कश्मीर में चल रहा संघर्ष ऐतिहासिक

कश्मीर घाटी में देसी कश्मीरियों व एटीएम में शेर-बकरा का यह खेल इतने दशकों से चल रहा है। शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों का साथ छोड़ कर एटीएम के हाथों के खिलौना बन गए…

कश्मीर में चल रहे घटनाक्रम को समझने के लिए अरब, तुर्क, मुग़ल (एटीएम) और कश्मीरी मुसलमानों के बीच सदियों से चल रहे संघर्ष को समझना आवश्यक है। कश्मीर घाटी में एटीएम और कश्मीरी मुसलमानों के भीतरी संघर्ष को समझने के लिए घाटी पर मुग़लों के कब्जे से शुरू कर सकते हैं, लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए शाहमीर वंश और चक वंश के राज को समझना होगा। शाहमीर वंश स्वात घाटी (स्वात आजकल पाकिस्तान के खैबर पख्तूनखवा प्रान्त का एक जिला है) का था और चक या चक्र गिलगित क्षेत्र के रहने वाले थे। इसलिए यदि कश्मीर घाटी, गिलगित और बलतीस्तान को एक भौगोलिक और राजनीतिक क्षेत्र मान लिया जाए तो कश्मीर में विदेशी राज मुगल काल से शुरू होता है जब अंतर ने इस इलाक़े पर कब्जा कर लिया था। लेकिन एक बात ध्यान में रखनी होगी कि कश्मीर घाटी में शाहमीर व चक शासन काल में ही अरब सैयद, मध्य एशिया के तुर्क और मुगल घाटी में आ गए थे। कुछ हमलावरों के साथ आए और शेष राज दरबार में नौकरी व रुतबे के लिए आए। इसी कालखंड में इस पूरे क्षेत्र की आबादी को मतान्तरित करके इस्लाम पंथ या शिया पंथ में शामिल करने का अभियान शुरू हो गया था। इसका कारण था कि स्वात व गिलगित के लोग कश्मीरियों से पहले ही मतान्तरित हो चुके थे। 1586 में मुग़लों ने कश्मीर घाटी पर कब्जा कर लिया। कश्मीरियों ने इसका शक्ति भर विरोध किया लेकिन विजय मुग़लों के हाथ रही। मुगल शासकों ने घाटी में मतान्तरण के काम को और आगे बढ़ाया। दरबार में रुतबे के कारण एटीएम का कश्मीरी लोगों पर दबदबा व आतंक बराबर क़ायम रहा। ये स्वयं को इस्लाम के रहबर मानते थे, इसलिए मस्जिदों व इवादत खानों पर इन्हीं का कब्जा था। मस्जिदों के माध्यम से एटीएम कश्मीरी मुसलमानों पर मानसिक नियंत्रण रखता था या फिर उनका शोषण करता था। कश्मीर की राजनीतिक सत्ता, प्रत्यक्ष या परोक्ष एटीएम के और मज़हबी सत्ता प्रत्यक्ष ही एटीएम के मुल्ला मौलवियों के हाथ आ गई थी। इसलिए कश्मीरी मुसलमान इनके नागपाश को तोडऩे की या तो हिम्मत नहीं रखते थे या फिर साहस नहीं दिखा पाते थे। लेकिन बौद्धिक दृष्टि से कश्मीरी इन सैयदों, तुर्कों और मुग़लों से कहीं आगे थे। कश्मीर को तो वैसे भी सरस्वती का घर कहा जाता है और कश्मीरियों को सरस्वती पुत्र। यह ठीक है कि कश्मीरियों ने इस्लाम पंथ या शिया पंथ को पकड़ लिया था लेकिन इससे उनकी बौद्धिक क्षमता तो नष्ट नहीं हुई थी। बौद्धिक क्षमता में एटीएम के मुल्ला मौलवी, क़ाज़ी, मुफ़्ती, पीरजादे सब देसी कश्मीरी मुसलमानों यानि केएम के आगे बौने पड़ते थे।

इसे कश्मीरियों का दुर्भाग्य ही कहना होगा कि ऐसे मौक़ों पर कश्मीर के ही कुछ जयचन्दों ने भी कश्मीरियों को मतान्तरित करने वालों का साथ दिया। सूहा भट्ट उनमें से सबसे ज्यादा कुख्यात था। ऐसा भी नहीं कि कश्मीरी युद्ध में निष्णात नहीं थे। उन्होंने मुग़लों का डट कर मुक़ाबला किया था। लेकिन अकबर ने धोखे से कश्मीर पर कब्जा किया। उसके बाद ही मुग़लों ने कश्मीरियों को कायर कह कह कर उनमें हीन भावना भरने का मनोवैज्ञानिक प्रयोग जारी रखा हुआ था। लेकिन इस सब के वाबजूद कश्मीर घाटी में एटीएम मूल के मुसलमानों की जनसंख्या 2-3 फीसदी से कभी ज्यादा नहीं रही। नगण्य संख्या के बावजूद 95 फीसदी देसी कश्मीरी मुसलमानों (केएम) पर एटीएम का दबदबा बराबर रहा। परन्तु इस पूरे परिदृश्य में महाराजा रणजीत सिंह और महाराजा गुलाब सिंह के आ जाने से हालात बदल गए। महाराजा रणजीत सिंह ने सप्त सिन्धु क्षेत्र में से विदेशी शासकों को पराजित कर और वहां के छोटे छोटे राजाओं को एक राज्य में मिला कर पूरे पश्चिमोत्तर भारत में एकीकरण व आज़ादी का बिगुल बजा दिया। गुलाब सिंह का उसने जम्मू के राजा के तौर पर चिनाव नदी के किनारे राजतिलक किया। उसके बाद गुलाब सिंह ने इस पर्वतीय क्षेत्र के छोटे छोटे सामन्तों का एकीकरण शुरू किया। रणजीत सिंह और गुलाब सिंह के इस अभियान से सीमान्त पेशावर से लेकर श्रीनगर तक विदेशी सत्ता उखड़ गई और उसके साथ ही एटीएम का दबदबा भी हवा में झूलने लगा । जम्मू कश्मीर की सत्ता प्रदेश के लोगों के ही हाथ आ गई । गुलाब सिंह रियासत के पहले महाराजा हुए।

