश के संदर्भ में जीवंत रूप में प्रस्तुत हुई है। हिमाचली परिवेश में सोमा के परिवार की विशेषत: सास-ससुर की भाषा की रंगत देखते ही बनती है। यशपाल के साहित्य में पर्वतीय परिवेश का चित्रण व्यापक फलक पर नहीं हुआ है। परिवेश चित्रण में उनकी दृष्टि अधिक नहीं रमी है। उनकी कहानियां परिवेश प्रधान भी नहीं हैं, बल्कि वह किसी न किसी रूप में कथानक अथवा चरित्र सृष्टि में सहायक रूप में आया है। उनकी कहानियों में चित्रित परिवेश कहानी की मूल संवेदना से संबद्ध पात्रों की मन:स्थितियों को उद्घाटित करने वाला है। इस प्रकार परिवेश चित्रण उनकी कहानियों के अविभाज्य अंग के रूप में हुआ है।

यशपाल के साहित्य की विशेषताएं

मैदानी क्षेत्रों में जीवन यापन करते हुए भी यशपाल का पहाड़ के सौंदर्य, कल कल करते झरनों और नदियों से अटूट लगाव रहा। पहाड़ी प्राकृतिक सौंदर्य, पर्वतीय परिवेश का यथार्थ, उससे संबद्ध समस्याएं उनकी बहुत सी कहानियों का विषय रही हैं। नगरीय जीवन की नीरसता से ऊब कर यशपाल पहाड़ी सौंदर्य के चित्रण में रमण करते हुए प्रतीत होते हैं। ‘फूलों का कुर्ता’ में प्रोफेसर का यशपाल की भांति पहाड़ों के प्रति लगाव है। इस कहानी में प्रोफेसर कहता है, मैं नगरों के वैमनस्य पूर्ण संघर्ष से भागकर पहाड़ में अपने गांव चला जाता हूं। ‘एक राजा’ कहानी के प्रोफेसर को पहाडिय़ों की उपत्यका में सुख मिलता है। पहाडिय़ों से घिरी उपत्यका की उस बस्ती में जाने पर मां की गोद में आंख मूंद कर सो जाने का सुख मिलता है। ‘पहाड़ की स्मृति’ और ‘पुलिस की दफा’ में भी यशपाल की पहाड़ के प्रति अनन्य अनुरक्ति देखी जा सकती है। ‘पहाड़ की स्मृति’ में मेहमान का यह कथन उल्लेखनीय है, ‘वहां मौसी के गांव में बहुत कुछ वैसा है न पहाड़, न व्यास नदी की आवाज, न ऐसे पेड़, मुझे बुखार आ गया था।’ यशपाल पहाड़ों के प्राकृतिक सौंदर्य के प्रति अभिभूत अवश्य थे, किंतु निर्जन प्रकृति उन्हें कभी प्रीतिकर नहीं लगी। यही कारण है कि ‘शिकायत’ कहानी की निर्मल को निर्जन प्रकृति डरावनी प्रतीत होती है। ]

