अक्साई चिन पर अफसोस जाहिर करेगा ड्रैगन

यदि देश के हुक्मरान सेना की 17वीं डिवीजन के कमांडर मे. ज. ‘सगत सिंह राठौर’ द्वारा 1967 में नाथुला सेक्टर में चीनी सेना पर की गई माकूल कार्रवाई को अमल में लाएं तो जंग की दहलीज पर बैठकर वार जोन में आने के ख्वाब देख रहा डै्रगन अक्साई चिन पर अफसोस जाहिर करेगा। इतिहास साक्षी है वजूद की लड़ाई किसी रूहानी ताकत नहीं बल्कि अचूक मारक क्षमता वाले हथियारों से लैस सेना के दम पर लड़ी जाती है..

गत नौ दिसंबर 2022 को अरुणाचल प्रदेश के तवांग सेक्टर में ‘यांग्त्से’ नामक सैन्य पोस्ट पर साजिश को अंजाम देने के इरादे से आए पीपल लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के सैनिकों का भारतीय सेना के जवानों ने अपने बेखौफ अंदाज में खैर मकदम करके डै्रगन को सख्त लहजे में पैगाम नसर कर दिया कि यदि एलएसी पर घुसपैठ की कोई हिमाकत बेकाबू होगी तो चीनी सेना का इस्तकबाल इसी शिद्दत से होगा। भारतीय रक्षा मंत्रालय ने भी तवांग की सैन्य कार्रवाई पर अपने सैनिकों के साहस व जज्बे पर खुशी का इजहार करके अपना रुख स्पष्ट कर दिया है। भारतीय सैनिकों की दिलेरी के आगे चीनी सेना के तर्जुमान कर्नल ‘लॉन्ग शाओहुआ’ ने अमन की पैरोकारी के लिए बयान जारी किया, नतीजतन चीनी सेना फ्लैग मीटिंग के लिए आमादा हुई। भारत व चीन के बीच सन् 1996 में हुए ‘कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मीजर्स’ नामक समझौते के तहत दोनों देशों के सैनिक एलएसी पर एक दूसरे की तरफ हथियारों का रुख नहीं कर सकते।

लेकिन विडंबना है कि सैन्य तसादुम सरहदों पर होते हैं, मगर हरारत देश की सियासत की बढ़ जाती है। आजादी के बाद देश के लिए पांच बड़े युद्धों व आतंकी घटनाओं में हजारों सैनिक अपना बलिदान दे चुके हैं। यदि भारत हमसाया मुल्कों से सरहदी तनाजे से जूझ रहा है तो इसके लिए देश की रियासत ही जिम्मेवार है। 1962 में भारत-चीन की सेनाओं की अदावत का मुख्य मरकज यही तवांग क्षेत्र था। भारतीय सेना शूरवीरता व राष्ट्रवाद की सबसे बड़ी प्रतीक रही है। सन् 1962 की भीषण जंग में चेयरमैन ‘माओ’ की सेना को सबक सिखाने वाले हिमाचली शूरवीर मेजर धन सिंह थापा ‘गोरखा’ व सुबेदार जोगिंद्र सिंह ‘सिख’ तथा शैतान सिंह भाटी ‘राजपूत’ समुदाय से थे। मगर उन तीनों परमवीरों का मंजिल ए मकसूद हिंदोस्तान की सरजमीं को दुश्मन से महफूज रखने का था। मेजर सोमनाथ शर्मा, यदुनाथ सिंह, मे. होशियार सिंह, एल्बर्ट एका तथा विक्रम बत्रा जैसे परमवीरों की कर्मभूमि रहा भारतीय सैन्य पराक्रम रणभूमि में दुश्मन के सामने कभी कमजोर साबित नहीं हुआ मगर सियासी पराक्रम में जरूर कमी रही है। 1962 में चीनी सेना के हमले से इसी तवांग सैक्टर को बचाने के लिए ‘13 डोगरा’ बटालियन के 75 जवानों तथा ‘9 पंजाब’ बटालियन के तीन अधिकारी व 62 जवानों ने रणभूमि में अपने प्राणों की आहुति दे डाली थी। बलिदान हुए आधे से ज्यादा जांबाजों का संबंध वीरभूमि हिमाचल से था। हिमाचली सूरमा सु. कांशीराम ‘महावीर चक्र’ ने इसी युद्ध में अपना पराक्रम दिखाया था।

