भाखड़ा-पौंग विस्थापन के जख्मों का दर्द

हिमाचल की बिजली से हमसाया सूबे रौशन हुए। चरमरा चुकी देश की कृषि अर्थव्यवस्था को नई ऊर्जा मिली। भारत खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भर बना। मगर बिजली व पानी के लिए कुर्बानी देकर देश के कृषि व औद्योगिक क्षेत्र में इंकलाब लाने वाले भाखड़ा व पौंग के हजारों विस्थापित परिवारों को आखिर क्या मिला…

चुनावी मौसम में कोई भी सियासी दल मुफ्तखोरी की शतरंजी बिसात बिछाने में पीछे नहीं है। देश के कुछ सियासी रहनुमाओं ने बिजली की मुफ्तखोरी को अपने सियासी एजेंडे में शामिल किया है। लोगों को मुफ्त बिजली के ख्वाब दिखाने वाले सियासतदानों को समझना होगा कि देश के कई राज्यों के लिए पानी व बिजली के इंकलाब का पसमंजर हिमाचल की कुर्बानी के मुजस्समें भाखड़ा व पौंग बांध की तामीर से तैयार हुआ था। बिलासपुर, ऊना व कांगड़ा के हजारों परिवारों ने अंधेरे में डूबे हुए हमसाया राज्यों के लाखों घरों में शमां अफरोज करने के लिए अपने आशियाने व पुश्तैनी जमीनें दान करके अपने ही राज्य में शरणार्थी जैसी त्रासदी का सामना किया तथा खुद के पुनर्वास के लिए कई दशकों से इंतजार कर रहे हैं। बर्तानिया बादशाही से आजादी के बाद भारत को अनाज की किल्लत व गुरबत जैसी समस्याओं से जद्दोजहद करनी पड़ रही थी। हिमाचल के पड़ोसी राज्यों की मरूस्थलीय कृषि भूमि वीरानगी की जद में जा चुकी थी। अवाम पेयजल की समस्या से जूझ रही थी। उन गंभीर समस्याओं के समाधान के लिए उस वक्त हमारे हुक्मरानों की निगाहों का मरकज़ हिमाचल बना था। भारत सरकार ने 1950 के दशक में बिलासपुर में बहने वाली सतलुज नदी पर भाखड़ा बांध का निर्माण करके सन् 1963 में इसे देश को सुपुर्द कर दिया था। मगर उसी दौरान 1960 के दशक में कांगड़ा के पौंग में ब्यास नदी पर 360 मेगावाट जल विद्युत परियोजना की संगे बुनियाद भी रख दी गई थी। भाखड़ा व पौंग बांधों के निर्माण की तजवीज बेहद सफल हुई।

दोनों बांधों के पानी से पड़ोसी राज्यों की करोड़ों आबादी की प्यास बुझी तथा मरूस्थलों में कृषि क्रांति व श्वेत क्रांति का आगाज हुआ। मुल्क के मौजूदा सियासी रहनुमां सन् 1965 का वो गुरबत भरा दौर याद करें जब अनाज के मोर्चे पर संकट में घिर चुका भारत अमेरिका से ‘पब्लिक लोन स्कीम 480’ समझौते के तहत बद्दतर किस्म की लाल गेहूं खाने को मजबूर था। देश 1962 की चीन जंग से उबरा नहीं था कि पाक सेना ने अमेरिकी पैटन टैंकों के साथ भारत पर हमला कर दिया था। जब भारतीय सेना ने पाक पैटन टैंकों को ध्वस्त करके पाकिस्तान व अमेरिका को अपनी असकरी हैसियत दिखाई तो बौखलाई अमेरिकी हुकूमत ने भारत को पीएल 480 गेहूं के निर्यात पर पाबंदी लगा दी थी। उस वक्त हिंदोस्तान की सियासत का मुमताज चेहरा प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने दिल्ली के रामलीला मैदान में दशहरा दिवस के अवसर पर देशवासियों से सप्ताह में एक दिन उपवास रखने की मखसूस गुजारिश कर डाली तथा ‘जय जवान जय किसान’ का नारा देकर देश को सैनिकों व किसानों की अहमियत का अहसास दिलाया था। उस मुश्किल वक्त में भाखड़ा बांध से उत्पन्न बिजली व पानी के करिश्मे ने उत्तर भारत के खेत खलिहान की पूरी दशा व दिशा को बदल कर अनाज की रिकॉर्ड पैदावार में अहम किरदार निभाया। नतीजतन भारत को गेहूं का निर्यात रोकने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति ‘लिंडन जॉनसन’ को देश के मेहनतकश किसानों ने आईना दिखा दिया था।

