यशपाल की स्मृतियों में बसा था रंघाड़

By: Nov 20th, 2022 12:04 am

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक

डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -39

विमर्श के बिंदु
1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

राजेंद्र राजन, मो.-8219158269

बरसों से मन में चाह थी। कैसा होगा यशपाल का गांव? कैसा होगा उन पेड़-पौधों, मिट्टी और आबोहवा की सोंधी खुशबू में सराबोर होने का अहसास जिसने यशपाल जैसे युगांतकारी लेखक को सृजन के प्रति अभिप्रेरित किया होगा। एक ऐसा महान क्रांतिकारी जिसके अंतर्मन में हमारे देश और समाज का चेहरा बदलने का अथाह जुनून था। एक सर्जक जिसने अपनी कलम के प्रवाह और शब्द की सत्ता को कभी क्षीण नहीं होने दिया। हिंदी कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने का बीड़ा यशपाल ने उठाया था। ऐसे सृजनकर्मी के गांव को देखने की किसे इच्छा नहीं होगी। यह सुअवसर हाथ लगा नववर्ष के पहले माह में। बारह जनवरी की वह उदास सी शाम थी जब मैं यशपाल के गांव पहुंचा। हिमाचल प्रदेश में शिमला-कांगड़ा राष्ट्रीय उच्च मार्ग पर नादौन से पांच किलोमीटर दूर जलाड़ी से संपर्क मार्ग के जरिये यशपाल के गांव रंघाड़ पहुंचा जा सकता है। हवा में नुकीली चुभन थी। सर्द हवाएं। दिन भर घने बादलों से आसमान साफ हो चला था। मैं रंघाड़ पहुंचने की बजाय गलती से दूसरे ही गांव पहुंच गया फतेहपुर।

यहां एक दुकानदार डॉ. रत्न चंद शर्मा से भेंट हुई। रंघाड़ के रहने वाले हैं। हमीरपुर के डिग्री कालेज में संस्कृत के प्राध्यापक रहे हैं। ‘मैं यशपाल का गांव देखना चाहता हूं।’ यह सुनते ही डॉ. शर्मा के चेहरे पर उत्साह, चमक और प्रफुल्लता से भाव उभर गए। ‘आइए मैं दिखाता हूं आपको यशपाल का गांव’। वे मुझे अपने साथ जब रंघाड़ लाए तो गांव की संपर्क सडक़ की दुर्दशा देखकर हैरत हुई। बोले, ‘इसमें अचरज की कोई बात नहीं। जलाड़ी से रैले गांव के लिए बाईस साल पहले सडक़ बनी थी। रंघाड़ तक कोई संपर्क सडक़ नहीं थी। एक किलोमीटर की यह सडक़ तो इसी सरकार की देन है। मुझे लगा रंघाड़ में यशपाल की स्मृतियों की खोज में डॉ. शर्मा सही मायने में मेरे गाइड साबित हो सकते हैं। यही हुआ भी। उनकी यशपाल से कभी भेंट नहीं हुई। लेकिन वह महान लेखक किसी न किसी रूप में उनके गांव से जुड़ा रहा था, डॉ. शर्मा के लिए यह गर्व की बात थी। यशपाल के जीवन में भले ही रंघाड़ का विशेष महत्त्व न रहा हो, यहां के निवासियों के दिलो-दिमाग में उनका अहसास आज भी रचा-बसा है।