9 पंजाब के मेजर महेंद्र सिंह चौधरी व नायक चैन सिंह दोनों ‘महावीर चक्र’ तथा ले. नवीन चंद्र कोहली व मलकीयत सिंह ‘वीर चक्र’ योद्धाओं ने चीन की पेशकदमी को नाकाम करके इसी तवांग सैक्टर के मैदाने जंग में शहादत को गले लगा लिया था। तवांग सैक्टर की रक्षा के लिए ही ‘प्रथम सिख’ के सुबेदार जोगिंद्र सिंह ‘परमवीर चक्र’ गोला बारूद खत्म होने के बाद चीनी सैनिकों को राइफलों की संगीनों से हलाक करके 23 अक्तूबर 1962 को अपने 24 सैनिकों के साथ ‘बुमला’ नामक स्थान पर वीरगति को प्राप्त हो गए थे। भारत के दिग्गज हॉकी ओलंपियन मेजर हरिपाल कौशिक ‘प्रथम सिख’ को सेना ने इसी युद्ध में अदम्य साहस के लिए ‘वीर चक्र’ से नवाजा था। उसी जंग में तवांग के नजदीक ‘नूरानांग’ में लगभग तीन सौ चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार कर सेना की ‘चार गढ़वाल राइफल’ के 154 शूरवीर रणभूमि में ही मौत की आगोश में समा गए थे। चीनी हमले में चौथी गढ़वाल के एकमात्र जीवित बचे 21 वर्षीय सिपाही जसवंत सिंह रावत ‘महावीर चक्र’ (मरणोपरांत) ने अपनी मशीनगन से तीन दिन तक निडरता से अकेले ही चीनी सेना का सामना करके 17 नवंबर 1962 को नूरानांग के रण में अपना सर्वोच्च बलिदान दे दिया था। नूरानांग में ‘बाबा जसवंत मंदिर’ जसवंत सिंह रावत के शौर्य की चश्मदीद गवाही आज भी मौजूद है। चीनियों से तवांग सैक्टर को महफूज रखने के लिए सेना की ‘चार राजपूत’ रेजिमेंट का एक सैन्य दस्ता अपने कर्नल ब्रह्मनंद अवस्थी व कै. दयाल सिंह के नेतृत्व में अंतिम सांस तक लड़ते हुए 23 नवंबर 1962 को युद्ध भूमि में ही बलिदान हो गया था। युद्ध में उन राजपूतों की शूरवीरता की दास्तां को बताने के लिए कोई जवान जीवित नहीं बचा था।

अत: सैन्य शौर्य पर सवाल भारत के उन महान योद्धाओं की तौहीन है जिन्होंने सैन्य संसाधनों की कंगाली के बावजूद हजारों फीट की बुलंदी पर मौजूद 3488 कि. मी. एलएसी पर रूह-ए-तामीर को गहरे जख्म देने वाली 1962 की शदीद जंग में वतन-ए-अजीज के लिए शहादत जैसे अजीम रुतबे को गले लगा लिया था। युद्ध में बलिदान सैनिक के शौर्य का सबसे बड़ा प्रमाण होता है। टीबी डिबेट या जम्हुरियत की पंचायतों में बैठकर हंगामा करने से सरहदों के बंकरों में अंधेरे की घुटन तथा सैनिकों की तश्त-ए-तन्हाई के आलम को नहीं समझा जा सकता। सरहदों पर संगीनों के साए में तशद्दुद व आग उगलती तोपें सैन्य जीवन की वास्तविक दास्तां है जिसका हर लम्हां राष्ट्र को समर्पित होता है। रक्षा क्षेत्र की जमीनी हकीकत से रूबरू होने के लिए एक मुद्दत तक सैनिक का असल किरदार अदा करना होता है। बहरहाल विस्तारवादी मंसूबों के नक्शेकदम पर चलने वाले चीन से सरहदी तनाजे का मुनासिब हल सैन्य कार्रवाई से ही मुकम्मल होगा। यदि देश के हुक्मरान सेना की 17वीं डिवीजन के कमांडर मे. ज. ‘सगत सिंह राठौर’ द्वारा 1967 में नाथुला सेक्टर में चीनी सेना पर की गई माकूल कार्रवाई को अमल में लाएं तो जंग की दहलीज पर बैठकर वार जोन में आने के ख्वाब देख रहा डै्रगन अक्साई चिन पर अफसोस जाहिर करेगा। इतिहास साक्षी है वजूद की लड़ाई किसी रूहानी ताकत या धन दौलत नहीं बल्कि अचूक मारक क्षमता वाले हथियारों से लैस सैन्यशक्ति के दम पर लड़ी जाती है। एलएसी पर ड्रैगन के नापाक कदमों की आहट बड़े खतरे की ओर इशारा करती है, लाजिमी है अंधेरा कोसने से पहले शमां अफरोज होनी चाहिए। सेना ने जिस मुस्तैदी से पीएलए को एलएसी पर बेआबरू करके बेदखल किया है, उस शौर्य का सम्मान होना चाहिए, यही देशहित में है।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं


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