मंडी के दिवंगत साहित्यकार

By: Oct 9th, 2022 12:07 am

अतिथि संपादक, डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -34

विमर्श के बिंदु
1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

रेखा वशिष्ठ, मो.-8219084406

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

-(पिछले अंक का शेष भाग)
उन्होंने इस विशद कार्य के निष्पादन के लिए व्यापक यात्राएं और अध्ययन किया। वास्तु शिल्प, मूर्ति कला, भाषा और साहित्य की सूक्ष्म पकड़ तथा सामाजिक व धार्मिक विषयों के गहन सर्वेक्षण करते रहने के कारण वह चलते-फिरते विश्वकोष की तरह थे। इसके अतिरिक्त काश्मीरी शैव दर्शन और विशेषत: प्रत्यभिज्ञा दर्शन के आधिकारिक विद्वान थे। वह प्रदेश के शिक्षा एवं संस्कृति राज्य सलाहकार बोर्ड के सदस्य, अकादमिक परिषद एचपीयू और एचपीयू न्यायालय के सदस्य भी रहे। उनकी प्रकाशित पुस्तकों में हिंदी शिक्षण विधि, कामायनी का आनंदवाद, टैम्पल्ज ऑफ मंडी (हिंदी व अंग्रेजी), जीवन निकष (कविता संग्रह), पंडित भवानी दत्त शास्त्री, भगवद्गीता और आनंदमय जीवन, न्यू टे्रंड्ज इन इंडियन एजुकेशन और टैम्पल्ज आफ हिमाचल प्रदेश हैं। इसके अतिरिक्त शिक्षा और भाषा पर इनके कई लेख देशी-विदेशी जर्नल में छपे हैं। इन्हें सन् 2000 में राष्ट्रपति द्वारा अंतरराष्ट्रीय सहस्राब्दी हिंदी सेवा सम्मान प्रदान किया गया। डा. उपाध्याय मंडी शहर, जिला, राज्य और देश-विदेश के कई सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक संगठनों से जुड़े रहे और अपना मूल्यवान योगदान देते रहे। डा. चमन लाल मल्होत्रा का जन्म 29 मई 1935 को मंडी नगर में हुआ। इनके पिता श्री हेमचंद मल्होत्रा और माता गंगी देवी थी। चमन लाल मल्होत्रा पेशे से एक सफल डाक्टर और सर्जन रहे।

बिलासपुर, कुल्लू और मंडी में मुख्य चिकित्सा अधिकारी के रूप में सेवाएं देने के पश्चात उप स्वास्थ्य निदेशक और निदेशक के पद पर कार्य किया और वर्ष 1993 में हिमाचल सरकार के स्वास्थ्य विभाग से सेवानिवृत्त हुए। इन्हें धर्म, इतिहास और योग में विशेष रुचि थी। इन विषयों पर इन्होंने गहरा अध्ययन किया था। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कहानियां, एकांकी और लेख प्रकाशित होते रहते थे। ‘हिमाचल का क्रांतिकारिक इतिहास’ इनकी उल्लेखनीय प्रकाशित पुस्तक है जिसके लिए इन्हें हिमाचल प्रदेश भाषा, कला एवं संस्कृति विभाग द्वारा पुरस्कृत किया गया था। डा. बीएल कपूर का 2 फरवरी 1936 को मंडी नगर में जन्म हुआ। 1960 से सेवानिवृत्ति तक वह नेत्र विशेषज्ञ के रूप में प्रदेश के कई चिकित्सालयों में काम करते रहे। अपने कार्यकाल में वह हिमाचल के छह जिलों में मुख्य चिकित्सा अधिकारी रहे। विद्यार्थी जीवन से ही इतिहास और संस्कृति के अतिरिक्त साहित्य में भी इनकी रुचि रही। व्यावसायिक जीवन की व्यस्तता के बाद जो भी समय मिलता, उसे इतिहास और पुरातत्व की पुस्तकों के अध्ययन में बिताना उनका पुराना शौक था। इस अध्ययन के फलस्वरूप उन्होंने ‘हिमाचल : इतिहास और परंपरा’ नाम की पुस्तक लिखी जो बहुत चर्चित हुई और लोकप्रिय भी। इसके चार संस्करण निकले। इसके अतिरिक्त इनकी हिमाचल संस्कृति और इतिहास के विविध पक्षों पर अंग्रेजी में पांच और हिंदी में आठ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इस रचनाकर्म के लिए डा. कपूर विभिन्न सम्मानों से पुरस्कृत हुए हैं। 20 अक्तूबर 2020 को वह स्वर्गसिधार गए। एक अन्य लेखक हैं बृजलाल हांडा। मंडी के देव हांडा और शकुंतला हांडा के घर जन्मे बीएल हांडा बचपन से ही एक होनहार छात्र थे। वल्लभ महाविद्यालय से बीए करके एमए (अंग्रेजी) करने के बाद उन्होंने आईपीएस परीक्षा पास की और मध्यप्रदेश कैडर के पुलिस आफिसर तैनात हुए। अपने जीवन के 35 वर्ष वहीं विभिन्न पदों पर रहकर उत्कृष्ट सेवाएं दी। 1980 में जब चंबल घाटी डाकुओं के आतंक से थरथरा रही थी, तो वह वहां पुलिस अधीक्षक थे।

