न्याय में देरी क्यों?

न्याय अभी भी देश के बहुसंख्यक नागरिकों की पहुंच के बाहर है, क्योंकि वे वकीलों के भारी खर्च वहन नहीं कर पाते हैं और उन्हें व्यवस्था की प्रक्रियात्मक जटिलता से होकर गुजरना पड़ता है। भारतीय न्याय तंत्र में विभिन्न स्तरों पर सुधार की दरकार है। यह सुधार न सिर्फ न्यायपालिका के बाहर से, बल्कि न्यायपालिका के भीतर भी होने चाहिए, ताकि किसी भी प्रकार के नवाचार को लागू करने में न्यायपालिका की स्वायत्तता बाधा न बन सके। न्यायिक व्यवस्था में न्याय देने में विलंब न्याय के सिद्धांत से विमुखता है…

प्रधानमंत्री जी ने कहा है कि न्याय मिलने में देरी देश के लोगों के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। ऑल इंडिया कॉन्फ्रेंस ऑफ लॉ मिनिस्टर्स एंड लॉ सेक्रेटरीज के उद्घाटन सत्र में प्रसारित अपने वीडियो संदेश में उन्होंने यह भी कहा कि कानूनों को स्पष्ट तरीके से लिखा जाना चाहिए और क्षेत्रीय भाषाओं में, ताकि गरीब से गरीब व्यक्ति उन्हें समझ सके। इस मुद्दे को हल करने के लिए विभिन्न सुझाव देते हुए प्रधानमंत्री मोदी जी ने कहा, ‘न्याय मिलने में देरी हमारे देश के लोगों के सामने एक बड़ी चुनौती है।’ प्रधानमंत्री जी का कथन इस बात को इंगित कर रहा है कि न्याय में देरी हमारे लिए ध्यान देने योग्य बिंदु है। आइए इसका विश्लेषण करें। सर्वप्रथम न्याय सामाजिक संस्थाओं का प्रथम एवं प्रधान सद्गुण है अर्थात सभी सामाजिक संस्थाएं न्याय के आधार पर ही अपनी औचित्यपूर्णता को सिद्ध कर सकती हैं। भारत में भी न्यायिक व्यवस्था का अपना अलग महत्त्व है। यदि भारतीय न्यायिक व्यवस्था का बारीकी से अवलोकन करें तो हम पाते हैं कि न्यायाधीशों की कमी, न्याय व्यवस्था की खामियां और लचर बुनियादी ढांचा जैसे कई कारणों से न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ती जा रही है, तो वहीं दूसरी ओर न्यायाधीशों व न्यायिक कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ता जा रहा है। न्याय में देरी अन्याय कहलाती है, लेकिन देश की न्यायिक व्यवस्था को यह विडंबना तेज़ी से घेरती जा रही है। देश के न्यायालयों में लंबित पड़े मामलों का आंकड़ा लगभग 3.5 करोड़ से अधिक पहुंच गया है। भारतीय न्यायिक प्रणाली की भी अनेक समस्याएं हैं जिसके कारण न्याय में देरी होती है। न्यायालय में लंबित मामले बढ़ रहे हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार उच्चतम न्यायालय में 58700 तथा उच्च न्यायालयों में करीब 44 लाख और जि़ला एवं सत्र न्यायालय तथा अधीनस्थ न्यायालयों में लगभग तीन करोड़ मुकदमे लंबित हैं। इन कुल लंबित मामलों में से 80 प्रतिशत से अधिक मामले जि़ला और अधीनस्थ न्यायालयों में हैं। इसका मुख्य कारण भारत में न्यायालयों की कमी, न्यायाधीशों के स्वीकृत पदों का कम होना तथा पदों की रिक्तता का होना है। वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर देश में प्रति 10 लाख लोगों पर केवल 18 न्यायाधीश हैं।

विधि आयोग की एक रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी कि प्रति 10 लाख जनसंख्या पर न्यायाधीशों की संख्या तकरीबन 50 होनी चाहिए। इस स्थिति तक पहुंचने के लिए पदों की संख्या बढ़ाकर तीन गुना करनी होगी। कहा जाता है भारत में न्यायिक व्यवस्था से जुड़ी एक मुख्य समस्या पारदर्शिता का अभाव है। न्यायालयों में नियुक्ति व स्थानांतरण में पारदर्शिता को लेकर सवाल उठते रहे हैं। वर्तमान में कॉलेजियम प्रणाली के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं उनका स्थानांतरण किया जाता है। कॉलेजियम प्रणाली में उच्चतम न्यायालय के संबंध में निर्णय के लिए मुख्य न्यायाधीश सहित 5 वरिष्ठतम न्यायाधीश होते हंै। वहीं उच्च न्यायालय के संबंध में इनकी संख्या 3 होती है। इस प्रणाली की क्रियाविधि जटिल और अपारदर्शी होने के कारण सामान्य नागरिक की समझ से परे होती है। ऐसी स्थिति में इस प्रणाली को पारदर्शी बनाने के लिए संसद द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के माध्यम से असफल प्रयास किया जा चुका है। भारत के संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रावधान है जिसमें जानने का अधिकार भी शामिल है। इसको ध्यान में रखते हुए कोई भी ऐसी प्रणाली जो अपारदर्शी हो, उसको नागरिकों के अधिकारों की पूर्ति के लिए पारदर्शी बनाया जाना चाहिए। न्यायालयों में भ्रष्टाचार को रोकने के क्या तरीके हैं? किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जवाबदेही एक आवश्यक पक्ष होता है। इसको ध्यान में रखते हुए सभी सार्वजनिक पदों पर पदस्थ व्यक्तियों का उत्तरदायित्त्व निश्चित किया जाता है।

