संकट के दौर में आस्था के पहाड़

जोशीमठ जैसी आपदाओं को प्राकृतिक आपदा का नाम देने से पहले पहाड़ों पर इनसानी दखलअंदाजी से हो रही घटनाओं पर रायशुमारी होनी चाहिए। इनसानी सभ्यता के मुस्तकबिल को महफूज रखने के लिए भूगर्भ वैज्ञानिकों की नसीहत व निर्देशों को संजीदगी से लेना होगा। जोशीमठ को हर कीमत पर बचाना होगा…

पृथ्वी पर कुदरत की सबसे खूबसूरत व संवेदनशील रचना पहाड़ हैं। हिमाचल, उत्तराखंड, सिक्किम व अरुणाचल प्रदेश पर्वतीय राज्यों में शुमार करते हैं। सनातन संस्कृति में अनादिकाल से पर्वत करोड़ों लोगों की आस्था का केंद्र रहे हैं। एकांत में सुकून के पल बिताने के लिए देश-विदेश से लाखों पर्यटक प्रति वर्ष पहाड़ों का रुख करते हैं। श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र सैंकड़ों मंदिर पहाड़ों पर मौजूद हैं, लेकिन कुछ समय से आस्था के पहाड़ पर्यटकों की भारी भीड़, बढ़ती आबादी का बोझ व बढ़ते शहरीकरण तथा ग्लोबल वार्मिंग की चपेट में आकर कई आपदाओं के दौर से गुजर रहे हैं। भूस्खलन, हिमस्खलन, ग्लेशियर पिघलने व बादल फटने से सैलाब जैसी सूरतेहाल में पहाड़ों का तवाजुन बिगडऩे से पर्वत दरक रहे हैं, मगर आपदाओं की कीमत पहाड़ों पर निवास करने वाले लोग चुका रहे हैं। वर्तमान में उत्तराखंड के चमोली जिले में प्राचीन पौराणिक शहर जोशीमठ भू-धंसाव के कारण भयंकर विपदा का सामना कर रहा है। स्मरण रहे सनातन धर्म की प्रतिष्ठा तथा पवित्र चार वेदों को सुरक्षित रखने के लिए सनातन धर्म के महान ध्वजवाहक ‘आदि शंकराचार्य’ ने सदियों पूर्व भारत की चार दिशाओं में चार शंकराचार्यों के नेतृत्व में चार मठों की स्थापना करके इन मठों को चारों वेदों से जोडक़र भारत की सांस्कृतिक एकता को कायम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अद्वैत वेदांत के प्रर्वतक महान संत शंकराचार्य ने अपनी युवा अवस्था में ही सनातन संस्कृति की रक्षा का बीड़ा उठा लिया था।

उत्तराखंड़ में स्थापित ‘ज्योतिर्मठ’ को वर्तमान में जोशीमठ के नाम से जाना जाता है। विख्यात तीर्थस्थल बद्रीनाथ धाम का मुख्य पड़ाव भी जोशीमठ ही है। सैकड़ों वर्ष पूर्व ‘गिरिराज चक्रचूड़ामणि’ पदवीधारी ‘कत्यूरी’ राजवंश के सूर्यवंशी राजाओं की पहली राजधानी जोशीमठ ही थी। उन राजाओं ने अपनी रियासत को ‘कूर्मांचल’ अर्थात कूर्म की भूमि (भगवान विष्णु की भूमि) नाम दिया था। मान्यता है कि हिरण्यकश्यप का वध करने के बाद श्री विष्णु अवतार ‘नरसिंह भगवान’ अपने भयंकर क्रोध को शांत करने के लिए इसी पर्वत पर पहुंचे थे। हल्द्वानी के ‘रानीबाग’ क्षेत्र के युद्ध में कुमाऊं के राजपूतों की सेना के साथ उसी कत्यूरी राजवंश की वीरांगना ‘जिया रानी’ (1380-1420) ने तुर्क शासक तैमूर लंग की मुगल सेना को अपनी शमशीर से हलाक करके बेदखल किया था। मकर संक्रांति के अवसर पर प्रतिवर्ष उत्तराखंड की पौराणिक गाथाओं में जिया रानी का जिक्र पूरी अकीदत से होता है। वीरभूमि व देवभूमि के नाम से विख्यात हिमाचल व उत्तराखंड दोनों राज्यों में भौगौलिक, धार्मिक, सांस्कृतिक व सैन्य क्षेत्र में कई समानताएं हैं। उत्तराखंड में भारत के प्रथम ‘परमवीर चक्र’ मेजर सोमनाथ शर्मा का नाम बड़े अदब के लिया जाता है। हिमाचल के उस शूरवीर का संबंध ‘कुमाऊं रेजिमेंट’ से था। कश्मीर को पाक सेना से बचाने के लिए बडग़ाम की जंग में 3 नवंबर 1947 के दिन मेजर सोमनाथ शर्मा के साथ ‘चौथी कुमाऊं’ बटालियन के सूबेदार प्रेम सिंह मेहता, नायक ‘नर सिंह’ व ‘दीवान सिंह’ दोनों ‘महावीर चक्र’ सहित 20 जवानों ने शहादत जैसे अजीम रुतबे को मिलकर गले लगा लिया था। दोनों राज्यों के सैनिकों का एक साथ फिदा-ए-वतन का रिश्ता बहुत कुछ बयान करता है। हिमाचल के कर्नल कमान सिंह पठानिया ‘महावीर चक्र’ की कमान में ‘3 गढ़वाल’ के सैनिकों ने पाकसेना को शिकस्त देकर 18 मई 1948 को कश्मीर के टिथवाल क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था।

