नई सरकार से जनता की अपेक्षाएं

विशेषकर हिमालय क्षेत्र में जहां की परिस्थिति बहुत नाजुक है, वहां एक दो मेगावाट से बड़े प्रोजेक्ट नहीं लगने चाहिए। अभय शुक्ला कमेटी ने सात हजार फुट से ऊपर के क्षेत्रों में जल विद्युत प्रोजेक्ट न लगाने की अनुशंसा की थी। उसे लागू किया जाना चाहिए। पर्यावरण मित्र पर्यटन को विशेष प्रोत्साहन देने के प्रयास होने चाहिए। प्रदेश में बहुत से अविकसित पर्यटन स्थल हैं जिन्हें विकसित करके बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर खड़े किए जा सकते हैं…

हिमाचल प्रदेश ने अपना रिवाज बरकरार रखते हुए सरकार बदल दी। नई कांग्रेस सरकार को शुभ कामनाएं। आशा है कि सरकार अपने वादों को पूरा करते हुए पर्यावरण की दृष्टि से भी जागरूक रहेगी और इस दिशा में सकारात्मक फैसले लेगी। प्रदेश को विकास की तो दरकार है ही, परन्तु विकास के लिए हिमालय की विशेष परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए पर्यावरण मित्र विकास के रास्ते पर चलते हुए आगे बढऩा होगा। प्रदेश पिछले चार-पांच दशकों से लगातार कर्ज के बोझ तले दबता जा रहा है। इस बात को भी ध्यान में रखना होगा। कुछ पुराने लटके हुए काम पूरे करने होंगे और कई नई रहें तलाश करनी होंगी। राजनीतिक दलों की आपसी खींचतान तो चलती ही रहती है किन्तु आम नागरिक तो रोज़ी-रोटी की स्थितियों में सुधार की आशा ही सरकारों से लगाए रहता है। कुछ भरे हुए पेट वालों की मांगें भी दबाव बनाए रहती हैं। सरकार को देखना होगा कि किसकी मांग को प्राथमिकता देनी है।

मुख्यमंत्री जी एक सामान्य परिवार से उठ कर यह जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। इसलिए स्वाभाविक है कि वे ज्यादा जरूरतमन्द वर्ग की मांगों को प्राथमिकता देंगे। प्रदेश के ऐसे संसाधन जो अनुत्पादक हो गए हैं उनको उत्पादक बनाने की चुनौती भी छोटी नहीं है। पशुपालन को लाभकारी बनाने की बड़ी जरूरत है। यह पहाड़ी लोगों का प्राचीन काल से ही मुख्य व्यवसाय रहा है और सबसे गरीब तबके के लिए आशा की किरण रहा है। आज यह व्यवसाय दबाव में आ गया है। इसे उबरने के लिए नस्ल सुधार और चिकित्सा सुविधा जैसे कामों की ओर तो ध्यान दिया गया है किन्तु प्रदेश बुनियादी जरूरत यानी चारे की कमी से जूझ रहा है। पंजाब और हरियाणा से महंगे दामों पर तूड़ी लाकर पशुपालन घाटे का सौदा होता जा रहा है। अनुत्पादक पशुओं को लावारिस सडक़ों पर छोड़ा जा रहा है। हालांकि प्रदेश में अपनी आबादी के लिए दूध उत्पादन पर्याप्त है, किन्तु एक करोड़ से ज्यादा प्रतिवर्ष आने वाले पर्यटकों की जरूरतों और मिठाई आदि की जरूरतों के लिए प्रदेश को पंजाब और गुजरात पर निर्भर होना पड़ता है। दूध उत्पादन को दुगना करने की जरूरत है। 67 फीसदी वन भूमि होने के बाबजूद पशुचारे का अकाल प्रबन्धन की कमी को दिखलाता है, जिसे चरागाह विकास और वनों में चारे के वृक्षारोपण से सुलझाया जा सकता है। किन्तु छुटपुट प्रयासों से काम बनने वाला नहीं, इसके लिए बड़े पैमाने पर विशेष योजना बनाने की जरूरत है। मनरेगा के बजट का एक निश्चित प्रतिशत पांच साल के लिए इस काम के लिए निर्धरित करके पंचायतों और विकास खंड अधिकारियों को निर्देशित करके चरागाह विकास कार्य को क्रियान्वित करवाया जाना चाहिए। चरागाह विकास के लिए पहले छह हजार फुट से कम ऊंचाई वाले इलाकों में खरपतवार उन्मूलन कार्य करना होगा। इस क्षेत्र की करीब 70 फीसदी चरागाहें खरपतवारों से नष्ट हो चुकी हैं। साथ ही इनमें सुधरी किस्म का घास रोपण करना होगा। पालमपुर विश्वविद्यालय और भारतीय घास-चारा अनुसन्धान केंद्र पालमपुर इस दृष्टि से पर्याप्त जानकारियां और घास के बीज और पौध उपलब्ध करवा सकता है। प्रदेश में बहुत सी जमीनें बन्दर, सूअर, नीलगाय, लावारिस पशुओं के आक्रमण के कारण किसानों द्वारा खाली छोड़ दी गई हैं। इनका समुचित उपयोग करने के रास्ते तलाश करने की जरूरत है। ऐसी फसलें जिन्हें ये जंगली जानवर नुकसान न पहुंचा सकें उनकी खेती करने की दिशा में जानकारी और सहयोग दिया जाना चाहिए। एक नया आयाम इस दिशा में खुला है। उसका लाभ इस कार्य में लिया जा सकता है। देश में खनिज तेल की खपत कम करने के लिए एथनोल एक विकल्प के रूप में उभर रहा है। आने वाले समय में एथनोल की पेट्रोल के साथ ब्लेंडिंग लगातार बढ़ती जा रही है। अब तो केवल एथनोल से चलने वाले वाहनों की बात हो रही है।