डाकुओं के उन्मूलन, अपहृतों की सुरक्षा और संरक्षण तथा चंबल घाटी के बीहड़ों में अपनी शौर्य गाथा रचने के लिए उन्हें दो बार राष्ट्रपति पदक देकर सम्मानित किया गया। उस अति व्यस्त सेवा काल में ही इन्होंने इतना विपुल साहित्य रचा जिसके प्रचार और प्रसार के लिए संभवत: इनके पास समय की कमी रही होगी। या फिर आत्म प्रचार को लेकर संकोची स्वभाव आड़े आया होगा जिसके कारण वह एक लेखक के रूप में वह पहचान नहीं पा सके जो इन्हें मिलनी चाहिए थी। आज इंटरनेट के युग में ऐसे लोग ढूंढे भी नहीं मिलेंगे। इनके उपन्यासों में शामिल हैं : अंजुलि भर पानी, धूप की तपिश, कोई मिल गया, मिसी बाबा, तन्वी, शतरंज की बिसात, लाजवंती, नर्तक, मंजरी, दिव्या, प्रवासी पंछी, मंगल सूत्र, रो•ाा और रेवा आदि। इनके तीन कहानी संग्रह हैं : प्रणय, किटी पार्टी व धूप छांव। कविता संग्रह हैं : गुनाहों की सलीब पर, मंथन और मुट्ठी भर धूप। इस सादगी पसंद देश, समाज और कत्र्तव्य के प्रति समर्पित कलमकार ने जितना लिखा, अपने कार्यकाल में घर से दूर रहकर लिखा, परंतु इनके लेखन में अपनी पहाड़ों की मिट्टी से जुड़ाव स्पष्ट झलकता है। कोरोना काल में जब वह यह दुनिया छोडक़र गए तो अपने पीछे समृद्ध साहित्यिक विरासत छोड़ कर गए। एक अन्य लेखक हैं केशव चंद्र। उनका जन्म 1940 में तहसील रिवालसर के हवाणी गांव में हुआ। 1961 में उन्होंने हिमाचल परिवहन निगम में नौकरी शुरू की, परंतु 1968 में नौकरी छोडक़र टे्रड यूनियन मूवमेंट से जुड़े और पार्टी के पदाधिकारी बन गए। वाम विचारधारा से उनकी ईमानदार प्रतिबद्धता आजीवन बनी रही। पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख, कविताएं और कहानियां लगातार छपती रही। मध्यकाल में औरतों की बलियां और हत्याएं- यह उनकी शोधपरक महत्वपूर्ण पुस्तक है। यह श्रम साध्य कार्य उनकी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समझ को उजागर करता है। यह एक पहल भी है उन तथ्यों को उजागर करने की जो पितृ सत्तात्मक सोच की नींव हिलाने के लिए जरूरी है।

