राष्ट्रवाद पर हावी होती सियासत

स्मरण रहे हजारों वर्ष पुरानी गौरवशाली सभ्यता वाला भारत ‘वसुधैव कुटुंबकम’ जैसी आदर्श संस्कृति तथा राष्ट्रभक्ति के विचारों का वारिस रहा है। अत: सियासत का मकसद जो भी हो, मगर जहन में नजरिया राष्ट्रवाद का ही होना चाहिए। हिंद की सरजमीं को अपने रक्त से सींचकर गुलामी की दास्तां से मुक्त करके आजाद भारत का सपना साकार करने वाले नायकों का इतिहास पाठ्यक्रम में हो…

भारतीय सेना के कमांडर इन चीफ रहे फील्ड मार्शल ‘सर फिलिप चेटवुड’ ने 10 दिसंबर 1932 को देहरादून में ‘भारतीय रक्षा अकादमी’ की संगे बुनियाद के मौके पर वहां मौजूद सैन्य अधिकारियों व कैडेट्स को सम्बोधित करते हुए कहा था कि ‘हर बार और हमेशा देश की सुरक्षा, सम्मान और कल्याण के लिए काम करना आपका पहला कत्र्तव्य है और खुद के आराम, सुख सुविधा व सुरक्षा का ख्याल अंत में होगा’। राष्ट्रवाद से सराबोर ये अल्फाज आईएमए के चेटवुड हाल की दीवार पर आज भी चस्पां हैं। चेटवुड के इन शब्दों की प्रेरणा भारतीय सेना के शौर्य में आज तक मौजूद है लेकिन सनातन संस्कृति के प्राचीनतम व मुकद्दस धर्मग्रंथ ‘यजुर्वेद’ के नौवें अध्याय में उल्लेख है कि ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहित:’ अर्थात हम पुरोहित राष्ट्र को जीवंत और जाग्रत बनाए रखेंगे। जाहिर है भारत की संस्कृति व राष्ट्रीयता वैदिक काल से ही राष्ट्रवाद के विचारों से परिपूर्ण रही है। आजादी के बाद भारत का 75 वर्षों का सफर बेहद उपलब्धियों भरा रहा है। खिलाड़ी वैश्विक खेल पटल पर भारत का परचम लहरा रहे हैं। विश्व में हिंदोस्तान की सैन्य ताकत का रुतबा चौथी हैसियत का है। देश पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था में शुमार कर चुका है, मगर मुल्क में चर्चा का मरकज जाति व मजहब की सदारत ढूंढने में माहिर सियासत व सियासी रहनुमां ही रहते हैं। समाचार पत्रों से लेकर टीवी न्यूज चैनलों तक ज्यादातर सियासी सरगम की ही धुन सुनाई देती है। हरदम इक्तदार के लिए बेचैन रहने वाले सियासी हुक्मरानों के प्रति लोगों में अकीदतमंदी का आलम इस कदर हावी है कि कई मर्तबा सियासतदानों की तुलना भगवान से भी कर दी जाती है। इसे जम्हूरियत की खूबसूरती कहें या सियासत की खुसुशियत। जम्हूरियत के निजाम के लिए राजाओं ने राजपाट का त्याग कर दिया था, मगर चारण संस्कृति की झलक सियासत में भी देखने को मिल रही है। इसी कारण राजनीति राष्ट्रीय खेल का रूप ले चुकी है। लोग ज्यादातर सियासतदानों व सिल्वर स्क्रीन के अदाकारों को ही अपना आदर्श मानते हैं जबकि भारत का गौरवशाली इतिहास देश के लिए सरफरोशी की तमन्ना रखने वाले क्रांतिवीरों की दास्तान-ए-शुजात से भरा पड़ा है। राष्ट्रवाद के जज्बात ही राष्ट्र पर कुर्बानी का जज्बा पैदा करते हैं।