‘अगर हो जाता’ कहानी में प्रकृति के साथ मानव की अनिवार्यता स्वीकार की गई है। इस कहानी में नाथ यह चिंतन करता है ‘बादलों, पहाड़ों और वन राशियों को आदमी कहां तक देखता रहेगा। आदमी तो आदमी को देखना चाहता है।’ पहाड़ों के प्रति अनुरक्ति का उनका अन्य कारण यह भी रहा है कि वहां के विचित्र रीति रिवाज, अंधविश्वास, जाति विधान, धार्मिक रूढिय़ों आदि से उन्हें अपनी कहानियों के लिए कथानक मिल सके हैं। ‘आतिथ्य’ कहानी में हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र में अतिथि सत्कार के विचित्र रूप को चित्रित करते हुए यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि यहां पर परंपरागत रूढिग़्रस्त समाज विभिन्न प्रथाओं का पालन करते हुए नैतिक आदर्शों को खंडित कर बैठता है। कहानी में पर्यटन का शौक रखने वाले रामशरण लिपिक के अतिथि सत्कार के संदर्भ में इसे प्रकट किया गया है। कहानी में पहाड़ी क्षेत्र ‘लंगोड़ी’ के निवासियों के अतिथि सत्कार के संदर्भ में यह स्पष्ट किया है कि अतिथि को वे भगवान समझ कर उसे सर्वस्व अर्पित करने के लिए तत्पर रहते हैं। ‘पहाड़ का छल’ पर्वतीय क्षेत्र की बहू पत्नी प्रथा और प्राचीन काल की सती प्रथा की विभीषिका को रेखांकित करने वाली कहानी है। एक सिगरेट, कुल मर्यादा, कोकिला डकैत, करवा व्रत, वैष्णवी, या साईं सच्चे कहानियों में पर्वतीय परिवेश के संदर्भ में नारी शोषण के लिए उत्तरदायी कारणों की तलाश की गई है। ‘एक सिगरेट’ में पहाड़ी युवती की करुण गाथा है जिसका पति सेना में भर्ती होकर चला जाता है। पति के वियोग में उसकी समीपता अनुभव करने के लिए पति द्वारा घर छोड़ी सिगरेट को मुंह से लगाती है। घर के लोग युवती को इस क्रिया को करते देखकर बाजारू मान कर घर से निकाल देते हैं। निराश्रित युवती परिस्थितिवश औरत बेचने वालों के चंगुल में फंस जाती है। ‘तूफान का दैत्य’ पर्वतीय क्षेत्र में व्याप्त अंधविश्वास को अनावृत करने की दृष्टि से लिखी कहानी है। इसमें अलौकिक शक्तियों में आस्था पर व्यंग्य किया गया है। पहाड़ी लोगों की अंधश्रद्धा को हिमाचल के पहाड़ी गांव के संदर्भ में प्रकट किया है। लोगों का यह निरर्थक विश्वास है कि तूफान आने पर पुजारी का बरछा घुमाना और तूफान टलने का कारण पुजारी की बरछा घुमाना है। यह कहानी पर्वतीय क्षेत्रों के अंध श्रद्धालुओं, स्वार्थी पंडितों, पुजारियों की अज्ञानता और स्वार्थपरता को प्रकट करती है। यशपाल को घूमने का बहुत शौक था। उन्होंने देश से बाहर बहुत सी यात्राएं कीं। उनके यात्रा वृतांत और संस्मरण इसके साक्षी हैं।

देश के भीतर के पर्वतीय क्षेत्र जैसे शिमला से कुल्लू, अल्मोड़ा और नैनीताल का सच्चा चित्रण उनकी विचार प्रधान कृतियों में अंकित है। ‘शिमला से कुल्लू यात्रा’ में नारकंडास, बागी, हाटु टिब्बा, लूरी, कुमारसैन, जुलोड़ी, बंजार, कुल्लू आदि पड़ाव, वहां के जनजीवन, बीच-बीच में बसे अंग्रेजों और साधन संपन्न वर्ग की शान शौकत की चर्चा की है। ‘ह्रदय’ कहानी में पहाड़ी औरत घास काटते हुए मायके का स्मरण करती है। वहां जाने का गीत गाती है, यथा ‘सिकंदर ए दीए धारे मुइय्ये पले निठड़ी होयां’ क्योंकि पहाडऩ का मायका पर्वतों की ओट में है। ‘न्याय का दंड’ कहानी में धक्कू झिंझोटी गीत गाता है। ‘मृत्युंजय’ कहानी में एक पहाड़ी लोकगीत की पंक्तियां उल्लेखनीय हैं…‘गोरिये दा मन लगदा चंबे दिये धारा’। यही गीत ‘सआदत’ कहानी में भी आया है। इस प्रकार यशपाल के साहित्य में हिमाचल का पर्वतीय परिवेश जीवंत रूप में प्रस्तुत हुआ है। यशपाल के साहित्य में परिवेश चित्रण सामाजिक समस्याओं से संपृक्त होकर आया है। उनके परिवेश चित्रण में प्रयोजनीयता और विश्वसनीयता दोनों ही हैं। यशपाल क्योंकि एक दर्शन लेकर साहित्य के क्षेत्र में अवतरित हुए, इसलिए उनके परिवेश में आर्थिक वैषम्य और नारी शोषण की समस्याएं प्रमुख रही हैं और उनसे जुड़ कर ही परिवेश मुखर हुआ है। यशपाल के पत्रों में भी पहाड़ के प्रति अनुराग परिलक्षित होता है। एक स्थान पर वह प्रकाशवती पाल को लिखते हैं, ‘पहाड़ के सौंदर्य को तुम अधिक से अधिक अनुभव करो, यह आकांक्षा मेरी इतनी प्रबल है कि इस विषय में मैं चुप नहीं रह सकता। प्रियतमे जितना भी संभव हो तुम गहराई से पहाड़ के सौंदर्य को पीना। मुझे उससे खूब संतोष होगा। मैं कहता हूं तुम कांगड़ा, विशेषतया ‘ओल्ड कांगड़ा फोर्ट’ जरूर देखें। पुराना कांगड़ा, उसके पुराने किले के खंडहर, नीचे आभ्रक और चारों ओर से उसे गोद में लिए नदियों का बल खाना कितना सुंदर है। शायद उतना ही जितना कि मेरा तुम्हारा तुम्हारे प्रति शाश्वत अनुराग।’ पहाड़ों के प्रति अनुराग के साथ पहाड़ी बोली और पहाड़ी व्यंजनों के प्रति भी उनका लगाव रहा है। इसीलिए वे प्रकाशवती पाल को कहते हैं, ‘मंसा बेबे को गुरु धारण कर एक तो पहाड़ी ढंग की रसोई सीख लेना और सबसे जरूरी है हमारी पहाड़ी बोली। अब तुम जब जाओगी तो पहाड़ी बोली का इम्तहान देना होगा। पास होने पर इनाम भी जरूर मिलेगा।’ इस क्रम में वे आगे लिखते हैं, ‘कुछ पहाड़ी गाने जरूर सीख लेना।’