डॉ. शर्मा मुझे ठीक उस स्थान पर ले गए जहां पचास-साठ साल पहले यशपाल का घर था। शायद नहीं भी। क्योंकि यहां उनकी मौसी कारजू देवी का कच्चा, खपरैल का घर था। कहते हैं यशपाल के पिता हीरा लाल व माता प्रेमी देवी हमीरपुर जिले में ही अपने पैतृक गांव भरेइयां-दा-टिक्कर से आकर रंघाड़ गांव में बस गए थे। कुछ भी हो, जब मैं वहां पहुंचा तो उस वक्त गांव नीरवता में डूबा हुआ था, दूर पार कुछ गिने चुने घर हैं। करीब पांच सौ की आबादी होगी। एक अदद स्कूल के अलावा गांव में कुछ भी नहीं है। ब्राह्मण, खत्री और चौधरी परिवार। यशपाल, खत्री समुदाय से संबंध रखते थे। गांव में पसरी खामोशी से मैं स्तब्ध था। कहीं कोई हलचल नहीं। कड़ाके की ठंड शायद एक वजह रही हो। शर्मा जी ने मुझे ओम प्रकाश से मिलवाया। वे पंडित भागमल के सुपुत्र हैं। कहते हैं भागमल यशपाल की जमीन की देखभाल करते थे। पांच कनाल ग्यारह मरले का वह टुकड़ा, यशपाल के पुराने मकान या जमीन पर नए मकानों ने जगह ले ली है। यशपाल उस स्थान पर चले होंगे, टहले होंगे। बतियाते होंगे, सोचकर मैं भीतर तक अव्यक्त आनंद की अनुभूति से भर गया। लेकिन यह खुशी तात्कालिक थी। यह जानकर ठेस लगी कि रंघाड़ में एक भी घर, दरख्त, शिलालेख या अन्य कोई स्मृति चिन्ह मौजूद नहीं था जिससे यशपाल को पुन: स्थापित किया जा सके। वह सचमुच एक त्रासद स्थिति थी। पीड़ादायक। आप किसी महान रचनाकार की स्मृतियों की खोज में जाएं और उस गांव में लेखक के संसार का नामो-निशान न बचा हो।

रंघाड़ की उस शून्यता में यशपाल को खोज निकालना चुनौती से कम नहीं था। डॉ. शर्मा ने चुप्पी को पुन: तोड़ा, ‘असल में यशपाल परिवार के लिए वह गुरबत का दौर था। उनके पिता हीरा लाल बुजका उठाकर फेरी लगाते थे। माता प्रेमी देवी जब डी.ए.वी. संस्था से जुड़ी तो अध्यापिका हो गई। लाहौर, लायलपुर, फिरोजपुर आदि अनेक स्थानों में पढ़ाया। फिरोजपुर में ही यशपाल का जन्म हुआ था। होश संभालते नियमित रूप से अपने गांव आने लगे। अपनी मिट्टी से लगाव हो गया। कांगड़ी बोली में ही सबसे बातचीत किया करते थे।’ ओम प्रकाश को कुरेदने की कोशिश की तो बोले, ‘मैं तो मात्र 15 साल का था जब यशपाल जी से भेंट हुई थी। मेरे पिता भागमल बताते थे कि ब्रतानी हुकूमत के प्रति यशपाल के मन में बेहद आक्रोश था। गांव आते ही पुलिस साये की तरह उनका पीछा करती रहती। मेरी दादी यशपाल से कहती थीं कि पुलिस वालों को भी खाना खिला दिया करो।