‘हिमाचल की लोक कथाएं’ और ‘सोने का पेड़ और अन्य कथाएं’ उनकी अन्य लोकोपयोगी पुस्तकें हैं। ‘महाभारत गाथा’ नाम से धारावाहिक जनसत्ता में छपता रहा। 15 जनवरी 2019 को यह कर्मयोगी स्वर्ग सिधार गए। केके वैद्य 6 अक्तूबर 1947 को मंडी नगर में पैदा हुए। आरंभिक शिक्षा विजय हाई स्कूल और वल्लभ महाविद्यालय से पूरी करके 1972 में उन्होंने सिविल इंजीनियरिंग की। वे प्रदेश के बिजली संकाय से चीफ इंजीनियर रिटायर हुए। ‘मोहभंग’ उनका कविता संग्रह है। इनकी रचनाओं में जनवादी स्वर मुखर है। प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में ये निरंतर छपते रहे। ‘तोते’ इनकी बहुत लोकप्रिय कविता रही। 24 जनवरी 2022 को इनका निधन हो गया। प्रफुल्ल परवे का जन्म 24 सितंबर 1947 को कुल्लू में हुआ था। 1968 में उन्होंने पंजाब इंजीनिरिंग कालेज चंडीगढ़ से प्रोडक्शन इंजीनियरिंग की। सेवानिवृत्ति के समय ये एच. आर. टी. सी. में जनरल मैनेजर थे। देश की सभी प्रमुख और अग्रणी साहित्यिक पत्रिकाओं में इनकी कविताएं और लें प्रकाशित हुई हैं। प्रफुल्ल की रचनाओं में प्रतिरोध और जनवादी रुझान स्पष्ट झलकता है। ‘रास्ता बनता रहे’ और ‘संसार की धूप’ इनके दो संग्रह हैं। 24 जुलाई 2006 को प्रफुल्ल असमय संसार से विदा हो गए। नागेश भारद्वाज का जन्म 18 जून 1953 को सुंदरनगर में हुआ। रोजगार के लिए कशमकश और संघर्ष के चलते वह कई जगह गए और रहे। मायानगर मुंबई में भी उन्होंने फिल्मों के लिए लिखा। रंगमंच से जुड़े और इप्टा में भी काम किया।

प्रगतिशील लेखक संघ के साथ भी जुड़े रहे। कई अखबारों के साथ जुड़े रहकर पत्रकारिता भी की। जीवन पर्यंत नागार्जुन इनके आदर्श रहे। ‘पीले फूल कनेर के’ इनका चर्चित उपन्यास है। ‘नंदन वन के पलाश’ और ‘आंधियों के घेरे में’ उनके अन्य दो उपन्यास हैं। अंतिम उपन्यास ‘वीर प्रताप’ में धारवाहिक छपता रहा। 8 जनवरी 2022 को नागेश भारद्वाज भी दुनिया से विदा हो गए। सुरेश सेन निशांत को दिवंगत लिखते हुए कलम कांप रही है। हर कविता गोष्ठी और साहित्यिक मंच पर उनकी जीवंत उपस्थिति को उनके संगी-साथी आज भी महसूस करते हैं। कविता लिखते-लिखते, कलम खुली छोडक़र वह अचानक उठकर चल दिए। 12 अगस्त 1959 को सुंदरनगर में जन्मे निशांत व्यवसाय के लिए प्रदेश के बिजली संकाय में काम करते रहे और वहीं से अभियंता पद से सेवानिवृत्त हुए। उनकी कविता पुस्तकें छपने से पहले ही वह देश की तमाम साहित्यिक पत्रिकाओं में छप चुके थे। निशांत आज भी प्रदेश में सबसे अधिक व्यापक रूप से प्रकाशित कवि हैं। सबसे अधिक पहचान भी इन्हीं को मिली है। वह एक तरह से हिमाचल की कविता का चेहरा बन गए थे। इनकी पहला कविता संग्रह ‘वे जो लकड़हारे नहीं हैं’ (2010) और दूसरा कविता संग्रह ‘कुछ थे जो कवि थे’ (2015) में प्रकाशित हुआ। तीसरा संग्रह ‘मैं यहां रहना चाहता हूं’ तब आया जब वह उसे छूने के लिए दुनिया में नहीं थे। 20 अक्तूबर 2019 को निशांत के साथ ही कविता की अपार संभावनाओं का अंत हो गया। निशांत को कविता के लिए पहला प्रफुल्ल स्मृति सम्मान दिया गया था। उन्हें सूत्र सम्मान से भी सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त कविता के लिए हिमाचल अकादमी का पुरस्कार भी उन्हें मिला। निशांत के लिए कविता एक जुनून थी। वह इसे लिखते ही नहीं, पूरी शिद्दत से जीते भी थे। शायद इसी कारण विचारों और भावनाओं के संत्रास को उनकी देह झेल नहीं पाई और असमय ही उनके सृजन पर विराम लग गया।