भावार्थ यह है कि उत्तराखंड में केवल बद्रिकाश्रम का भू-भाग ही नहीं दरक रहा बल्कि भारत की प्राचीनतम सनातन संस्कृति, ऋषियों की तपोस्थली, आस्था व वंदन की भूमि एवं शौर्य-पराक्रम का धरातल तथा कत्यूरी साम्राज्य का गौरवशाली इतिहास संजोए जोशीमठ जमींदोज होने की कगार पर पहुंच चुका है। ‘गेटवे ऑफ हिमालय’ कहा जाने वाला जोशीमठ चीन के करीब होने से वहां हजारों सैन्यबलों की तैनाती भी की गई है। जोशीमठ में खौफनाक आपदा के बाद ‘राष्ट्रीय संकट प्रबंधन समिति’ (एनसीएमसी) ने अपनी खामोशी तोडक़र हरकत में आकर लोगों से उस क्षेत्र को खाली करने का फरमान जारी कर दिया। सैकड़ों भवनों में दरारें आने के कारण जोशीमठ का इलाका स्थानीय लोगों की रिहाइश के लिए असुरक्षित घोषित कर दिया गया है। पर्वतीय क्षेत्रों में विकास के नाम पर चलने वाली ज्यादातर परियोजनाओं के लिए हरियाली से सराबोर जंगलों को मशीनों के प्रहारों से उजाड़ कर पहाड़ों का सीना छलनी किया जा रहा है।

अनियंत्रित विकास की इस आंधी का खामियाजा स्थानीय निवासियों को भुगतना पड़ता है। वर्तमान में प्रकृति का अंधाधुंध दोहन, पर्यावरण से हो रहा खिलवाड़, पहाड़ों पर अतिक्रमण, आस्था की नदियों का मैला हो रहा दामन, खड्डों में अवैध खनन तथा परंपरागत पेयजल स्रोतों का मिटता वजूद हमारे शासन, प्रशासन व संबंधित विभागों की बेरुखी का नतीजा है, जबकि इन संवेदनशील मुद्दों पर सख्त कदम उठाने की जरूरत है। सामरिक दृष्टि से अहम पहाड़ी क्षेत्रों में विकास परियोजनाओं का खाका तैयार करने वाले मंत्रालयों के अहलकारों को बेघर हो रहे लोगों के अश्कों का दर्द भी समझना होगा। तबाही को अंजाम देने वाले विकास कार्यों से उपजी विनाश लीला जो लोगों के आशियाने छीन कर विस्थापन का दंश झेलने पर मजबूर कर दे, उसका कोई औचित्य नहीं है। पहाड़ की भोली-भाली विरासत के लोगों की पुश्तैनी विरासतों तथा गौरवमयी व खुशहाल अतीत की कीमत सरकारी मुआवजे के चंद नोटों से अदा नहीं की जा सकती। जोशीमठ जैसी आपदाओं को प्राकृतिक आपदा का नाम देने से पहले पहाड़ों पर इंसानी दखलअंदाजी से हो रही घटनाओं पर रायशुमारी होनी चाहिए। इनसानी सभ्यता के मुस्तकबिल को महफूज रखने के लिए भूगर्भ वैज्ञानिकों की नसीहत व निर्देशों को संजीदगी से लेना होगा। बहरहाल ‘अययात्मा ब्रह्म’ का आध्यात्मिक संदेश देने वाला प्राचीन वैदिक शिक्षा का केंद्र ‘ज्योतिर्मठ’ अथर्ववेद से संबंधित है। अत: जोशीमठ को सुरक्षित रखने के हर स्तर पर प्रयास होने चाहिए। कुदरत की प्रतिशोध भरी प्रतिक्रिया से उपजी आपदा पर वैज्ञानिक तरीके से मंथन होना चाहिए ताकि पहाड़ों व धार्मिक स्थलों का स्वरूप सुरक्षित रहे।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं


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