इस पर वे भडक़ उठते थे, ‘ये पुलिस वाले अंग्रेजों के पिट्ठू हैं। हुकूमत के इशारे पर किसी पर भी अत्याचार करने पर उतारू हो जाते हैं। इनमें और फिरंगियों में कोई फर्क नहीं है। इन्हें तो भूखों मार देना चाहिए।’ यशपाल सच्चे क्रांतिकारी और प्रतिबद्ध लेखक थे। वे आम जिंदगी से अपने पात्रों को उठाते थे और उनके संघर्ष को स्वर देते थे। यशपाल का हिमाचल आना, जिसका ज्यादातर भाग उन दिनों पंजाब प्रांत में शामिल था, वर्जित था। वे क्रांतिकारी थे और ब्रितानी हुकूमत ने उनके देश के किसी भी कोने में पाबंदियां आयत कर रखी थीं। यानी उन पर निगाह रखी जाती थी। बावजूद इसके वे हुकूमत की नज़रों में धूल झोंककर चोरी छिपे अपने गांव भूम्पल आते रहते थे। यही नहीं, गांव के अलावा हिमाचल के अनेक इलाके उनको प्रिय थे। यद्यपि उनकी अनगिनत कहानियों की रचना हिमाचल की पृष्ठभूमि में हुई है। किंतु प्रत्यक्ष तौर पर इस प्रदेश का वर्णन उनकी रचनाओं में नहीं मिलता। ‘उत्तराधिकारी’, ‘न्याय और दंड’, ‘फूलों का कुर्ता’, ‘पहाड़ की स्मृति’, ‘दुष्ट पंजाबी’ समेत अनेक ऐसी उल्लेखनीय कहानियां हैं जिनमें यशपाल ने कांगड़ा, हमीरपुर, मंडी, किन्नौर, लाहौल इत्यादि जिलों के समाज में व्याप्त रूढिय़ों, दकियानूसी परंपराओं पर गहरी चोट की है। हिमाचल से यशपाल का अनुराग उनकी कहानियों में सहज, स्फूर्त व नैसर्गिक ढंग से प्रतिबिंबित हुआ है। यहां की सोंधी मिट्टी की महक उनकी रचनाधार्मिता में यत्र-तत्र सर्वत्र बिखरी हुई है।

सांझ का धुंधलका पसरने लगा था। उस आंगन में चौपाल सी बन गई थी। गांव के ही एक बुजुर्ग चौधरी चिंतराम आ गए। उन्हें खासतौर पर घर से बुलवाया गया था। संभवत: यशपाल का जिक्र आते ही आ गए थे। बयासी वर्षीय चिंतराम अतीत में लौटे, ‘ग्रांच पैडिय़ा दा खूह (कुआं) था हुण बी है। यशपाल जो मैं अक्सर खुआ पर बैठिया दिखदा था। सोचा च डूबी रहंदा था। मिंजो लगदा था खूए ने यशपाल जो बड़ा प्यार था।’ रंघाड़ से लौटते हुए संयोगवश डॉ. हेमराज कौशिक से भेंट हुई। वे यशपाल सदन में किसी गोष्ठी में शिरकत करने आए थे। जब मैंने यशपाल के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए उन्हें कुरेदा तो वे भावुक होकर कहने लगे, ‘यशपाल की माता सहनशील, संयमी, साहसी और दूरदर्शी थीं। उस ज़माने में उन्होंने स्वावलंबी होकर आर्थिक विपन्नता से मुक्त होने का प्रयत्न किया था। उन्होंने फिरोजपुर के अनाथालय में अध्यापिका का कार्य किया। अध्यापन कार्य के कारण यशपाल की मां फिरोजपुर छावनी में रहती थीं और पिता हीरा लाल कांगड़ा में रहा करते थे। वह कभी बालक यशपाल के साथ कांगड़ा आती रहती थीं। अध्यापिका की नौकरी करते हुए उनका कांगड़ा में स्थायी रूप में रहना संभव नहीं था, किंतु यशपाल केे पिता स्थायी रूप में कांगड़ा में रहते थे। यशपाल को बचपन से ही अपनी निर्धनता देखकर दु:ख होता था। उन्हें अपने पिता की आर्थिक विपन्नता खटकती थी।