नरेश पंडित का जन्म मंडी नगर में 16 दिसंबर 1962 को हुआ। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा के पश्चात ललित कला महाविद्यालय चंडीगढ़ में ग्राफिक आर्ट का अध्ययन किया। एक समय नरेश की कहानियों ने साहित्य जगत को एक सुखद आश्चर्य की तरह चकित किया। उनकी कहानी ‘मांस भात’ काफी चर्चा में रही। उनके पहले प्रकाशित कहानी संग्रह का नाम भी ‘मांस भात’ ही था। पहला उपन्यास ‘धार शिकार’ जनसत्ता में धारावाहिक रूप में छपा। दूसरा कहानी संग्रह ‘झुनझुना’ उनकी मृत्यु (6 नवंबर 2019) के पश्चात छपा। एक वृत्त चित्र ‘नंदी की आंख से’ का निर्माण किया। जनसत्ता में ‘बोल मामटी’ और दैनिक भास्कर में ‘खरी न खोटी’ नाम से उनके कार्टून कॉलम निकलते थे।
चित्रकला में भी उनकी गहन रुचि थी और उनकी कई एकल प्रदर्शनियां भी हुई। 6 नवंबर 2019 को लंबी बीमारी के बाद उनकी मृत्यु हो गई। अंतिम समय तक वह स्वतंत्र लेखन और कार्टूनिस्ट के रूप में कार्य निर्वहन करते रहे। नरेश की कहानियां आम लोगों, शोषितों और वंचितों की पक्षधर हैं। डा. कांता शर्मा भी एक ऐसी रचनाकार रहीं जिसे मृत्यु ने असमय छीन लिया। 2 दिसंबर 1966 को सुंदरनगर में उनका जन्म हुआ। एम. ए. हिंदी एवं समाजशास्त्र, एम. एड., एम. फिल., पी. एच. डी. करने के बाद वह शिक्षा विभाग में अपनी सेवाएं देती रहीं। हिंदी के साथ पहाड़ी में भी उन्होंने काव्य रचना की। दूरदर्शन, रेडियो से इनकी कविताएं और साक्षात्कार प्रसारित होते रहे हैं। कई संपादित संकलनों में उनकी रचनाएं संकलित हुईं। पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएं, कहानियां प्रकाशित होती रही। उनकी प्रकाशित पुस्तकों में ‘जिंदगी अंतर्मन’ और ‘अचानक नहीं सूखी नदी’ प्रमुख हैं। डा. कांता शर्मा को हिम साहित्य परिषद द्वारा कहानी के लिए, अखिल भारतीय साहित्य परिषद द्वारा कविता पाठ के लिए, नामधारी समुदाय और ऑथर्स गिल्ड आफ हि. प्र. द्वारा पहाड़ी भाषा में काव्य रचना के लिए सम्मानित किया गया। 16 दिसंबर 2015 को कुछ समय बीमार रहने के बाद कांता सबको छोडक़र अल्पायु में ही संसार से विदा हो गईं और उनके साथ ही सृजन यात्रा भी अधूरी रह गई।