-डा. हेमराज कौशिक

गणेश गनी के लिए ‘थोड़ा समय निकाल लेना’

उत्तरोत्तर आगे बढ़ती अपनी कविता के साथ गणेश गनी की नई पेशकश ‘थोड़ा समय निकाल लेना’, पाठकों को अभिभूत और नवचिंतन को आहूत करती है। यहां कुछ अनसुलझी चिंगारियां, शांत गर्म हवाओं के बीहड़, बर्फ सी दबी हुई चीखें और कहीं कोमल स्पर्श में प्रेम की हांक सुनाई देती है। कविता धीर गंभीर, कहीं छूईमुई हुए शरीर की तरह, तो कहीं अपनी तड़प से निकली भूखी शेरनी के आक्रामक मंजर की गवाही में दर्ज एक उद्घोष की तरह। समय से ऋतु का आभास कराती हवाओं में उडऩा अलग बात है, लेकिन यहां वक्त की मांग पर जब छांव और धूप के रिश्तों की पड़ताल में ‘थोड़ा सा समय निकाल लेना’ जैसे संग्रह की उत्पत्ति होती है, तो कविता अपनी प्रखरता, प्रवीणता और प्रवाह के साथ मौजूद हो जाती है। यह स्थिति-परिस्थिति और मौसम के स्पर्श पर निर्भर करता या कभी जब निपट अकेला होने का बोध, मन से वार्तालाप करता है, ‘मुझे मालूम है, तुम मेरे पास आना चाहोगे जरूर – एक दिन कविता ढूंढते हुए। अफसोस कि – बहुत वक्त बीत चुका होगा तब।’ यहां कविता अपनी परिपक्वता की अभिव्यक्ति में कहने को उन्मुक्त है, ‘वह हिंसक शब्दों से मुक्त है, उसके लिए न प्रश्न महत्त्वपूर्ण है और न ही उत्तर।’ संग्रह की कुल 49 कविताओं के बीच कवि का जुनून विषय को विस्तार, विचार को आधार, मौलिकता को आकार और अभिव्यक्ति को व्यवहार बना देता है, तब जिंदगी के झरोखे नजदीक और प्रकृति के भरोसे दूर से आने लगते हैं, ‘बादलों के बारे में/कुछ लोग शक पैदा कर रहे हैं/पर आंखों के भीतर पानी ने/एक जिद्द पकड़ ली है/और नदी ने समुद्र से/कर ली सांठगांठ।’ गनी अपने परिवेश से कविता का परिवेश चुनते हैं, तो सामान्य सी परिस्थितियां भी परिकल्पना की एक नई ईजाद में गहरी हो जाती हैं। यहीं से जीवन के कतरों पर चढ़ी बैसाखियां चीखती हैं, तो कवि यूं भी सुन लेता है, ‘बन जाना किसी दिन/अचानक से मिली/एक अनजान शवयात्रा का हिस्सा/चुपके से कांधा दे आना, और फिर हो जाना गुम।’ ‘थोड़ा समय निकाल लेना’ की वकालत में खड़ी कई कविताएं शिल्प, शब्द चित्र, सोच और नए संवाद की जगह बनाती हैं।