निर्धनता से उनके आत्म सम्मान को चोट पहुंचती थी। अपने पिता की विपन्नता का उल्लेख करते हुए यशपाल जी कहते हैं, ‘मैं तब कांगड़ा गया, अपने पिता की स्थिति मुझे अपमानजनक ही अनुभव हुई। परंतु जाने क्यों लोग उन्हें ‘लाला’ के सम्मानजनक नाम से संबोधित करते थे, चाहे वे कैसी भी नौकरी क्यों न कर रहे हों।’ चौधरी चिंतराम ने एक दिलचस्प किस्सा बयान किया, ‘रंघाड़ के समीप ही एक छोटा सा छम्ब गांव था। वहां का एक व्यक्ति लैहरू राम अंग्रेज़ों का मुखबिर था। उसे यशपाल के कुएं पर बैठने से तकलीफ होती थी। बेवजह ताने कसता रहता था। एक दिन यशपाल ने उसके घर को बम से उड़ा देने का मन बना लिया था। लेकिन अन्य मकानों के नष्ट होने के डर से वे अपने मंसूबे को पूरा नहीं कर पाए। वास्तव में लैहरू राम के प्रति आक्रोश उसके अंग्रेजी हुकूमत के साथ सांठ-गांठ होने के ही कारण उपजा था। डॉ. रत्न चंद शर्मा यशपाल के अतीत पर हो रही बातचीत का केंद्र बिंदु बन गए थे। पुन: बोले, ‘यहीं क्यारी में नींबू का एक घना और काफी पुराना पेड़ था। मगर वह भी काल के ग्रास में समा गया। मुझे याद है वर्ष 1985 में जब यशपाल के छोटे भाई धर्मपाल रंघाड़ आए थे तो उस पेड़ को वहां न पाकर बेहद दु:खी हुए थे। यशपाल के भाई धर्मपाल यमुनानगर में रहते थे और 90 साल की उम्र में दिवंगत हुए। यशपाल को अपने घर, जमीन, जड़ों से बेहद लगाव था। वे बार-बार हिमाचल आते थे। उनकी अनेक कहानियों के पात्र यहां के समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। ‘फूलों का कुर्ता’ गज़ब की कहानी है। यशपाल कहा करते थे, ‘रंघाड़ में मेरी तीन कनाल जमीन है। मैं उस पर कुछ बनवाना चाहता हूं। हो सके तो पटवारी से बात कर उसकी निशानदेही करवाना। जरूर पता लगाना उसका’, लेकिन उस वक्त यशपाल को यह कहां मालूम था कि जमीन का वह टुकड़ा तो कब का किसी और का हो चुका था। जब यशपाल स्वाधीनता संग्राम में कूदे तो हिमाचल में पक्की तो क्या, कच्ची सडक़ों का भी नामोनिशान नहीं था। एक दफा तो यशपाल होशियारपुर से अपने गांव करीब 64 मील का सफर तय कर पहुंचे थे। संभवत: यह बात 1927-28 के आसपास की होगी। कांगड़ा व अपने गांव रंघाड़ से यशपाल को उम्र भर लगाव रहा। यह बात दीगर है कि वे लखनऊ में बस गए थे। वर्ष 1967 में 15 दिन तक यशपाल हिमाचल के कोने-कोने में घूमे थे। कुल्लू-मनाली भी गए।

कुल्लू दशहरा के प्रति उनके मन में विशेष आकर्षण था। नामालूम उन्होंने कहां से सुन रखा था कि कुल्लू दशहरे में औरतें बिकती थीं। मगर जब वहां गए तो उनका भ्रम टूटा। एक दफा अपनी पत्नी प्रकाशवती के साथ यात्रा करते हुए यशपाल ने टिप्पणी की थी, ‘देखो रानी ये पहाड़ की औरतें। ढेर सा घास सिर पर उठा कर ले जाती हैं। भला यू.पी. में ऐसे दृश्य कहां देखने को मिलेंगे।’ हिमाचल की उस अंतिम यात्रा में शांता कुमार और देशराज डोगरा नेे कुछ दिन यशपाल के साथ बिठाए थे। एक बार डोगरा से कहा, ‘भई देशराज अगर मैं भी गांव में ही पड़ा रहता तो लोग मुझे भी मुण्डू ही कहते। घास और लकड़ ही काटता रहता जिंदगी भर।’ यशपाल के गांव में उनके नाम पर स्मारक की स्थापना के लिए उनके बेटे आनंद चिंतित दिखाई देते हैं। वे कैनेडा में रहते हैं और पेशे से पत्रकार हैं।