मुग़ल-अफग़ान शासकों का स्थान स्थानीय शासकों ने ले लिया है, यह पीड़ा भी एटीएम को भीतर ही भीतर सालती रहती थी। शाहमीर व चक वंश के शासन में एटीएम का राज्य तो नहीं था लेकिन शासकों के हम मजहब होने के कारण दबदबा तो था ही। मुगल काल में तो उन्होंने सत्ता को संभाल ही लिया था। मस्जिदों पर कब्जा तो था ही। लेकिन सत्ता का आभामंडल छिन जाने से एटीएम का दर्दे दिल वही जान सकते थे। ऊपर से तुर्राह यह कि गुलाब सिंह से लेकर महाराजा हरि सिंह के शासन काल में बीच बीच में ख़बरें उड़ती रहती थीं कि कश्मीरी मुसलमान फिर से अपने पुरखों की विरासत में वापिस लौटने की तैयारी कर रहे हैं। आर्य समाज भी घाटी में सक्रिय था जिसने घर वापिसी का शुद्धि आन्दोलन चला रखा था। महाराजा रणवीर सिंह (1857-1885) के कार्यकाल में तो घर वापसी की यह योजना काफी आगे बढ़ गई थी । लेकिन स्वामी दयानन्द जी की यह सलाह कश्मीरी पंडितों के रास नहीं आई। वे देसी कश्मीरी मुसलमानों की घर वापसी के पक्ष में नहीं थे। लेकिन महाराजा रणवीर सिंह व कश्मीरी मुसलमान इस काम के लिए वजिद थे। तब कश्मीरी पंडितों ने महाराजा रणजीत सिंह को डराया, यदि कश्मीरी मुसलमानों की घर वापिसी की प्रार्थना का विरोध हुआ तो वे वितस्ता की गहराई में डूब कर आत्महत्या कर लेंगे। पंडितों की आत्महत्या के भय से महाराजा भी भयभीत हो गए। अभियान रुक गया था। लेकिन एटीएम का दूसरा था। आखिर यह अभियान कब तक रुक सकता था? आज तो श्रीनगर के पंडित ही घर वापसी के रास्ते में दीवार वन गए थे लेकिन कल यदि महाराजा ने यह दीवार गिरा दी या स्वयं ही भरभरा कर गिर गई तब? यदि कश्मीरी मुसलमान वापिस अपने पुराने घर में चले गए तो एटीएम की सत्ता तो दूर की बात थी, इनको खाने के भी लाले पड़ सकते थे। मस्जिदों में दान दक्षिणा तो देसी कश्मीरी मुसलमान (केएम) ही चढ़ाता था। एटीएम अपनी कम संख्या के कारण महाराजा हरि सिंह की सरकार से लड़ भी नही सकते थे। कैसे इस सत्ता को हटाया जाए और प्रत्यक्ष या परोक्ष सत्ता फिर से उनके हाथ में आ जाए? फिलहाल तो देसी शासकों की हां में हां मिलाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था। एटीएम एवं देसी कश्मीरियों के इस परस्पर संघर्ष के बाद कश्मीर में शेर-बकरा अवधारणा पर चर्चा करना आवश्यक है।

अलीगढ़ में मुस्लिम विश्वविद्यालय खुलने के बाद कश्मीर के अधिकांश कश्मीरी मुसलमानों ने नज़दीक का पंजाब विश्वविद्यालय छोडक़र अलीगढ़ जाना शुरू कर दिया था। श्रीनगर के एक युवा देसी कश्मीरी मुसलमान शेख मोहम्मद अब्दुल्ला भी पंजाब विश्वविद्यालय को अलविदा कह कर आगे की पढ़ाई करने के लिए अलीगढ़ चले गए थे। वहां से आकर शेख ने बीसवीं शताब्दी के पहले दशकों में कश्मीर में महाराजा हरि सिंह को अपदस्थ करने के लिए आन्दोलन चलाया था। एटीएम अनेक दशकों से इसी की तलाश में था। एटीएम के मीरवाइज़ ने शेख अब्दुल्ला को श्रीनगर की जामिया मस्जिद मंच ही मुहैया नहीं करवाया बल्कि उसको शेर-ए-कश्मीर भी कहना शुरू कर दिया। लेकिन एटीएम और देसी कश्मीरी मुसलमानों का यह गठबन्धन चार क़दम भी नहीं चल पाया। जल्दी ही देसी कश्मीरियों ने एटीएम को उनकी लम्बी दाढ़ी के कारण बकरा कहना शुरू कर दिया। इस प्रकार चार शताब्दियों से घाटी का निराकार एटीएम शेर-बकरा के रूप में साकार हो उठा था। बस ध्यान रखने वाली बात केवल इतनी है कि कश्मीरियों ने एटीएम को बकरा का नाम दिया था और स्वयं को शेर घोषित किया। कश्मीर घाटी में देसी कश्मीरियों व एटीएम में शेर-बकरा का यह खेल इतने दशकों से चल रहा है। यह अलग बात है कि बाद में शेख अब्दुल्ला ही सत्ता के लोभ में कश्मीरियों का साथ छोड़ कर एटीएम के हाथों के खिलौना बन गए।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com


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