ओपीएस के आगे दब गए असल मुद्दे

देश का हर चुनाव किसी की प्रतिष्ठा का प्रश्न बनता है, किसी का सियासी मुस्तकबिल दांव पर लगा होता है। किसी को अपनी सियासी विरासत बचानी होती है, मगर इक्तदार हासिल होने के बाद हुक्मरानों के सियासी आश्वासनों के आगे आम लोगों की उम्मीदें दम तोड़ जाती हैं। इंतखाबी तशहीर में किए वादे अंजाम तक नहीं पहुंचते…

गत 12 नवंबर 2022 को हिमाचल प्रदेश की कुल 68 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव एक ही मरहले में सम्पन्न हो गए। सूबे की सियासी हरारत कुछ हद तक शांत हुई है, लेकिन आठ दिसंबर 2022 को राज्य एक बार फिर देश-दुनिया की निगाहों का मरकज बनेगा, जब चुनावों में किस्मत आजमा रहे प्रदेश के 412 सियासी सितारों के मुकद्दर का फैसला ईवीएम की कैद से बाहर आएगा। चुनावी नतीजों के साथ ही पलकों से सियासी जज्बातों का सैलाब छलकेगा तो पहाड़ की शांत शबनम पर गिरने वाले अश्क भी सियासी होंगे। एक तरफ जीत का श्रेय लेने की होड़ मचेगी तो वहीं शिकस्त के लिए तोहमतों का दौर पुन: शुरू हो जाएगा। चुनाव प्रचार में कई बड़े सियासी चेहरों ने शिरकत की थी। मगर इस बार पहाड़ की फिजाओं का सियासी मिजाज़ भांपना सियासत के ज्योतिषाचार्यों के लिए भी मुश्किल साबित हो रहा है।

सूबे की सियासत में वर्षों पुरानी सियासी रवायत बदलेगी या हुकूमत का तख्तोताज तब्दील होगा। मतदाताओं का खामोश फैसला आठ दिसंबर को सियासी तस्वीर साफ कर देगा। प्रत्याशियों को जम्हूरियत का हाकिम बनाने के लिए युवावर्ग से लेकर सौ वर्ष से अधिक उम्रदराज बुजुर्गों ने मतदान में दिलचस्पी दिखाई। पुरुषों की अपेक्षा महिला शक्ति ने अधिक भागीदारी दर्ज कराई, मगर चुनावी मैदान में केवल 24 महिला प्रत्याशी हिस्सा ले रही हैं। मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए कई लोकलुभावन वादे किए गए लेकिन चुनाव में ‘ओपीएस’ का मुद्दा हावी होने से पहाड़ की समस्याओं के कई अन्य मुद्दे दब कर रह गए। सरकारी अहलकार सेवानिवृति के बाद ओपीएस बहाली की पुरजोर मांग कर रहे हैं। ओपीएस पर सियासी मरहम लगाने की कोशिश भी हो रही है मगर सरकारी इदारे कर्मचारियों की कमी से जूझ रहे हैं। लाखों डिग्रीधारक युवा रोजगार मांग रहे हैं। प्रदेश हजारों करोड़ रुपए के कर्ज में डूब चुका है। बेरोजगारी के सैलाब में मुज्तरिब हो चुके प्रजातंत्र की बुनियाद युवावर्ग को कोई साहिल नजऱ नहीं आ रहा। मगर सियासत मुफ्तखोरी के हसीन ख्वाब दिखा रही है। पर्वतीय प्रदेश में रोजगार के सीमित साधन होने के कारण पहाड़ के उच्च शिक्षित युवा रोजगार के लिए देश के दूसरे राज्यों में भटक रहे हैं। सैन्य पृष्ठभूमि का गढ़ रहे हिमाचल के युवाओं का ज्यादातर रुझान देशरक्षा के लिए सैन्य बलों में भर्ती होने को रहता है मगर कुछ वर्ष पूर्व मुल्क के मरकजी वजीरों ने प्रदेश के सैन्य भर्ती कोटे में कटौती करके पहाड़ की युवाशक्ति के अरमानों पर पानी फेर दिया है।