उन्होंने अपने पिता की स्मृति में रंघाड़ गांव में प्रतिमा स्थापित करने की इच्छा जताई थी। लेकिन उनका यह सपना कभी साकार होगा भी या नहीं, कोई नहीं जानता। वैसे नादौन में यशपाल साहित्य प्रतिष्ठान एवं संस्कृति सदन की स्थापना की गई है, जिसका श्रेय पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल को है। यहां लेखक, संस्कृतिकर्मी ठहर सकते हैं। इस सदन में एक समृद्ध पुस्तकालय है और अक्सर भाषा विभाग की ओर से गोष्ठियां होती रहती हैं। इसकी परिकल्पना और इसे साकार रूप प्रदान करने में यशपाल साहित्य परिषद के अध्यक्ष डॉ. ब्रह्मदत्त शर्मा का योगदान है। वे बताते हैं, यूं तो यशपाल से भेंट करने का कभी सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, अलबत्ता इस महान साहित्यकार व क्रांतिकारी के प्रति उनके समर्पण भाव को देखकर सुखद अनुभूति होती है। यशपाल की स्मृतियों की खोज में मैं करीब दो घंटे रंघाड़ गांव के लोगों से बतियाता रहा। सब यही चाहते थे कि यशपाल की स्मृति में गांव में एक अदद अविस्मरणीय स्मारक बने। लेकिन सहसा मुझे यह ख्याल आया कि यशपाल के पूर्ववर्ती महान साहित्यकार प्रेमचंद के वाराणसी के समीप लमही गांव में जब आज तक कुछ नहीं बन पाया तो यशपाल तो उनके परवर्ती लेखक हैं। लौटते वक्त मन बेहद व्यथित था। गांव की सरहद से निकलकर मैंने पीछे मुडक़र देखा। लगा अंधेरे की महीन परत ने जैसे समूचे गांव को अपनी मु_ी में भींच लिया हो। खेदजनक है कि भारत के अनेक विश्वविद्यालयों में दीनदयाल उपाध्याय के नाम से स्टडी चेयर हैं जबकि कभी भी क्रिएटिव राइटर नहीं रहे। मगर यशपाल के नाम से पूरे भारत में कहीं भी सृजनपीठ या स्टडी चेयर नहीं हैं, न ही उनके नाम पर बड़ा संस्थान। वे हिंदी के महान लेखक थे। वे क्रांतिकारी थे। महान लेखक थे, लेकिन उन्हें कभी भारत सरकार द्वारा वह मान-सम्मान नहीं दिया गया जिसके वे सही मायने में हकदार थे।

-राजेंद्र राजन

शब्दों के ताने-बाने में सुदर्शन वशिष्ठ का ‘कस्तूरी मृग’