-रेखा वशिष्ठ

जीवन की काउंसिलिंग करतीं रेखा वशिष्ठ की कहानियां

आठ कहानियों के साथ रेखा वशिष्ठ का नया कथा संग्रह ‘गुमशुदा’, वास्तव में जिंदगी की ऐसी तलाश है जो हमें बहस और विमर्श के असहज बिंदुओं तक ले जाती है। कहानियां उद्वेलित करती हैं और सामान्य से परिवेश से निकलकर चिंतन का आकाश-पाताल एक कर रही हैं। इस बड़ी सी दुनिया में हर किसी के कुछ क्षण और गुम हो चुके ढेर सारे पल, दिन, महीने और साल जैसे रेंगते हुए, हमारे पांव की बेडिय़ां गिन रहे हों। कहानियां जीवन की काउंसिलिंग करती हुईं जीने की राह पर खड़ीं, अपना व्याकरण मजबूत करती हुई हर शब्द को जीवन के ही आंसुओं-संवेदनाओं को पोंछ कर पेश कर देती हैं। ‘कैंसर टोला’, जिंदगी में कैंसर की घुसपैठ कब हो जाए, यह इनसान के भयावह दौर से रूबरू होना है, ‘अब तो मौत जब भी आएगी, एक पहचाने हुए पड़ोसी की तरह आएगी क्योंकि वह दोनों कुछ दिन एक साथ एक ही जिस्म में रही हैं।’ कैंसर की टोह लेती कलम, ‘कहीं भी हो पीड़ा और हताशा देह से निथर कर आंखों से टपक रही है….।’

बीमारियों के अंतहीन सिलसिलों के बीच कैंसर पीडि़त समाज के अनिश्चित जीवन बिंदुओं को छूता अनूठा संघर्ष और अद्भुत संसार जहां हर दिन कोई न कोई हाजिरी लगती है- किसी के बचने की या अनंतलोक में विलीन होने की। किशन की बीबी (मां) तमाम सुविधाओं और बहू-बेटे के संतुलित व आत्मीय व्यवहार के बावजूद ‘गुमशुदा’ क्यों है। वह दिनचर्या के विकल्पों को अतीत की छांव में क्यों लौटाना चाहती है। बेटे द्वारा अर्जित सफलता के स्तंभों से दूर उसे किस सुकून की तलाश है। कहानी उस बुढ़ापे की टोह लेती है, जिसे परिस्थितियां पागल समझ लेती हैं, क्योंकि अक्षम शरीर के बीच मन या ‘जी’ को शांत कर पाना अति कठिन है। ‘सदा सुहागिन’, – अंधेरों में गुम अपने सन्नाटों से वार्तालाप करना मुश्किल है, फिर भी मजबूरियां इसी तरह हर दिन जीवन की चरागाह में कुछ न कुछ तलाशती हैं, ‘अपने अतीत से दूर भागने के लिए विवश लोग भविष्य की तलाश में इसी तरह कहीं किसी जगह वर्तमान के दरवाजे पर थके-हारे, धूल भरे दुखते पांवों बगल में गठड़ी दबाए दस्तकें देते खड़े होंगे।’ गांव से निकल कर शहर में अनजान रिश्ते की तलाश में रामप्यारी से रमा होकर भी उसके जीवन की शब्दावली आसानी से नहीं बदलती। गांव की दरारों में चीखता औरत का अस्तित्व और इसी विद्रोह से निकली नारी स्वतंत्रता की मौलिक अवधारणा। गुमशुदा रिश्ते या रिश्तों में गुमशुदा होना कितना सालता है, लेकिन नारी शृंगार का विद्रोही स्वरूप जब ताकतवर हो जाता है, तो औरत अपने भीतर परिवर्तन लाकर मकसद के महल बनाते हुए सामाजिक दीवारों को नेस्तनाबूद कर सकती है।

