फेसबुक साहित्यिक सृजन का नया वितान

वास्तव में फेसबुक को ठेसबुक नहीं बल्कि स्पेसबुक कहा जाना चाहिए। निस्संदेह फेसबुक एक सशक्त माध्यम है। माना सोशल मीडिया की कुछ कमियां हैं, परंतु यह धारणा बना लेना कि फेसबुक पर जो साहित्यिक सृजन हो रहा है वो स्तरहीन है, न्यायसंगत व तर्कसंगत नहीं। गलत नहीं है कि सोशल मीडिया ने साहित्य को नया वितान दिया है…

ये अलग बात है कि साहित्यिक आयोजनों में कई शिष्ट, विशिष्ट व प्रतिष्ठित लेखक अपने अध्यक्षीय उद्बोधनों में फेसबुक को ठेसबुक कहते हुए सुने जा सकते हैं, परंतु गोष्ठियों की गर्मी उतरने के बाद उनमें से अधिकतर फेसबुक पर ही न•ार आते हैं। ये तो पता नहीं कि वे कौनसी भड़ास फेसबुक पर उतारते हैं, परंतु ये असत्य नहीं कि फेसबुक या सोशल मीडिया ने लेखकों को नया वितान दिया है। यह ऐसा माध्यम है कि सभी को अपनी कलम की खलिश मिटाने को लालायित करता है। बताइए, इसमें बुरा क्या है? फेसबुक सबसे आग्रह करती है-राइट समथिंग हिअर अर्थात यहां कुछ लिखिए या वॉट इज इन यॉर माइंड अर्थात तुम्हारे मन में क्या है। सबको खुद में समाहित करने वाली फेसबुक को ठेसबुक कहने वाले प्रतिष्ठित रचनाकार क्यों ठेसित हैं, इसके कई कारण हो सकते हैं। विषयांतर न होकर इस बात पर फिर कभी बात करेंगे। बहरहाल सोशल मीडिया और साहित्य का आपस में जो रिश्ता बना है उस पर केंद्रित हो जाते हैं। मानव विकास के साथ लेखन ने भी कई मंजिलें तय की हैं। श्रुति और स्मृति के माध्यम से होते हुए पत्थरों, ताड़पत्रों और भोजपत्रों से होते हुए शब्द कागज पर उतरने लगे।

पुस्तकें आयीं और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से लेखक पाठकों तक पहुंचने लगे। होते-होते ये हुआ कि आज लेखन डिजिटल युग में पहुंच गया। मतलब यह कि लेखन के माध्यम विकसित होते रहे। आखिर फेसबुक भी अभिव्यक्ति का एक माध्यम है, एक खुला आसमान है। वास्तव में यदि रचना में दम है, शब्दों में जान है, अभिव्यक्ति प्रभावी है, तो वो रचना फेसबुक पर भी श्रेष्ठ होगी, कागज पर भी श्रेष्ठ होगी और पुस्तक व पत्र-पत्रिकाओं में छपी हुई भी श्रेष्ठ होगी। लेखन की गुणवत्ता का मापक माध्यम नहीं हो सकता। गुलाब का फूल चंडीगढ के रोज़ गार्डन में भी उतना ही सुंदर लगेगा और वैसी ही खुशबू देगा जितना सुंदर वो किसी के आंगन की फुलवाड़ी में लगता है व जैसी खुशबू वो वहां देता है। गुलाब को और सुंदर होने व और खुशबूदार होने के लिए रोज़ गार्डन में जाकर खिलने की ज़रूरत नहीं। अर्थात लेखन का माध्यम बदलने से शब्द नहीं बदल जाते। लेखन के उत्कृष्ट व निकृष्ट होने में माध्यम का कोई योगदान नहीं। पिछले वर्ष फेसबुक पर नवीन चोरे नामक एक युवा कवि की मॉब लिंचिंग पर कही कविता फेसबुक पर इतनी पसंद की गयी कि उन्हें कई टीवी चैनलों पर साक्षात्कार व कविता वाचन के लिए बुला लिया गया और वे कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए। एक नए लेखक के लिए तो सोशल मीडिया एक खुला मंच मिला है। उसके लिए सबसे बड़ी समस्या होती है अपनी रचना को छपवाना। प्रकाशक को पैसे चाहिए, अखबारों में स्पेस नहीं, पत्रिकाओं के अपने कायदे व पूर्वाग्रह हैं। वहां पहले से ही भीड़ लगी है।