‘कस्तूरी मृग’ कहानी संग्रह की भूमिका बांधते लेखक सुदर्शन वशिष्ठ बड़ी सा$फगोई से अपनी कथायात्रा के सारे लाग-लपेट खोल देते हैं। कहानीकार खुद में साहित्य और साहित्य में खुद को प्रतिबिंबित करते-करते अपने विमर्श को आवाज देते हैं। संग्रह में कुल 16 कहानियों के बीच प्रश्नों के कई गुंबद, यथार्थ के कई चुंबक और जीवन की कसौटियों में लंबक दर्ज कर देते हैं। कहीं न कहीं सुदर्शन वशिष्ठ के लेखन में व्यंग्य की विशिष्टता कहानी के भीतर, अर्थों के कई कोष्ठक बना देती है। बहुकोणीय कहानियों की आंतरिक मीमांसा, वक्त के ठहराव और समय के तूफानों से जूझते संस्करण, मानों अपनी काया पलट रहे हों। अंधे मोड़ पर फिसलते जज़्बात और आगे बढऩे की आर•ाू में स्पष्टता और परिवेश चुनते हुए लेखक, भौगोलिक परिसीमन करती कहानियों के बीच कभी समाज, कभी सामाजिक परिभाषा, कभी संवेदना, तो कभी न•ारिया पेश कर देते हैं। परिदृश्य की कहानियों में- कहानियों का परिदृश्य, बहुरंगी कल्पनाओं के बावजूद हकीकत के आसपास खड़ा हो जाता है। चतुर्भुज यूं तो दो भुजाओं वाला प्राणी है, लेकिन उसने निजी सुकून की जितनी भी भुजाएं ओढ़ रखी थीं, वे अंतत: टूट गईं और तब जीवन के मुचलके में दर्ज कुछ पुराने निशान मिल जाते हैं। जिंदगी के शिखर जब बिखरते हैं, तो इच्छाओं के मोती, यथार्थ के पल और प्यार के स्पर्श भी बिखर जाते हैं। हम सभी के ऊपर न जाने कब खाल बदलने का संयोग या दुर्योग बन जाए, इसी उधेड़बुन में चतुर्भुज कब, क्यों और कैसे मोरध्वज बन जाता है और फिर इससे मुक्त होने की रेखा को लंबा कर देता है। गंधर्व, कहानी मानव मन की परिकल्पनाओं से निकलती छूअन की ओजस्वी धारा सरीखी है, जो प्रकृति के घटते-बढ़ते कद और लकदक न•ाारों के भीतर मन की थाह को पा लेने का स्पर्श बन जाती है।

प्रकृति के भीतर आश्रम, आश्रम के भीतर साधना और साधना के भीतर एक औरत के वजूद को कांटों की तरह छीलती शर्तें। सुकन्या ने अपने भीतर के अध्यात्म में स्वामी असीमानंद सरीखा कोई गंधर्व पा लिया या अमृत की खोज में जीवन के निष्कर्ष जब सामने आते हैं, तो उसे जोगण बनने की कसौटी पर गहरे पानी से निकाल कर तपती रेत पर तड़पने को छोड़ दिया जाता है। कहानी कई सीढिय़ां चढ़ती-उतरती, मानवीय इतिहास की चीरफाड़ और औरत होने के संताप में फिर एक औरत को विवाह की सूली पर चढ़ते देखती है। मंगू मदारी (किडनैप केस) में सत्ता के मदारी किस हद तक गिर सकते हैं और जोड़तोड़ की राजनीति में एक सपेरे की भी भूमिका हो सकती है, इसका विवरण देतीकहानी मंगू मदारी की काली विद्या को सियासी तश्तरी पर सजा देती है। राजनीति का अति विद्रूप चेहरा अपनी मांद में शिकार ढूंढते-ढूंढते मंगू के रहस्यमय चरित्र की परिक्रमा करता है। दलबदल के वीभत्स कारनामों में तंत्र-मंत्र की घुसपैठ से साक्षात्कार करती कहानी अपनी सत्यता को पुष्ट करती है। सरकारी कार्यसंस्कृति की परतें खोलता ‘ब्रीफकेस’, मास्टर मंगल को धाकड़ पत्रकारिता के लिए चुन लेता है। यहां लोकतंत्र के सारे स्तंभ एक ‘ब्रीफकेस’ में आ जाते हैं और जहां मंत्री, सचिव और पत्रकार की भूमिका की एक संदिग्ध साझेदारी का वजन महसूस होता है। पत्रकार के थैले का आतंक, लेदर बैग और फिर ब्रीफकेस तक कैसे पहुंचता है, इसे बारीकी से गूंथा गया है। छोटी सी अखबार के बंडल की तरह लिपटे मास्टर मंगल खुद और मीडिया के वजूद में भरपूर कोशिश करते हैं कि स्वतंत्र रहें, लेकिन वक्त की हवाओं को यह मंजूर कैसे होता। जिस ‘ब्रीफकेस’ के आधार पर खोज खबर का माध्यम रहस्यमय रहता है, अंतत: वह भी बिखर जाता है। शायद पत्रकारिता जब निर्वस्त्र होती है तो उसके वजूद में तन ढांपने तक की सूचना नहीं रहती। दानपुन्न- में मौत के कदम चलते, सन्नाटे ऊंघते हैं और उनमें उभरती चीख को सुना हुआ मान लेने की विवशता है। सांसों की गिनती में घर-परिवार के रिश्ते-नातों की गिनती भी हो जाती है।

