उपचुनाव के नतीजों से मिले सबक

टीआरएस के अध्यक्ष और राज्य के मुख्यमंत्री केसीआर केन्द्र सरकार का मुद्दों पर आधारित समर्थन कर ही रहे थे। लेकिन भाजपा दक्षिण में अन्य पार्टियों के सहारे ज्यादा देर नहीं रह सकती थी। अत: पार्टी ने जैसे ही तेलंगाना में पैठ बनानी शुरू की तो केसीआर भाजपा के खिलाफ हो गए। लेकिन केसीआर यह अनुमान लगाने में भूल कर गए कि उनकी सरकार से राज्य के लोग ऊब चुके हैं। भाजपा को उसी का लाभ मिल रहा है। अंतिम सीट हरियाणा की आदमपुर थी, जो भजन लाल परिवार की परंपरागत सीट मानी जाती है। इस सीट को हस्तगत करने के लिए कांग्रेस के भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके सांसद बेटे ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया था। किसान आंदोलन के बाद यह सीट मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के लिए प्रतिष्ठा की सीट तो थी ही, साथ ही कांग्रेस यह भी कह रही थी कि चुनाव परिणाम भाजपा सरकार के बारे में जनमत माना जाना चाहिए…

पिछले दिनों बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, तेलंगाना, महाराष्ट्र और ओडीशा में सात विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव हुआ था। उसके परिणाम छह नवंबर को घोषित किए गए। सबसे रुचिकर चुनाव महाराष्ट्र की राजधानी मुम्बई की अंधेरी विधानसभा सीट का था। यह सीट उद्धव गुट के एक विधानसभा सदस्य के देहांत से खाली हुई थी। जाहिर है उद्धव ठाकरे ने वहां से दिवंगत नेता की पत्नी को ही टिकट दिया। लेकिन आश्चर्य की बात है कि उसके खिलाफ भाजपा ने कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं किया। इतना ही नहीं, शिव सेना उद्धव गुट के धुर विरोधी एकनाथ शिंदे गुट की शिव सेना ने भी कोई उम्मीदवार चुनाव मैदान में नहीं उतारा। सोनिया कांग्रेस और शरद पवार की पार्टी भी चुनाव से दूर ही रही। वैसे भी ये दोनों पार्टियां महाअगाड़ी विकास एलायंस का हिस्सा हैं जो अभी भी उद्धव ठाकरे से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़ी हुई हैं। मोटे तौर पर उद्धव ठाकरे गुट का प्रत्याशी ही अकेला चुनाव लडऱहा था। उसको जीतना ही था, लेकिन वहां दूसरा नंबर नोटा को मिला। नोटा यानी मैं इसको वोट नहीं देना चाहता। नोटा को लगभग तेरह हज़ार वोट मिले। यानी कुल मतदान का लगभग 15 प्रतिशत नोटा को मिला। लेकिन किसी भी पार्टी ने शिव सेना (उद्धव) के मुकाबले अपना प्रत्याशी क्यों नहीं उतारा? कहा जाता है कि महाराष्ट्र की परंपरा रही है कि उपचुनाव में यदि मृतक का कोई सगा संबंधी चुनाव लड़ता है तो उसके मुकाबले कोई राजनीतिक दल अपना उम्मीदवार नहीं खड़ा करता। इस चमत्कारिक सीट की चर्चा करने के बाद हम अन्य सीटों की चर्चा करेंगे। बिहार में दो सीटों गोपालगंज और मोकामा के लिए चुनाव हुए थे। वैसे तो इन दो सीटों के परिणाम से विधानसभा की स्थिति में कोई अंतर नहीं आने वाला था। लेकिन इन चुनावों की महत्ता इसलिए बढ़ गई थी क्योंकि कुछ महीने पहले नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू ने भाजपा से नाता तोड़ कर लालू प्रसाद यादव की आरजेडी से नाता जोड़ लिया था।