भारत में भी विधायिका और कार्यपालिका के संबंध में कई कानूनों एवं चुनावी प्रक्रिया द्वारा उत्तरदायित्व सुनिश्चित किए गए हैं, लेकिन न्यायपालिका के संदर्भ में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। किसी न्यायाधीश को उसके पद से हटाने का एकमात्र उपाय सिर्फ महाभियोग ही होता है। भारत के सभी न्यायालयों में कई करोड़ मामले लंबित हैं। इनमें से कई मामले लंबे समय से लंबित हैं। मामलों का लंबित होना पीडि़तों और ऐसे लोगों, जो किसी मामले के चलते जेल में कैद हैं, किंतु उनको दोषी करार नहीं दिया गया है, दोनों के दृष्टिकोण से अन्याय को जन्म देता है। पीडि़तों के मामले में कुछ ऐसे संदर्भ भी रहे हैं जब आरोपी को दोषी ठहराए जाने में 30 वर्ष तक का समय लगा, हालांकि तब तक आरोपी की मृत्यु हो चुकी थी। तो वहीं दूसरी ओर भारत की जेलों में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे विचाराधीन कैदी बंद हैं जिनके मामले में अब तक निर्णय नहीं दिया जा सका है। कई बार ऐसी स्थिति भी आती है जब कैदी अपने आरोपों के दंड से अधिक समय कैद में बिता देते हैं। साथ ही इतने वर्ष जेल में रहने के पश्चात उसे न्यायालय से आरोपमुक्त कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति न्याय की दृष्टि से अन्याय को जन्म देती है। इस स्थिति में त्वरित सुधार किए जाने की आवश्यकता है। देशभर के न्यायालयों में न्यायिक अवसंरचना का अभाव है। न्यायालय परिसरों में मूलभूत सुविधाओं की कमी है। भारतीय न्यायिक व्यवस्था में किसी वाद के सुलझाने की कोई नियत अवधि तय नहीं की गई है, जबकि अमेरिका में यह तीन वर्ष निर्धारित है। केंद्र एवं राज्य सरकारों के मामले न्यायालयों में सबसे ज्यादा हंै।

यह आंकड़ा 70 फीसदी के लगभग है। सामान्य और गंभीर मामलों की भी सीमाएं तय होनी चाहिए। न्यायालयों में लंबे अवकाश की प्रथा है, जो मामलों के लंबित होने का एक प्रमुख कारण है। न्यायिक मामलों के संदर्भ में अधिवक्ताओं द्वारा किया जाने वाला विलंब एक चिंतनीय विषय है, जिसके कारण मामले लंबे समय तक अटके रहते हैं। न्यायिक व्यवस्था में तकनीकी का अभाव है। न्यायालयों तथा संबंधित विभागों में संचार की कमी व समन्वय का अभाव है, जिससे मामलों में अनावश्यक विलंब होता है। उच्च व निचली अदालतों में भी नियुक्ति में देरी होने के कारण न्यायिक अधिकारियों की कमी हो गई है, जो कि बहुत ही चिंताजनक है। इसी कारण मामलों के लंबित रहने का अनुपात बढ़ता जा रहा है और यह पूरे भारतीय न्यायिक तंत्र को जकड़ चुका है। छोटे कार्यकाल और कार्य के भारी दबावों के कारण उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को कानून को उत्कृष्ट बनाने और आवश्यक परिपक्वता अर्जित करने का अवसर ही नहीं मिल पाता है। न्याय अभी भी देश के बहुसंख्यक नागरिकों की पहुंच के बाहर है, क्योंकि वे वकीलों के भारी खर्च वहन नहीं कर पाते हैं और उन्हें व्यवस्था की प्रक्रियात्मक जटिलता से होकर गुजरना पड़ता है। भारतीय न्याय तंत्र में विभिन्न स्तरों पर सुधार की दरकार है। यह सुधार न सिर्फ न्यायपालिका के बाहर से, बल्कि न्यायपालिका के भीतर भी होने चाहिए, ताकि किसी भी प्रकार के नवाचार को लागू करने में न्यायपालिका की स्वायत्तता बाधा न बन सके। न्यायिक व्यवस्था में न्याय देने में विलंब न्याय के सिद्धांत से विमुखता है। अत: न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए, बल्कि दिखना भी चाहिए।

डा. वरिंदर भाटिया

कालेज प्रिंसीपल

ईमेल : hellobhatiaji@gmail.com


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