संबंधों की किश्तियां इक उम्र ढोने की फिराक में और अंतिम घड़ी के बाहुपाश में फंसी जिंदगी के इर्द-गिर्द कमाई केसारे सिक्के एकत्रित हो जाते हैं। पंचरत्न- निजी अस्पताल के तराजू में पंगु होते संस्कारों का वजन और फीस पर चढ़े चांदी के व$र्क अब फैशन में हैं। इनसान के मुर्दा होने की निशानियां भी शानो-शौकत में भूल जाती हैं परंपराओं का मर्म। एक महंगे अस्पताल की छाती पर चढ़े ढेर सारे सवाल और तिल-तिल मरने की नौबत पर उपकरणों का सिंहासन भी अंतत: हार जाता है, फिर भी प्रताप अपने वेद भाई को घर से लाए पंचरत्न चटा देता है। हथेली में अंगारे- ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जन्म लेती कहानी का मार्मिक पक्ष सुशासन में कुशासन की खाल उधेड़ता हुआ आम आदमी की चेष्टा, सद्बुद्धि और सदिच्छा पर गिर रहीं, व्यवस्था की बिजलियों का नीर-क्षीर विवेचन करता है। मार्मिक शब्दावली के साथ-साथ व्यंग्य की संवेदना लिए कहानी छितर से छितरू के नामकरण पर एक टीस बन जाती है। कितना असहनीय होगा एक बाप को जूते यानी छितर गांठते-गांठते अपने बेटे को ‘छितरू’ नाम देना। नाखून में स्याही- एक बाबूनुमा व्यक्ति की जिंदगी से सारी खटास-भड़ास छीनने की जिद्द में लिखी गई कहानी है, ‘काग•ाों में जीता, काग•ाों में ही मरता है सरकारी आदमी।’ जब कान सुनते नहीं, आंखें ठीक से देखती नहीं, तब यादों के पिटारे बोलते हैं व अतीत के झरोखे देखते हैं। एक रिटायर्ड बाप और बेटे के संबंधों को मुखाग्नि देने के बाद शुरू होता औलाद होने का एहसास, तो यादों से क्षमा मांगते-मांगते बच्चों के पास रह जाता है बस एक ऋण बोझ, जो बाप की छोड़ी हुई दौलत के बावजूद हमेशा भारी रहता है। पीला गुलाल/वसंत/पतझड़- पहाड़ की दोस्ती में जिंदगी को फिर से बुनने की कोशिश में रश्मि अपनी मानसिक स्थिति के विकराल पन्नों में उलझ जाती है। उसे आश्रय चाहिए था। जब तक अमित ने दिया, वह उसके प्रति कृतज्ञ थी, लेकिन आगे उसे ‘शेरुबाबा’ फिर से जीवन के मंचन की ओर ले जाता है और प्रश्न रह जाता है कि मेहमाननवाजी और आश्रय के बीच आतिथ्य का शिष्टाचार भी क्या एक छलावा है। माणस बीज- पर्यटन की धूली में मटमैला होता सैलानी चरित्र, अंतरराष्ट्रीय होने की खुराक में उड़ता नशे का धुआं और आश्चर्य के बिंदुओं को बेनकाब करती यात्राएं अपने भीतर की गप्प गोष्ठी को चुटकीला बनाती हैं। पहाड़ में मर्द की असली नस्ल में आर्यन से पेट में बीज उगाती विदेशी महिला का चित्रण, इस कहानी के संदर्भों को वैचारिक धरातल प्रदान करता है।

