हिमाचल में एक रिवाज बदल गया

यह भी कहा जा रहा है कि निचले हिमाचल में तो भाजपा को भाजपा ने ही हराने का काम किया है। हमीरपुर, ऊना और बिलासपुर में यही खेल चलता रहा। उसके बावजूद इन तीनों जिलों में दोनों दलों को मिले वोटों में कोई ज्यादा अंतर नहीं रहा। एक तटस्थ विश्लेषक ने सही कहा कि जनता तो भाजपा को जिताना चाहती थी, लेकिन जब भाजपाई ही भाजपा को हराने में लगे थे तो जनता बेचारी क्या करती। निचले हिमाचल में यदि टिकटों का आवंटन ठीक किया होता तो नतीजा भी ठीक ही होता। इस पर किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए कि जयराम ठाकुर के जिला मंडी में से भाजपा ने दस में से नौ सीटें जीत लीं। जयराम ठाकुर पर पांच साल में कोई ऐसा आरोप नहीं लगा जिसकी उनको सफाई देनी पड़ती। जयराम ने बदले की राजनीति भी नहीं की। लेकिन जयराम को अब प्रयास करना होगा कि वे स्वयं को पूरे प्रदेश का जननेता स्थापित कर सकें। जयराम को क्षेत्रीय क्षत्रप की इस परिधि से बाहर निकल कर पूरे पहाड़ी प्रदेश के साथ तारतम्य जोडऩा होगा। जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है, उसने भी अपनी बिसात इस बार निचले या नए हिमाचल में ही सजाई है। भाजपा इसका मुकाबला कैसे करती है, यह देखना होगा…

हिमाचल प्रदेश में ऐसा रिवाज चल पड़ा है कि पहाड़ के लोग एक बार सत्ता की कुंजी कांग्रेस को थमा देते हैं और दूसरी बार कांग्रेस से लेकर भारतीय जनता पार्टी के हवाले कर देते हैं। पिछली बार उन्होंने कुंजी भाजपा को दे दी थी। इस बार चुनावों में भाजपा ने एक नारा दिया था, चुनावों में प्रदेश के लोग दशकों से चला आ रहा यह रिवाज बदल देंगे। यानी इस बार भी सत्ता की कुंजी भाजपा के पास ही रहने देंगे। ख़बरें भी आ रही थीं कि कांटे की टक्कर हो रही है। लेकिन जब चुनाव परिणाम घोषित किए गए तो पता चला कि मतदाताओं ने रिवाज नहीं बदला और कुंजी भाजपा से लेकर कांग्रेस को थमा दी। लेकिन कांग्रेस ने रिवाज सचमुच बदल दिया। इससे पहले कांग्रेस के पास कुंजी जाने का अर्थ था कि वह रामपुर बुशहर रियासत के राज परिवार को दे दी जाती थी और राजा वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री बन जाते थे। पिछले दिनों वीरभद्र सिंह जी का देहांत हो गया था। लेकिन राजपरिवार से ही उनकी धर्मपत्नी श्रीमती प्रतिभा सिंह प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्षा थीं। उनका बेटा राजा विक्रमादित्य सिंह विधानसभा का सदस्य चुन लिया गया था। इसलिए सभी को लगता था कि सत्ता की यह कुंजी हाईकमान उनके परिवार के हवाले कर देगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कांग्रेस के पास सरकार बनाने के लिए बहुमत था। उसे विधानसभा की चालीस सीटें मिली थीं। प्रतिभा सिंह ने मुख्यमंत्री बनने के लिए अपना दावा भी पेश किया। उनका कहना था कि कांग्रेस ने यह चुनाव उनके पति वीरभद्र सिंह जी के नाम पर जीता है।