सरकार में लालू जी के एक बेटे को उप मुख्यमंत्री बनाना पड़ा और दूसरे को काबीना मंत्री। बिहार की राजनीति पर जरूरत से ज्यादा गहरी पकड़ रखने वालों का मानना था कि राज्य में लालू और नीतीश दो शक्ति केन्द्र हैं। दोनों के एकजुट हो जाने से भाजपा बिहार के राजनीतिक समीकरणों में हाशिए पर आ जाएगी। ऊपर से तुर्राह यह कि बिहार की अन्य छोटी मोटी पार्टियां भी इस नए शक्ति केन्द्र के आसपास सिमट आई थीं। यह माना जाने लगा था कि बिहार में लड़ाई आल बनाम भाजपा हो गई है। जाति पर आधारित बिहार की राजनीति में इन नए समीकरणों में कोई स्थान नहीं बचा है। ऊपर से लालू यादव ने जिस बाहुबली की विधानसभा सदस्यता समाप्त हो जाने के कारण उप चुनाव हो रहा था, उसमें उसी बाहुबली की पत्नी को खड़ा कर दिया था। पिछले आम चुनाव में वह बाहुबली पचास हज़ार से भी ज्यादा वोटों से जीता था। अब जब लालू-नीतीश एकल हो गए हैं तो सभी को लगता था कि उनका प्रत्याशी सत्तर-अस्सी हज़ार को पार कर लेगा। भाजपा वैसे भी इस सीट से कभी चुनाव नहीं लड़ती थी। पहली बार मैदान में उतरी भाजपा कौन सा तीर मार लेगी? ऐसे प्रश्न विरोधी ही नहीं, बल्कि मीडिया भी उठा रहा था। दूसरी सीट गोपालगंज की थी। यह इलाका लालू यादव की आरजेडी का गढ़ माना जाता है। लेकिन चुनाव परिणाम सभी को चौंकाने वाले निकले। गोपालगंज सीट भाजपा ने जीत ली और मोकामा में आरजेडी का प्रत्याशी भाजपा को इक्कीस हज़ार से ज्यादा वोट से हरा सका। सत्तर-अस्सी हज़ार का कयास लगाने वाले हैरान तो हुए। लेकिन इस चुनाव परिणाम ने यह जरूर सिद्ध कर दिया कि नीतीश कुमार द्वारा लालू यादव से हाथ मिला लेने की घटना को राज्य के लोगों ने नकारात्मक भाव से लिया।

उसका स्वागत नहीं किया। उत्तर प्रदेश की विधानसभा सीट भाजपा जीत लेगी, ऐसा विरोधी भी मान रहे थे। कुछ लोगों को जरूर आशा थी कि अखिलेश यादव अपनी पार्टी को संभाल लेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ओडीशा में एक विधानसभा सीट पर चुनाव हुआ था। ओडीशा में पिछले पन्द्रह साल से यह परम्परा रही है कि उप चुनाव में बीजू जनता दल का प्रत्याशी ही जीतता है। ओडीशा में कई दशकों से बीजू जनता दल की ही सरकार है। लेकिन पहली बार ऐसा हुआ कि बीजू जनता दल का प्रत्याशी चुनाव हार गया और भाजपा लगभग नौ हज़ार मतों से जीत गई। ओडीशा के लिए यह भी चामत्कारिक घटना ही कही जा सकती है। लेकिन तेलंगाना विधानसभा के लिए उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी ने जितनी कड़ी टक्कर तेलंगाना राष्ट्र समिति के प्रत्याशी को दी, वह सचमुच चौंकाने वाली थी। टीआरएस केवल दो-तीन हज़ार के अंतर से ही बड़ी मुश्किल से अपनी सीट बचा पाई। सब मानते हैं या अब मानने लगे हैं कि तेलंगाना में होने वाले अगले विधानसभा चुनावों में भाजपा और टीआरएस में ही मुकाबला होगा। दरअसल इस उपचुनाव से पहले भी राज्य में एक उपचुनाव हुआ था जिसमें भाजपा प्रत्याशी ने टीआरएस के प्रत्याशी को हरा दिया था। पिछले कुछ अरसे से भाजपा दक्षिणी राज्यों में पैठ ज़माने का प्रयास कर रही है। महाराष्ट्र में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के बाद भाजपा ने विंध्याचल लांघने की जो योजना बनाई थी, उसमें उसे पहली सफलता कर्नाटक में मिली थी। कर्नाटक बड़ा राज्य है। शायद यही कारण था कि भाजपा ने दक्षिण के छोटे राज्यों पर केन्द्रित किया।

पुदुच्चेरी में भाजपा ने सांझा मोर्चा की सरकार बना कर तेलंगाना पर स्वयं को केन्द्रित किया था। टीआरएस के अध्यक्ष और राज्य के मुख्यमंत्री केसीआर केन्द्र सरकार का मुद्दों पर आधारित समर्थन कर ही रहे थे। लेकिन भाजपा दक्षिण में अन्य पार्टियों के सहारे ज्यादा देर नहीं रह सकती थी। अत: पार्टी ने जैसे ही तेलंगाना में पैठ बनानी शुरू की तो केसीआर भाजपा के खिलाफ हो गए। लेकिन केसीआर यह अनुमान लगाने में भूल कर गए कि उनकी सरकार से राज्य के लोग ऊब चुके हैं। भाजपा को उसी का लाभ मिल रहा है। अंतिम सीट हरियाणा की आदमपुर थी, जो भजन लाल परिवार की परंपरागत सीट मानी जाती है। इस सीट को हस्तगत करने के लिए कांग्रेस के भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके सांसद बेटे ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया था। किसान आंदोलन के बाद यह सीट मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के लिए प्रतिष्ठा की सीट तो थी ही, साथ ही कांग्रेस यह भी कह रही थी कि चुनाव परिणाम भाजपा सरकार के बारे में जनमत माना जाना चाहिए। भाजपा ने यह सीट अठारह हज़ार मतों के अंतर से जीत ली। जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है, इन सभी सीटों पर कांग्रेस कहीं मुकाबले में दिखाई ही नहीं दी। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के दौरान आए ये परिणाम सोनिया परिवार के लिए खतरे की घंटी हैं।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल: kuldeepagnihotri@gmail.com


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