हिडिंबा केवज- पवित्र और वैवाहिक जीवन की प्रासंगिकता में चमकता लाल चूड़ा, अब हथेलियों में व्यभिचार के जौं उगाने का उपक्रम बन गया है। यह ‘लाल चूड़ा पर्यटन’ किस तरह पर्वतीय अंदाज और पति-पत्नी के रिश्ते की ओट में शरीर का सौदागर बन जाता है। होटल अब सोते नहीं, रात के अंधेरों में ऐसे किसी पाप को ढोते अपनी आंखें बंद कर लेते हैं, क्योंकि भीतर कहीं लाल चूड़ा हर दिन सौदागर बनकर शरीर को व्यभिचार की चादर ओढ़ा देता है। एक सुर्ख कहानी के भीतर समाज की मान्यताओं की बिकवाली में आखिर कोई शर्मिंदा नहीं। कस्तूरी मृग- मठ के भीतर और मठ के बाहर के मायावी संसार से लामा दोरजे की मुलाकात एक मीडिया कर्मी महिला के मार्फत होती है। मठ की कठोर नियमावली से क्षण चुराती एक गैर तिब्बती महिला अंतत: एक दिन लामा दोरजे को ही मठ से चुरा कर ले गई और रह गया एक शेष-वीरान और रह गया मंत्रोच्चारण का एक उदास महल। येति- मीडिया के भ्रमित मायाजाल में उछलती-कूदतीं खबरें-सूचनाएं और पहाड़ पर अनिश्चय के काले सायों का रहस्य खोजती कोरी गप्पबाजी-लफ्फा•ाी। मीडिया को सत्य नहीं रहस्य चाहिए। दांतों तले अंगुलियां चबाने वाले दर्शकों एवं श्रोताओं को मसाला चाहिए। कहानी यूं तो कहानी है, जिसकी जद में हिममानव यानी येती खड़ा है, फिर भी बकौल सुदर्शन वशिष्ठ, ‘कथाकार अक्सर एल्यूजन में जीता है। जो देखता है, वह वास्तव में नहीं होता। जो होता है, वह दिखलाई नहीं पड़ता।’ मंच पर सन्नाटा तथा प्रेम मुक्ति जैसी दो कहानियां लिख कर कथाकार ने कोविड काल की यादों को पाठक के तकिए में बंद कर दिया है। लॉकडाउन में घर वापसी का संघर्ष और क्वारंटीन व्यवस्था से रिसते घावों को कहानी सहला देती है, तो प्रेम मुक्ति में कोविड त्रासदी का अत्यंत मार्मिक चित्रण हो रहा है। किसी अस्पताल तक मरीज का पहुंचना अपशुगन था, तो उसकी सकुशल घर वापसी उससे भी बड़ी त्रासदी थी। कौन मुर्दा हो गया, कौन अर्थी में उठ गया और किसका अंतिम संस्कार हो गया, इसे बारीकी से समझाते हुए लेखक, देवराज के पिता को अंतिम संस्कार से जिंदा लौटने से जोडक़र हर किसी की आंख को नम कर देते हैं। कस्तूरी मृग संग्रह में कहानीकार दरअसल शब्दों का बुनकर है और खड्डी की तरह काग•ा के ऊपर सारे परिवेश के ताने-बाने को कस कर नए पैटर्न में उकेर देता है। हर कहानी लयमय, कभी धीरे-धीरे तो कभी समवेत स्वर में भीतर को बाहर लाने की कोशिश करती है।                                                                                                                        -निर्मल असो

कहानी संग्रह : कस्तूरी मृग
कहानीकार : सुदर्शन वशिष्ठ
प्रकाशक : भावना प्रकाशन, दिल्ली
कीमत : 450 रुपए


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