निजी विश्वविद्यालयों का कड़वा सच

यह ठीक है कि कुछ निजी विश्वविद्यालय गुड वर्क कर रहे हैं, लेकिन क्या यह सच नहीं कि अनेक प्राइवेट यूनिवर्सिटीज का ध्यान आर्थिक फायदे की तरफ ज्यादा होता है और शिक्षा की गुणवत्ता की अनदेखी की जाती है। छात्रों का आर्थिक और अकादमिक शोषण होता है। मान लें यदि कुछ निजी विश्वविद्यालय इन विसंगतियों को नकारते हैं तो इसकी सरकारी पड़ताल क्यों नहीं होनी चाहिए…

पिछले कुछ समय से देश मे निजी यूनिवर्सिटीज की कतार लग चुकी है। इनसे जुडी ख़बरों को खंगालें तो इनकी कारगुजारी पर अब अनेक प्रश्नचिन्ह उठाए जा रहे हैं। इनकी खुशनुमा इमारतें, लॉन, हंसते-खिलखिलाते छात्रों के चेहरे, प्लेसमेंट के लिए बड़ी-बड़ी कंपनियों के नाम वह चेहरा है जो परफेक्ट प्रोफेशनल मार्केटिंग के चलते, उनके ब्रोशर और विज्ञापनों में नजर आता है। ऐसी निजी यूनिवर्सिटीज की संख्या पिछले सात सालों में लगभग दोगुनी हो गई है। लेकिन इनके परिसरों का दौरा करने और पीछे की जब गहराई से जांच की जाती है तब इसकी असल तस्वीर सामने आती है। यह सर्वविदित है कि अनेक व्यापारिक घरानों द्वारा उच्च शिक्षा को बेहतर मुनाफे वाला कारोबार मानते हुए इसमें निवेश किया गया है। उनका उद्देश्य धन कमाना है, न कि शिक्षा को स्वार्थ रहित मिशन मानना है। इस पर विचार की जरूरत है। निजी विश्वविद्यालयों के तेजी से फलने-फूलने और छात्रों की बढ़ती संख्या के बावजूद विशेषज्ञों का मानना है कि मोटी फीस वसूलने वाले इन संस्थानों में गुणवत्ता अक्सर एक मुद्दा बना रहता है। न जाने कितने विश्वविद्यालय तो ऐसे हैं जिन्हें मान्यता तक नहीं मिली हुई है और प्रमुख शैक्षिक रैंकिंग सिस्टम के आसपास कहीं ठहरते भी नजर नहीं आते हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के आंकड़ों के मुताबिक राज्य विधानसभाओं के अधिनियमों द्वारा स्थापित निजी या सेल्फ फाइनेंस यूनिवर्सिटीज की संख्या में पिछले कुछ सालों में जबरदस्त उछाल देखने को मिला है। 2015 में इनकी संख्या 225 थी, जो अगस्त 2022 में लगभग दोगुनी होकर 431 हो गई। यूजीसी के आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल ही अकेले 68 नए विश्वविद्यालय खोले गए हैं। जर्नल ऑफ हायर एजुकेशन पॉलिसी एंड लीडरशिप स्टडीज में प्रकाशित 2021 के एक अध्ययन के अनुसार निजी विश्वविद्यालयों की भारत के कुल उच्च शिक्षा संस्थानों में हिस्सेदारी 30 फीसदी से ज्यादा है।

इस रिपोर्ट को जामिया मिलिया इस्लामिया के प्रोफेसर कमर ने तैयार किया था और इसके लिए केंद्र सरकार के ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन (एआईएसएचई) के 2007-2020 एडिशन के आंकड़ों का भी इस्तेमाल किया गया। यह रिपोर्ट बताती है कि विश्वविद्यालयों की संख्या (सरकारी और निजी) में 2.57 गुना वृद्धि हुई है। अकेले निजी विश्वविद्यालयों की संख्या की ओर देखें तो इनके प्रतिशत में 20.44 गुना वृद्धि दर्ज की गई थी। हालांकि प्राइवेट यूनिवर्सिटीज में नामांकित छात्रों की हिस्सेदारी उच्च शिक्षा संस्थानों (सरकार द्वारा संचालित राज्य और केंद्रीय विश्वविद्यालयों) में लगभग 3.85 करोड़ छात्रों के कुल नामांकन का लगभग 3.3 प्रतिशत है। लेकिन हाल-फिलहाल इनकी संख्या में काफी वृद्धि हुई है। एआईएसएचई के आंकड़े बताते हैं कि 2011-12 में सिर्फ 2.7 लाख छात्रों ने प्राइवेट कॉलेजों में दाखिला लिया था, जो 2019-20 में बढक़र 12.76 लाख हो गया। यह 372 प्रतिशत की भारी वृद्धि है। इसके विपरीत राज्य की सरकारी यूनिवर्सिटीज में 2011-12 में नामांकित छात्रों की संख्या 24.47 लाख थी। सिर्फ 5.35 प्रतिशत के मामूली उछाल के साथ यह संख्या 2019-20 में बढक़र 25.78 लाख हो गई। सेंट्रल यूनिवर्सिटीज में दाखिला पाना हमेशा से एक मुश्किल भरा काम रहा है। लेकिन इस अवधि में इसके छात्रों की संख्या में भी 29 फीसदी का उछाल आया, जो 5.55 लाख से बढक़र 7.20 लाख हो गई। विशेषज्ञों का मानना है कि छात्र कई कारणों से निजी विश्वविद्यालयों की तरफ जाना पसंद कर रहे हैं। इसकी सबसे बड़ी वजहों में सरकारी संस्थानों में एडमिशन के लिए छात्रों के बीच कड़ा मुकाबला और ऊंची कट-ऑफ शामिल है।