बेकार पड़ी जमीनों और लैंटाना जैसे खरपतवारों से नष्ट भूमियों में उपयुक्त किस्म के बांस रोपण का काम बड़े पैमाने पर किया जा सकता है। बांस से गन्ने के मुकाबले दस गुणा ज्यादा एथनोल बनाया जा सकता है। प्रदेश बैम्बू मिशन का लाभ इस काम के लिए ले सकता है और केंद्र सरकार से बांस से एथनोल बनाने वाले प्लांट की स्थापना का आग्रह करके आगे बढ़ा जा सकता है। बांस, गन्ने से तीसरे चौथे हिस्से पानी में ही पनप जाता है और इससे स्थानीय दस्तकारी के लिए कच्चे माल के साथ साथ भरपूर चारा भी उपलब्ध हो सकता है। एथनोल की मांग लगातार रहने वाली है। यूपीए सरकार के समय वनों से संबंधित ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने के लिए वन अधिकार क़ानून 2006 पास किया गया था, किन्तु आज दिन तक इसका क्रियान्वयन लटका हुआ है। इसको उचित तरीके से लागू करके सामुदायिक वानिकी को बढ़ाया जा सकता है जिससे समुदाय वनों से आय सृजन के लिए बांस जैसे उत्पाद पैदा करके नए एथनोल उद्योग के लिए कच्चा माल तैयार करके विकास का पर्यावरण मित्र विकास मॉडल सशक्त करने में अपनी भूमिका निभा कर अपने लिए भी रोजगार या रोजी का साधन खड़ा कर सकते हैं। प्रदेश में खनन और ग्रीन हॉउस गैस उत्सर्जन को कम से कम करते जाने की ओर बढऩा होगा ताकि पर्यटन जैसे उद्योग फल-फूल सकें। बड़े बांधों के नुकसान सामने आ चुके हैं। विशेषकर हिमालय क्षेत्र में जहां की परिस्थिति बहुत नाजुक है, वहां एक दो मेगावाट से बड़े प्रोजेक्ट नहीं लगने चाहिए। अभय शुक्ला कमेटी ने सात हजार फुट से ऊपर के क्षेत्रों में जल विद्युत प्रोजेक्ट न लगाने की अनुशंसा की थी। उसे लागू किया जाना चाहिए। पर्यावरण मित्र पर्यटन को विशेष प्रोत्साहन देने के प्रयास होने चाहिए। प्रदेश में बहुत से अविकसित पर्यटन स्थल हैं जिन्हें विकसित करके बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर खड़े किए जा सकते हैं। पांच सितारा पर्यटन से बचना चाहिए। मुख्यमंत्री जी ने वाहनों के द्वारा प्रदूषण उत्सर्जन को कम करने के लिए इलेक्ट्रिक वाहनों को प्रोत्साहन देने का वादा करके इशारा तो दे दिया है कि वे पर्यावरणमित्र विकास को अहमियत देंगे।

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान


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