रमा में नारी स्वतंत्रता के उच्चारण भरती रेखा वशिष्ठ की यह कहानी लाज के सिंहासन और समाज के शासन को औकात बता देती है। ‘सर्वेसन्तु निरामया:’- कान, कंठ और कदम एक सरीखे होकर भी साधना में अलग सुनते, बोलते और चलते हैं, लेकिन वही एक अलग परिदृश्य में सांसारिक होकर जो सुनना, कहना या चलना चाहते हैं, उसकी पहचान बदल जाती है। साध्वी के आश्रम की खिड़कियां भीतरी दीवारों से संतुष्ट होकर भी बाहरी हवाओं में घुले प्रदूषण से मुक्त नहीं हो पातीं। इसी द्वंद्व में साध्वी अलकनंदा के आश्रम के सुर अपने ही कानों में घुसी उन आवाजों की कलह से पीडि़त हैं, जो ठीक सडक़ के उस पार रेहड़ी पर बिकती और खौलते तेल में तली जाती मछलियों की गंध और उपभोक्ता के आनंद से सराबोर हैं। माणिक को उसके धंधे की बदबू से वाकिफ करवा कर भी यह नहीं समझा पाई कि आश्रम किसी धंधे का द्वार नहीं। धर्म के स्वर-धंधे के व्यंजन से टकराते हैं, लेकिन चाहकर भी आश्रम अपनी सात्विक और आदर्श भूमिका से मछली का खोखा नहीं हटा पाया, लेकिन मछली बेचकर भी माणिक हर दिन सतसंग में शरीक होता, भले ही उसके कर्म को धर्म की मान्यता नहीं मिली। ‘दो मिनट मौन’- खानदान की मूंछों के नीचे न जाने कितने कब्रिस्तान हमारी सामाजिक मान्यताओं ने बना रखे हैं।

कालेज की छात्रा व छात्र का मौत के फंदे से झूलना, दो मिनट के मौन को भी समाज के सोच में बांट देता है। मसले की बाहों ने एक बार फिर कालेज की ही प्रिंसीपल को मसल दिया, जिसने कई वर्ष पूर्व परिवार की असहमति को नजरअंदाज करके अंतरजातीय विवाह किया था। ‘उसका सच’- पाठ्यक्रम से बंधे शिक्षक और छात्र समुदाय के बीच सहमति-असहमति के बजाय शिक्षा की स्वीकार्यता, कठोर अनुशासन है या पद्धति के तराजू पर किसी भी क्षण कोई नकारात्मक चिंतन बिंदु दबाव नहीं डाल सकता। तर्क का अपना संप्रदाय है और यही एक शिष्य और शिक्षक के बीच की दूरी को उपासक भी बना सकता है। कहानी आंदोलन के कई तर्क पेश करती है। और चेतन के माध्यम से आज की युवा पीढ़ी के आंतरिक संवेग को उंडेल देती है। कहानी अंतत: यह बताने में सफल हो जाती है कि युवा कितना अकेला व आत्मकेंद्रित विषाद में फंसा है।

‘बिल्लियां’- आयु की सीमा रेखा का विभाजन तब शुरू होता है जब जीवन का प्रवाह रिटायरमेंट के साथ ऐसे क्षणों को गति देता है, जो घर में बहू-बेटे की फलती-फूलती क्षमता को खारिज करना चाहता है। बाबू जी के सामने उकेरी गई कलात्मक बिल्लियों की भी अपनी गति व समाधान हैं, जो उनके वर्चस्व को रजामंद नहीं करते। उनकी आपत्ति बिल्लियों के स्वभाव और प्रवृत्ति की क्रूरता नहीं, बल्कि बहू के हाथों से सजती-संवरती दीवारों से शिकवा है, जो कल तक केवल उनके स्वाभिमान की अनुगूंज ही पैदा करती थीं। अंतत: इसी तस्वीर का कलात्मक पक्ष जीत जाता है। ‘मानसिक रोगी’- एक लंबी कहानी, जिंदगी का अनुपात बढ़ाती हुई। यहां एक साथ जिंदगियां एक दूसरे को ढो रही हैं। अतीत और भविष्य के बीच जिंदगी आज को कुतरती है या खींच कर उत्तर-दक्षिण में बंटे दरवाजों के ऐन बीच में खड़ा कर देती है। मीना इन्हीं दरवाजों की पहचान है जो अपने सौंदर्य की वजह से यह तय नहीं कर पाई कि किस दिशा में चल कर सदा रोशनी रहेगी। उसकी अपनी संतुष्टियां हैं जो पति को मानसिक रोग में देखकर भी सहज रहती हैं, लेकिन उसकी खुद की खुशियां असहज हैं।                                                                   -निर्मल असो

कहानी संग्रह : गुमशुदा
लेखिका : रेखा
प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
मूल्य : 220 रुपए


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