अंग्रेज हुकूमत से आजादी के बाद अखंड भारत के निर्माण के लिए देश की साढ़े पांच सौ से अधिक रियासतों की स्वैच्छिक स्वीकृति राष्ट्रवाद की भावना थी। हिमाचल प्रदेश की राजपूत वर्चस्व वाली 30 रियासतों ने भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए त्याग व राष्ट्रवाद की नजीर पेश की थी। वो राष्ट्रवाद के ही जज्बात थे जब नूरपुर रियासत के वजीर राम सिंह पठानिया तथा कुल्लू के कंवर प्रताप सिंह जैसे शूरवीरों ने सशस्त्र बगावत को अंजाम देकर बर्तानियां सल्तनत के खिलाफ जंग-ए-आजादी का सफीना नसर कर दिया था। सन 1846 में हिमाचल की सरजमीं पर हुआ आजादी का वही शंखनाद भारत की स्वाधीनता यात्रा में अहम पड़ाव सिद्ध हुआ था। 14 वर्षीय बालक ‘वीर हकीकत राय’ ने सन 1734 में बसंत पंचमी के दिन धर्म व राष्ट्रवाद पर अडिग रहकर ही अपना बलिदान दिया था। अंग्रेजों से स्वतंत्र भारत का अरमान लेकर 18 वर्ष के इंकलाबी ‘खुदीराम बोस’ ने सन 1908 में तथा 19 वर्षीय ‘करतार सिंह सराभा’ ने सन 1915 में फांसी के फंदे चूम लिए थे। राष्ट्रवाद के जोश में देवरिया के 13 वर्षीय विद्यार्थी ‘रामचंद्र’ ने 14 अगस्त 1942 के दिन भारत माता की जय का उद्घोष करके देवरिया के कलैक्टर कार्यालय के ऊपर ब्रिटिश यूनियन जैक के झंडे को उतार कर वहां शान-ए-तिंरगा फहराकर अपना बलिदान दे दिया था। 29 मार्च 1857 के दिन बैरकपुर छावनी में राष्ट्रवादी तेवरों से प्रेरित होकर मंगल पांडे की बंदूक ने आग उगल कर फिरंगी अफसरों को लाशों में तब्दील कर दिया था। कर्नल ‘क्रस्टाइज’ की कमान में ब्रिटिश सेना ने उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के ‘खजुहा’ नामक स्थल पर 28 अप्रैल 1858 के दिन ‘ठाकुर जोधा सिंह अटैया’ को उनके 51 ठाकुर साथियों सहित हिरासत में लेकर इमली के पेड़ से फांसी पर लटका दिया था। इमली का वही पेड़ वर्तमान में ‘बावनी इमली’ शहीद स्मारक के रूप में विख्यात है।

मगर देश की आजादी के लिए जिंदगी का नजऱाना देने वाले सैंकड़ों राष्ट्रवादी योद्धा गुमनामी के अंधेरे में खोकर अपनी पहचान को मोहताज़ हैं। जलियांवाला बाग के नरसंहार के विरोध में नोबल पुरस्कार विजेता ‘रविंद्रनाथ टैगोर’ ने अंग्रेजों द्वारा दी गई ‘नाईट हुड’ की उपाधि बर्तानिया बादशाही को वापस लौटा कर राष्ट्रवाद का परिचय दिया था। सैंकड़ों वर्षों तक हिजरत का भयानक दौर झेलने वाले इजराइल के लोगों ने एकजुट होकर अपने मुल्क को एक बड़ी सैन्य कूवत में शुमार करके अपने प्रखर राष्ट्रवाद की अनूठी मिसाल कायम की है। देश के लिए सैन्य सेवा की अनिवार्यता ने इजरायल के राष्ट्रवाद को और मजबूत कर दिया है। दूसरी जंगे अजीम के दौरान एटम बमों के अजाब से तबाह हो चुका जापान राष्ट्रवाद के बल पर पुन: सशक्त बना है। दहशतगर्दी का मरकज पाकिस्तान तथा विस्तारवादी मंसूबों के नक्शेकदम पर चलने वाला शातिर चीन विश्व में केवल भारतीय थलसेना के पराक्रम से ही खौफजदा है। हमारा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा यदि देश की सीमाओं पर पूरी शान से लहरा रहा है तथा हजारों फीट की बुलंदी पर सरहदों के प्रहरी हमारे सैनिक दुश्मन पर भारी पड़ रहे हैं तो ये सेना के राष्ट्रवाद की ताकत है। स्मरण रहे हजारों वर्ष पुरानी गौरवशाली सभ्यता वाला भारत ‘वसुधैव कुटुंबकम’ जैसी आदर्श संस्कृति तथा राष्ट्रभक्ति के विचारों का वारिस रहा है। अत: सियासत का मकसद जो भी हो, मगर जहन में नजरिया राष्ट्रवाद का ही होना चाहिए। हिंद की सरजमीं को अपने रक्त से सींचकर गुलामी की दास्तां से मुक्त करके आजाद भारत का सपना साकार करने वाले इंकलाब के गुमनाम नायकों व वीरांगनाओं का इतिहास शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल होना चाहिए ताकि वतन-ए-अजीज के लिए कुर्बानी का फलसफा जीवित रह सके। युवा वर्ग में ‘राष्ट्र सर्वप्रथम व सर्वोपरि’ की भावना जागृत करने की निहायत जरूरत है।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं


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