सैन्य भर्ती कोटे में बढ़ौतरी तथा राज्य के नाम पर ‘हिमाचल रेजिमेंट’ के गठन का मुद्दा चुनावों में किसी भी सियासी दल के एजेंडे में शामिल नहीं था। देश की सरहदों की हिफाजत में अपना पूरा यौवन न्योछावर करने वाले पूर्व सैनिकों को चिकित्सा सेवाओं के लिए चंडीगढ़ का रुख करना पड़ता है। सियासत में तब्दीली लाने की हैसियत रखने वाले लाखों सैन्य परिवारों की संख्या के मद्देनजर राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए ईसीएचएस तथा सीएसडी कैंटीन सुविधाओं का विस्तार होना चाहिए। हिमाचल में लगभग 90 प्रतिशत लोग अदब व तहजीब का केन्द्र गांवों में बसते हैं। सत्ता का रास्ता देश की करोड़ों आबादी को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने वाले ग्रामीण क्षेत्रों के बीच से होकर ही गुजरता है। पशुपालन, कृषि व बागवानी का पुश्तैनी व्यवसाय वर्षों से गावों के अर्थतंत्र की बुनियाद रहा है, मगर प्रदेश की सडक़ों पर हजारों की तादाद में धूल फांक रहा बेसहारा गौधन किसानों के लिए सबसे बड़ा तशवीशनाक मसला बन चुका है। लावारिस पशुओं व बंदरों से फसलों को बचाने के लिए सरकारों ने कई योजनाएं चलाई मगर धरातल पर कोई भी हिकमत कामयाब नहीं हुई। नतीजन कई किसान खेती का पुश्तैनी व्यवसाय छोड़ कर मजदूर बनने को मजबूर हुए। बेसहारा पशुओं के कहर से कृषि क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा वीरानगी की जद में जा चुका है। चुनावी समर में किसान व कृषि से जुड़े मुद्दे भी नदारद रहे। सडक़ों पर गंभीर हादसों का कारण बनने वाले बेजुबान गोवंश को आश्रय देने की आवाजें भी खामोश हो गई। कुछ समय से हिमाचल की सरजमीं पर नशा माफिया व खनन माफिया की दस्तक से लोगों में दहशत का माहौल बना हुआ है। खनन माफिया ने राज्य की खड्डों का सीना छलनी करके पेयजल योजनाओं को इस कदर मुतासिर कर दिया है कि लोग पीने के पानी को भी मोहताज हैं। देवभूमि के धरातल पर पैर पसार चुके माफियाओं के अवैध कारोबार से सरकारी व्यवस्थाओं की कार्यप्रणाली तथा अफसरशाही के सुस्त रवैये पर सवाल खड़े होते हैं।

कुदरत ने हिमाचल को वन संपदा जैसे प्राकृतिक संसाधनों के अकूत भंडारों से नवाजा है। प्रदेश की अमूल्य खनिज संपदा के दम पर सीमेंट कंपनियां अरबों रुपए कमा रही हैं। सीमेंट कंपनियों के लिए लोगों को पलायन तक करना पड़ा था मगर हिमाचल के लोग अपने ही राज्य में सीमेंट महंगे दामों पर खरीदने को मजबूर हैं। सीमेंट की मूल्यवृद्धि आम लोगों के भवन निर्माण में परेशानी का सबब बनी है। देश में एक मुद्दत से आरक्षण व्यवस्था के चलते कई प्रतिभाओं का साहस डगमगा चुका है। निजी शिक्षण संस्थानों में महंगी शिक्षा के कारण ग्रामीण क्षेत्रों की प्रतिभाएं उच्च शिक्षा से महरूम रह जाती हंै। सरकारी उच्च शिक्षण संस्थानों में विद्यार्थियों के लिए छात्रावास की सीमित सुविधाओं के कारण महंगे निजी आवास अभिभावकों के लिए गर्दिश पैदा कर रहे हैं। भारतीय संस्कृति में पूज्य रहा अर्थव्यवस्था की रीढ़ गौधन तथा मुल्क की तरक्की में इंकलाबी किरदार अदा करने वाली युवा ताकत यदि बोहरान के दौर से गुजर रही है तो आत्मनिर्भरता का समीकरण अधूरा रहेगा। देश का हर चुनाव किसी की प्रतिष्ठा का प्रश्न बनता है, किसी का सियासी मुस्तकबिल दांव पर लगा होता है। किसी को अपनी सियासी विरासत बचानी होती है, मगर इक्तदार हासिल होने के बाद हुक्मरानों के सियासी आश्वासनों के आगे आम लोगों की उम्मीदें दम तोड़ जाती हैं। इंतखाबी तशहीर में किए गए वादे अक्सर अंजाम तक नहीं पहुंच पाते। बहरहाल 14वीं विधानसभा के जनप्रतिनिधियों को आम लोगों से जुड़े उपरोक्त मुद्दों की पैरवी पूरी शिद्दत से करनी होगी। युवाओं के बेहतर भविष्य के लिए रोजगार के साधन पैदा करने होंगे।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं


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