‘स्टैनफोर्ड’ विश्वविद्यायल के प्रोफैसर ‘पॉल एर्लिच’ ने सन् 1968 में अपनी चर्चित किताब ‘द पॉपुलेशन बम’ के जरिए भारत के भविष्य पर भुखमरी की भविष्यवाणी कर डाली थी, मगर हिमाचल की सरजमीं पर तामीर हुए भाखड़ा व पौंग बांधों के पानी व बिजली ने पश्चिमी देशों के तमाम दावे गलत साबित कर दिए थे। लेकिन देश की उन्नति के लिए हिमाचल को बहुत कुछ खोना पड़ा। भाखड़ा बांध के निर्माण से वजूद में आई ‘गोविंद सागर’ झील में कहलूर रियासत की राजधानी, सांडू मैदान व जिला के 256 गांव जलमग्न हो गए थे। उसी प्रकार कांगड़ा जिला के 226 गांवों के लोगों की हजारों एकड़ जमीन की जल समाधि दे दी गई थी। हालांकि 42 कि. मी. तक फैली पौंग झील के अस्तित्व में आने से जिला के 113 अन्य गांव भी मुतासिर हुए थे। लाखों आबादी को अनाज उत्पादन की कुव्वत रखने वाली 24 हजार हेक्टेयर वर्ग में फैली उपजाऊ ‘हल्दून घाटी’ भी पौंग झील की आगोश में समा गई थी। इन दोनों बांधों पर हुए कुशल जल प्रबंधन ने सतलुज व ब्यास के तेज बहाव को नियंत्रित करके पड़ोसी राज्यों को सैलाब जैसी विनाशकारी सूरत-ए-हाल से भी महफूज कर दिया। बांधों की बिजली से पड़ोसी राज्यों में उद्योग स्थापित होने से लाखों लोगों को रोजगार मिला। हिमाचल के लोगों ने देश के विकास की शर्तों से समझौता करके अपने फलफूल रहे गुलिस्तां कुर्बान कर दिए। इन बांधों के निर्माण से उपजा दर्दनाक विस्थापन चुनावी मुद्दा जरूर बनता है, मगर हिमाचल के पानी व बिजली का भरपूर लाभ लेने वाले एहसान फरामोश राज्यों पर हमारे सियासी रहनुमां विस्थापितों के पुनर्वास के लिए प्रभावशाली दबाव नहीं बना सके। हिमाचल की चंडीगढ़ में 7.19 फीसदी हिस्सेदारी की शिनाख्त नहीं हो सकी।

बेशक भाखड़ा व पौंग बांधों की तामीर से दुनिया में भारत का इकबाल बुलंद हुआ, मगर अपनी पुश्तैनी जागीरों की वसीयत मुल्क के नाम करने वाले विस्थापितों की आवाजें हिमाचल की सरहदों की बंदिशों में ही कैद होकर रह गईं। पहाड़ की भोलीभाली तहजीब के लोग जो अपने हकूक के लिए किसी हिंसात्मक तहरीक का हिस्सा भी नहीं बने, इस अंजाम से बेखबर थे कि अपनी विरासतों को कुर्बान करके विस्थापन से उपजी दुश्वारियां अपनी ही पुश्तों के मुस्तकबिल की दुश्मन साबित होंगी। हिमाचल की बिजली से हमसाया सूबे रौशन हुए। पानी से रेगिस्तान में हरियाली छा गई। चरमरा चुकी देश की कृषि अर्थव्यवस्था को नई ऊर्जा मिली। भारत खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भर बना। मगर बिजली व पानी के लिए कुर्बानी देकर देश के कृषि व औद्योगिक क्षेत्र में इंकलाब लाने वाले भाखड़ा व पौंग के हजारों विस्थापित परिवारों को आखिर क्या मिला? सुनहरे अतीत के वजूद पर ‘विस्थापन’। विस्थापन का जिम्मेवार कौन है, इस पर सियासत मौन है। क्या विस्थापित परिवारों की आंखों से टपकते खामोश अश्कों के दर्द का समाधान निकलेगा? गोविंद सागर में डूबे पौराणिक मंदिरों के वजूद को बचाकर आस्था का दीपक जलेगा? देश के सियासी रहनुमाओं को इन मुद्दों पर तफसील से विवेचना करनी होगी।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं


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