स्पेस की कमी के चलते लेखक की रचनाएं बेहतर होते हुए भी छपने से रह जाती हैं। वह सोशल मीडिया की ओर आता है और बिना किसी लाग-लपेट के लिख डालता है। तुरंत प्रतिक्रियाएं आनी शुरु हो जाती हैं और उसे तसल्ली हो जाती है कि उसकी रचना पढ़ी, सुनी व समझी जा रही है। गांव के किसी कोने, किसी खेत या छत पर बैठा कोई आदमी भी कविता या कहानी लिखना चाहता है। सोशल मीडिया उसके लिए सबसे उत्तम जगह है। जैसे ही भावनाओं का सैलाब उसके मन में उठता है, वह उसे अपनी वॉल पर उंडेल देता है। गांव में बैठा वह व्यक्ति हर रोज़ शहर के बुक कैफे या कवि गोष्ठियों में तो नहीं जा सकता। अत: सोशल मीडिया पर लेखकों का अंबार लगा है। अब उसे अपनी रचनाएं छपवाने की चिंता नहीं क्योंकि उसे फेसबुक पर जगह मिल गई है। संभव है कि सोशल मीडिया पर जो कुछ लिखा जा रहा है, वह किसी मंझे हुए लेखक की दृष्टि में स्तरहीन हो, परंतु स्तरहीनता तो औपचारिक मीडिया पर भी है। यदि पाठक को किसी का लिखा पसंद आ रहा है तो गिला क्यों? अंतत: लेखन तो पाठकों के लिए जाता है। जिसकी कलम में ताकत होगी, वो कलम चलती रहेगी। चाहे फेसबुक हो या छपी हुई बुक हो। फेसबुक पर लिखा जा रहा सब साहित्य कूड़ा नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे पत्र-पत्रिकाओं में छपी हुई हर रचना उत्कृष्ट नहीं है। लेखन का मयार किसी की लेखकीय सामथ्र्य व चेतना के अनुसार कम-ज़्यादा हो सकता है। माध्यम चाहे फेसबुक ही क्यों न हो, प्रतिष्ठित रचनाकार को अपनी टिप्पणियों से नए लेखकों का मार्गदर्शन करना चाहिए। इंटरनैट का सबसे बड़ा फायदा है कि यह हमें संसार के साहित्य से मॉउस बटन के एक क्लिक पर रूबरू करवा देता है।

हमें पैसा खर्च कर चंडीगढ़, नई सडक़ या दरियागंज दिल्ली जाकर दुकानें छानने की आवश्यकता नहीं। वैसे भी व्यक्ति कितनी किताबें खरीद सकता है। इधर वह अपनी रुचि की पुस्तकें, ई-बुक्स ऑनलाइन पढ़ रहा है। उसे अपने साथ पुस्तकें उठाने की ज़रूरत नहीं क्योंकि वह पांच इंच के स्मार्ट फोन पर पुस्तकों की पूरी दुनिया ले कर चल रहा है। काव्य, कहानी, नाटक, निबंध सब उसकी पहुंच में हैं। साहित्य का मतलब कोरे कोरे कागजों को काले काले अक्षरों से स्याह करना नहीं, बल्कि अधिकाधिक जन-मन तक इसका संप्रेषण भी अभीष्ट उद्देश्य है। जहां साहित्य कल्पना व मानव संवेदनाओं का शब्द रूप होता है, वहीं यह समाज को परिमार्जित और परिष्कृत करने का प्रयास भी करता है। अन्यथा साहित्य चंद आयोजनों में की जा रही गोष्ठियों, कुछ विशिष्ट व प्रतिष्ठित साहित्यकारों द्वारा चाय की मेज़ पर हो रही चर्चाओं या किसी बुक कैफे में की जाने वाली तनकीदों व टिप्पणियों तक ही सीमित रह जाता है। सम्प्रेषण का ये कार्य फेसबुक या सोशल मीडिया बखूबी कर रहा है। हो सकता है सोशल मीडिया पर लेखन की चोरी चकारी काफी है, परंतु चोर तो किताबों, अखबारों व रसालों से भी चुरा रहे हैं। वास्तव में फेसबुक को ठेसबुक नहीं बल्कि स्पेसबुक कहा जाना चाहिए। निस्संदेह फेसबुक एक सशक्त माध्यम है। माना सोशल मीडिया की कुछ कमियां हैं, परंतु यह धारणा बना लेना कि फेसबुक पर जो साहित्यिक सृजन हो रहा है वो स्तरहीन है, न्यायसंगत व तर्कसंगत नहीं। गलत नहीं है कि सोशल मीडिया ने साहित्य को नया वितान दिया है। अत: फेसबुक से ठेसित न होकर कलम की ताकत को पाठकों पर छोड़ देते हैं।

जगदीश बाली

लेखक शिमला से हैं


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