प्रदेश के लोगों ने वीरभद्र सिंह जी को श्रद्धांजलि देने के लिए ही कांग्रेस को जिताया है। इसलिए यह नहीं हो सकता कि चुनाव में उनके परिवार के नाम का इस्तेमाल किया जाए और काम निकल जाने पर परिवार को हाशिए पर धकेल दिया जाए। यह भाषा एक प्रकार से हाईकमान को चेतावनी देने वाली ही थी। विक्रमादित्य सिंह ने भी कहा कि बेटे के नाते मेरी इच्छा है कि मेरी मां मुख्यमंत्री बनें। लेकिन हाईकमान ने सब तर्कों को दरकिनार करते हुए हमीरपुर जिला के एक साधारण परिवार के राजपूत सुखविंदर सिंह सुक्खू को प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया। सत्ता राज परिवार के हाथ से छिन्न गई। जो काम पंडित सुखराम पूरा ज़ोर लगा कर नहीं कर सके, जबकि एक बार तो तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव भी उनके साथ थे, वह काम नादौन के सुक्खू ने कर दिखाया। आज पंडित सुखराम की आत्मा स्वर्ग से भी सुक्खू को दुआएं दे रही होगी। राजपरिवार ने यह तर्क भी दिया कि हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की जीत परिवार के मुखिया स्वर्गीय वीरभद्र सिंह के नाम के कारण हुई है। इस तर्क की हवा भारतीय जनता पार्टी के क़ौल नेगी ने निकाल दी। दरअसल रामपुर बुशहर इस राजपरिवार का केन्द्र है। यहां से अनेक बार राजा वीरभद्र सिंह जी जीतते रहे हैं। ऐसा माना जाता था कि यहां से राजपरिवार को उखाडऩा लगभग असम्भव है। इस बार तो राजा जी की मृत्यु के कारण इस क्षेत्र में उनको लेकर सहानुभूति भी थी। लेकिन समय का हेरफेर देखिए, उसी रामपुर से भाजपा के युवा लडक़े क़ौल नेगी ने इतनी टक्कर दी कि कांग्रेस का प्रत्याशी महज़ पांच सौ के आसपास ही ज्यादा वोट लेकर जीत सका। जब राज परिवार की बात उनके अपने रामपुर ने ही नहीं सुनी तो दिल्ली का बड़ा राज परिवार उनकी बात कैसे सुनता? इसलिए कहा जा सकता है कि हिमाचल प्रदेश ने यदि एक रिवाज नहीं बदला तो कम से कम दूसरा रिवाज तो बदल ही दिया है। अब बात भारतीय जनता पार्टी की। यदि शुद्ध आंकड़ों की ही बात की जाए तो कहा जा सकता है कि कुश्ती बराबर पर छूटी है। भाजपा को 43 प्रतिशत वोट मिले और कांग्रेस को 43.9 प्रतिशत वोट मिले। इसलिए दोनों पक्षों को मिले वोटों का अंतर महज़ कुछ हज़ार वोटों में ही सिमटा हुआ है। लेकिन सब जानते हैं आंकड़े राजनीतिक विश्लेषकों के लिए तो बहुमूल्य माने जाते हैं लेकिन जिनके हाथों से सत्ता छिन गई होती है उनके लिए ये आंकड़े सुकून देने वाले नहीं होतेॉ। कहा भी जाता है, एक नुक्ते के हेरफेर से खुदा जुदा हो गया।

अलबत्ता जहां तक भाजपा का संगठन चलाने वालों का प्रश्न है, उनके लिए ये आंकड़े काम के हैं क्योंकि प्रदेश की जनता ने भाजपा का साथ छोड़ा नहीं है। यह भी कहा जा रहा है कि निचले हिमाचल में तो भाजपा को भाजपा ने ही हराने का काम किया है। हमीरपुर, ऊना और बिलासपुर में यही खेल चलता रहा। उसके बावजूद इन तीनों जिलों में दोनों दलों को मिले वोटों में कोई ज्यादा अंतर नहीं रहा। एक तटस्थ विश्लेषक ने सही कहा कि जनता तो भाजपा को जिताना चाहती थी, लेकिन जब भाजपाई ही भाजपा को हराने में लगे थे तो जनता बेचारी क्या करती। निचले हिमाचल में यदि टिकटों का आवंटन ठीक किया होता तो नतीजा भी ठीक ही होता। इस पर किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए कि जयराम ठाकुर के जिला मंडी में से भाजपा ने दस में से नौ सीटें जीत लीं। जयराम ठाकुर पर पांच साल में कोई ऐसा आरोप नहीं लगा जिसकी उनको सफाई देनी पड़ती। जयराम ने बदले की राजनीति भी नहीं की। लेकिन जयराम को अब प्रयास करना होगा कि वे स्वयं को पूरे प्रदेश का जननेता स्थापित कर सकें । जयराम को क्षेत्रीय क्षत्रप की इस परिधि से बाहर निकल कर पूरे पहाड़ी प्रदेश के साथ तारतम्य जोडऩा होगा। जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है, उसने भी अपनी बिसात इस बार निचले या नए हिमाचल में ही सजाई है। भाजपा इसका मुक़ाबला कैसे करती है, यह देखना होगा। अभी तो समाचार पत्रों में आ रहा है कि जयराम ठाकुर ऊना के सतपाल सत्ती को प्रतिपक्ष का नेता बनाना चाहते हैं। यदि ऐसा हुआ तो यह भाजपा की पहली ठीक चाल कही जाएगी। शतरंज में आता है, प्यादे से फरजी भयो टेढो डेढो जाए। सत्ता मिलने पर यदि ‘टेढो’ चलने से बचा जाए तो बहुत सी पराजयों से बचा जा सकता है। भाजपा को अब विपक्ष में रहकर सृजनात्मक विपक्ष की भूमिका निभानी है। कांग्रेस ने जो वादे जनता से किए हैं, उनको लागू कराने के लिए सरकार पर दबाव बनाना है। सरकार को ऐसी नीतियां बनाने के लिए विवश करना है जो जनता के हित में हों।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल: kuldeepagnihotri@gmail.com


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