संग्रह के भीतर, समय, अनुवाद जरूरी है, घोषणा, मुखजुबानी बातें, भीतर एक गांव – एक नदी एक पुल, थोड़ा समय निकाल लेना, राजधानी में, नदी भीतर उतर जाती है, अगली यात्रा से बस दो घड़ी पहले, शपथ पत्रों का लेनदेन, डर और विस्मय, वह आदमी एक पूरी डायरी है व बर्फ की गवाही, गवाही नहीं मानी जाएगी इत्यादि कविताओं में नए रास्तों की खोज, भाषा का ओज और जीवन का बोध, कुछ नए कदम उठा रहा है। कई कविताओं में एक साथ कई घुंघरू बजते हैं और फिर छन्न से कानों तक शब्दों का स्पर्श, ‘सबके अपने-अपने गांव होते हैं/जिनके नहीं होते/उनके भीतर-भीतर भी बसने लगते हैं, एक समय बाद, धीरे-धीरे, गांव अपने-अपने।’ और न्याय की दहलीज पर फिसलते आदेश से, टूटते घुंघरुओं का दर्द भी यूं छलक आता है, ‘कितनी ही बार/बयान दर्ज हुए कचहरियों में/आंखों ने जो देखा – कह कर/पर फैसलों में छूट ही जाता कुछ न कुछ/अनदेखा हर बार।’ गणेश गनी की कविता का घर्षण, राष्ट्र की वाणी, जन धारणा, अवधारणा और जनाक्रोष, ‘सत्ता के पास घोषणा की ताकत है/तो जनता के पास सुनने की मजबूरी/पर सत्ता के पास कान नहीं होते/जैसे जनता के पास नहीं होती जुबान।’ या ‘ऐसे समय/विचारों को ही बंदीगृह में डाल/जड़ दिया जाता है ताला/दोस्त! हमारा मस्तिष्क – तब बन जाता है हमारा किराएदार।’

-निर्मल असो

कविता संग्रह : थोड़ा समय निकाल लेना
कवि : गणेश गनी
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर
कीमत : 150 रुपए

पुस्तक समीक्षा : जीने के तरीकों का अवलोकन करती पुस्तक

सोलन निवासी अतुल कुमार चौरसिया ने कोरोना काल व लॉकडाउन के दौरान लोगों के जीवन में आए परिवर्तनों पर ‘जीवन में अल्पविराम’ नाम से एक काव्य संग्रह लिखा है। जीने के तरीकों में आए बदलाव पर प्रकाश डालती ब्ल्यू रोज पब्लिकेशन दिल्ली से प्रकाशित यह पुस्तक काफी रोचक है। लेखक ने लोगों की जीवन शैली को देखा और उसका चित्रण कविताओं में करना आरंभ कर दिया।

लेखक ने छोटी-छोटी कविताओं के माध्यम से अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है। कोरोना काल में चिकित्सक, सफाई कर्मी तथा पुलिस कर्मचारी अपना भरपूर योगदान करते हैं। इन कर्मठ कर्मचारियों को समर्पित कविताओं को विशेष रूप से काव्य संग्रह में सम्मिलित किया गया है। मानव के दैनिक जीवन से जुड़े लगभग सभी विषयों जैसे टीवी, खेल, कार्यालय, धार्मिक स्थल, स्कूल, सिनेमा, शॉपिंग, राशिफल, विवाह, मेले इत्यादि का सजीव चित्रण करने का प्रयास किया है। इस सबके अलावा मजदूर, किसान, चालक, मिठाई वाला, गृहणी, व्यापारी, कर्मचारी की व्यथा का वर्णन करने का प्रयास किया गया है। किताब की कीमत 178 रुपए है। आशा है ये कविताएं पाठकों को जरूर पसंद आएंगी।

-फीचर डेस्क


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