वहीं दूसरी तरफ अगर आपके पास पैसा है तो आसानी से आप प्राइवेट संस्थानों में प्रवेश पा लेते हैं। यहां नंबरों की दौड़ कम ही होती है। लोग प्राइवेट विश्वविद्यालयों की तरफ क्यों जा रहे हैं? सबसे पहली बात, अच्छे संस्थान (सरकारी यूनिवर्सिटीज) मांग के अनुसार उतनी सीटें नहीं दे पा रहे हैं। उसके अलावा दूसरे दर्जे के संस्थान, जिन्हें सरकार से आर्थिक सहायता मिलती है, उनका पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर ही काफी खराब है। क्लासरूम तक की हालत इतनी खस्ता है कि छात्र उस तरफ जाना पसंद नहीं करते। अनेक निजी कॉलेज भी कुछ खास नहीं दिखा रहे हैं। भारत में 400 से ज्यादा प्राइवेट कॉलेजों में से सिर्फ 23 ही 2016 में अपनी स्थापना के बाद से सरकार के राष्ट्रीय संस्थागत रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरएफ) में जगह बना पाए थे। पिछले साल की एनआईआरएफ सूची के मुताबिक 11475 सरकारी संस्थानों में से 70 (0.61 फीसदी) को टॉप 100 में जगह दी गई थी। जबकि 32903 स्व-वित्तपोषित संस्थानों में से 26 (जिसमें कॉलेज, स्टैंड-अलोन इंस्टीट्यूशन और यूनिवर्सिटी शामिल हैं) ने इस सूची में जगह बनाई थी। यह कुल हिस्सेदारी का सिर्फ 0.08 प्रतिशत है। एनआईआरएफ के शीर्ष 100 में सबसे बड़ा हिस्सा (23.7 प्रतिशत) आईआईटी और भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईआईटी) का रहा। इसके बाद केंद्रीय यूनिवर्सिटी (20.83 प्रतिशत) और सरकारी स्टेट यूनिवर्सिटी (4.21 प्रतिशत) का नंबर आता है। इसके अलावा नेशनल असेसमेंट एंड एक्रिडिएशन काउंसिल (नैक) एक महत्वपूर्ण डेटा प्रदान करता है। यह एक सरकारी निकाय है जो उच्च शिक्षा संस्थानों का उनकी शिक्षा, अनुसंधान और संकाय की गुणवत्ता के आधार पर मूल्यांकन करता है और उन्हें ‘ए प्लस प्लस’ से ‘सी’ तक ग्रेड देता है। केवल 25 निजी विश्वविद्यालयों के पास नैक मान्यता है।

हालांकि सभी संस्थानों के लिए नैक मान्यता प्राप्त करना अनिवार्य नहीं है, लेकिन जिन संस्थानों को इसका स्टाम्प मिल जाता है, उन्हें हर मामले में बेहतर संस्थान माना जाता है। मीडिया रिपोट्र्स के अनुसार हिमाचल प्रदेश निजी शिक्षण संस्थान नियामक आयोग ने प्रदेश में चल रहे निजी विश्वविद्यालयों पर सख्ती शुरू कर दी है। कड़े कदम उठाते हुए 16 निजी विश्वविद्यालयों ने 40 प्रतिशत फेकल्टी को बदल कर नई नियुक्तियां की हैं। जिन शिक्षकों को हटाया गया है वे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की ओर से जारी गाइडलाइन के अनुसार विश्वविद्यालय में पढ़ाने के लिए अयोग्य थे। यूजीसी के 2009 और 2016 के नियमों को पूरा नहीं करते थे। इनमें कई शिक्षक नेट पास नहीं थे तो कुछ के पास पीएचडी की डिग्री नहीं थी। कई शिक्षकों ने शैक्षणिक योग्यता पूरी करने के लिए छूट ली थी। इसका समय पूरा हो चुका था, बावजूद इन शिक्षकों की योग्यता पूरी नहीं हुई। इन टीचर्स को अंडर पेमेंट करके पैसे बचाए जाते हैं, लेकिन शिक्षा की क्वालिटी से खिलवाड़ होता है। राजस्थान में भी ऐसे कदम उठाए जा रहे हैं। जहां पर अनेक निजी विश्वविद्यालयों पर शिक्षा के क्षेत्र में अनियमितता की शिकायतें आ रही थी, वहां पर तो कम से कम एक करोड़ जुर्माने का प्रावधान होने जा रहा है। देश के सभी राज्यों में छात्र हित में, अध्यापक हित में और नि:संदेह राष्ट्र हित में निजी विश्वविद्यालयों की अकादमिक विसंगतियों के क्रियाकलापों पर संज्ञान लिया जाना चाहिए। यह ठीक है कि कुछ निजी विश्वविद्यालय गुड वर्क कर रहे हैं, लेकिन क्या यह सच नहीं कि अनेक प्राइवेट यूनिवर्सिटीज का ध्यान आर्थिक फायदे की तरफ ज्यादा होता है और शिक्षा की गुणवत्ता की अनदेखी की जाती है। छात्रों का आर्थिक और अकादमिक शोषण होता है। मान लें यदि कुछ निजी विश्वविद्यालय इन विसंगतियों को नकारते हैं तो इसकी सरकारी पड़ताल क्यों नहीं होनी चाहिए, ताकि आम आदमी के आगे दूध का दूध और पानी का पानी हो सके।

डा. वरिंदर भाटिया

कालेज प्रिंसीपल

ईमेल : hellobhatiaji@gmail.com


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